अक्टूबर
१ अक्टूबर—तुम जिस काममें लगे हुए हो, क्या वह इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसके लिये परमात्माका स्मरण छोड़ा जा सके?
२ अक्टूबर—जो काम तुम कर रहे हो वह भगवान्के लिये ही है न? नहीं तो क्या तुम स्वार्थके लिये इतने अंधे हो गये हो कि मैं कहाँ जा रहा हूँ, यह भी तुम्हें पता नहीं?
३ अक्टूबर—तुम्हें कुछ प्रकाश भी दीखता है अथवा सब अन्धकार-ही-अन्धकार? जिनमें तुम उलझे हुए हो एक बार तटस्थ होकर उन्हें देखो। ऐसा करते ही तुम अपनेको उनसे मुक्त पाओगे।
४ अक्टूबर—संसारके सारे सम्बन्ध और सम्पूर्ण बन्धन तुम्हारे अपने मनके माने हुए ही हैं। उन्हें चाहे जब तुम तोड़ सकते हो। परंतु वैसा करते समय यदि तुम भगवान्के साथ जुड़ जाओ तो तुम्हें एक अभूतपूर्व आनन्दकी अनुभूति होगी।
५ अक्टूबर—यदि चित्तमें निराशा होती है, मन चंचल रहता है, तुम जो कुछ करना चाहते हो वह नहीं कर पाते, तो पूरी शक्ति लगाकर परमात्माको पुकारो। तुम्हें तत्क्षण सहायता मिलेगी, तुम्हारे मन-प्राणमें एक नवीन चेतनाका प्रवाह होने लगेगा और तुम अद्भुत उत्साह तथा स्फूर्ति प्राप्त करोगे।
६ अक्टूबर—जिन प्रतिकूलताओं और विफलताओंसे तुम घबरा जाते हो, तुम्हें पता नहीं है कि वे तुम्हारी गुप्त और सुप्त शक्तिको जागरित करनेके लिये आती हैं। वे ही तुम्हारे आत्मविकासके उपयुक्त अवसर उपस्थित करती हैं। तुम हारो मत। प्राण रहते उनकी जीत मत मानो। अन्तमें विजय तुम्हारी है; क्योंकि परमात्माकी सम्पूर्ण शक्ति तुम्हारे आवाहनकी बाट जोह रही है।
७ अक्टूबर—शरीर, इन्द्रिय, प्राण अथवा मन तुम्हें प्रभावित नहीं कर सकते। ये तुम्हारे सेवक हैं, तुम्हारे उपकरण हैं। तुम चाहे जैसे इनका उपयोग-प्रयोग कर सकते हो। तब क्यों नहीं सबसे श्रेष्ठ कर्ममें इन्हें लगाते? तुम केवल परमात्माके लिये कर्म करनेकी इन्हें आज्ञा देते रहो, ये अवश्य उसका पालन करेंगे।
८ अक्टूबर—तुम्हारी इच्छाके अनुसार यदि तुम्हारे औजार काम नहीं करते तो यह तुम्हारी ही असावधानीका फल है। सावधान रहो, इनकी एक-एक हरकतपर निगाह रखो और इनकी एक-एक क्रियाको भगवान्के साथ जोड़ दो।
९ अक्टूबर—तुमने संसारके साथ तो बहुत-से सम्बन्ध जोड़ रखे हैं, क्या भगवान्के साथ भी तुम्हारा कोई सम्बन्ध है? यदि होनेपर भी तुम उसे नहीं जानते हो तो जानो, तुम देखोगे कि वे तुम्हारे कितने निकट हैं। इतने निकट हैं वे कि ऐसी निकटता और किसीकी है ही नहीं।
१० अक्टूबर—निश्चय करो—परमात्मा ही मेरे गुरु, माँ-बाप, पुत्र, मित्र, स्वामी एवं पति हैं। और तो क्या मेरे अपने आत्मा भी वे ही हैं। उनका मैं, वे मेरे; फिर दु:ख-दर्द, शोक-मोह और निराशा-उद्वेगके लिये स्थान ही कहाँ है? मैं अपने प्रभुकी संनिधिमें—सर्वथा उनका हूँ।
११ अक्टूबर—विचार करो—कितना सुन्दर और सुखमय है वह मन, जो परमात्माके स्मरण-चिन्तनमें ही तन्मय रहता है। उसे सर्वदा सर्वत्र, सब रूपोंमें परम मधुर, मंगलमय प्रभुके ही दर्शन हुआ करते हैं। मेरा मन भी यदि वैसा ही हो जाता!
१२ अक्टूबर—जो समय प्रमादमें बीत चुका है उसकी चिन्ता मत करो, वह तो अब हाथसे निकल चुका है। इसको, जो अपने हाथमें है अब क्यों खोते हो? अधिक-से-अधिक परमात्माके निकट रहकर इसे बिताओ।
१३ अक्टूबर—तुम यह सोचते हो कि मैं अगले घंटेमें या अगले दिन परमात्माका स्मरण करूँगा, यदि आगेके लिये कार्यक्रम न बनाकर उसी समय भगवान्का स्मरण करने लगो, उस वृत्तिको ही भगवान्में डुबा दो तो दूसरे समय मिलनेवाला आनन्द तुम्हें अभी मिल जायगा।
१४ अक्टूबर—जो सर्वोत्तम वस्तु तुम्हें अभी मिल सकती है उसे कलपर टाल रखना कहाँकी बुद्धिमानी है; इसीसे तुम्हारी उत्सुकताकी परीक्षा भी हो जाती है। तुम इसमें निरन्तर उत्तीर्ण होते रहो।
१५ अक्टूबर—निश्चय करो—मेरे जीवनमें तबतक विश्रामके लिये एक भी क्षण नहीं है, जबतक जीवन और क्षणोंकी स्मृतिका लोप होकर सहजभावसे भगवान्की स्मृति नहीं होने लगती।
१६ अक्टूबर—तुम अपने लक्ष्यकी प्राप्तिके लिये कुछ त्याग भी सकते हो क्या? सोचो तो सही—तुम क्या त्याग सकते हो? इसके लिये हिमालयमें जानेकी आवश्यकता नहीं है। हाँ, तुम्हारे मनको इन स्थूलताओंसे कुछ ऊपर उठना होगा।
१७ अक्टूबर—अन्तरंगकी शीतलता—शान्ति, जो कि भगवान्के आश्रयसे प्राप्त होती है; सर्वदा तुम्हारे साथ रहनी चाहिये। चाहे जो भी घटना घट जाय, तुम शान्त रहो। तुममें विकृति अथवा क्षोभ न होने पावे। क्या यह समता तुम्हारे जीवनमें उतर रही है?
१८ अक्टूबर—समाधि अथवा योग एकान्तमें बैठकर ही नहीं होते, उनकी पूर्णताकी परीक्षा तो व्यवहारमें होती है। ‘योगस्थ’ होकर कर्म करो। केवल इसीके द्वारा तुम्हारी आध्यात्मिक उन्नतिका पता चल सकता है।
१९ अक्टूबर—चारों ओर प्रलोभन हैं और उनके बीचमें यह नन्हा-सा जीवन। एक-एकको केवल देखने लगो तो लाखों जन्मोंकी आवश्यकता होगी। तुम तो केवल एकको देखो—जो तुम्हारे हृदयमें बैठकर तुम्हें कुछ देखने-सुनने, हिलने-डोलनेकी शक्ति देता है। उस उद्गमके प्राप्त होते ही तुम परमानन्दकी लीला-भूमि हो जाओगे।
२० अक्टूबर—भगवान्के अतिरिक्त और किसीका विश्वास तुम्हें धोखा देकर ही रहेगा, यह परम सत्य है। सम्भव है, इस बातका बोध तुम्हें बहुत ठोकर खानेके बाद हो परंतु यदि अभीसे भगवान् पर विश्वास कर लो तो ठोकर खानेका अवसर ही न आवे।
२१ अक्टूबर—कर्मका चक्र अनिवार्य है। इसमें इच्छा करनेवाले ही मारे जाते हैं। परंतु यदि समता और अनासक्तिका आश्रय लेकर तुम झूलेमें बैठ जाओ तो देखोगे कि झुलानेवाला भी तुम्हारे साथ है और तुम इस झूलन-लीलाके आनन्दमें मस्त हो।
२२ अक्टूबर—यदि तुम अपनी इच्छासे नहीं, भगवान्की इच्छासे ही चल रहे हो तो सैकड़ों जन्म-मृत्युओंमें जाना भी तुम्हारे लिये सौभाग्य और परमानन्द है।
२३ अक्टूबर—क्या ही उत्तम हो कि तुम उसी मार्गपर चलो जिसपर आजतकके महापुरुष चलते आये हैं। अवश्य ही जबतक तुम चलना प्रारम्भ नहीं करते हो वह कठिन मालूम पड़ता है; परंतु यदि चल दोगे तो देखोगे कि वह कितना सरल, सुगम तथा सुखमय है।
२४ अक्टूबर—एक बात जान लो—मैं परमात्माका हूँ और परमात्मा मेरा अपना है।
२५ अक्टूबर—यह स्मरण रखो कि जगत्के रूपमें भी परमात्मा ही प्रकट हैं। जब सब परमात्मा ही हैं तब राग-द्वेष किससे? मेरा जीवन परमात्मासे परिपूर्ण है।
२६ अक्टूबर—तुम्हारे संकल्प परमात्माके लिये हों, परमात्माको लिये हों और तुम भागवत सत्तासे युक्त रहो। बस, तुम्हारा जीवन सच्चा भागवत-जीवन होगा।
२७ अक्टूबर—तुम उसके लिये क्यों चिन्ता कर रहे हो, जो स्वयं होने जा रहा है? जो नहीं होनेवाला है उसकी चिन्ता भी व्यर्थ है। तुम निश्चिन्त रहो और अपने निश्चिन्त चित्तमें भगवान्को आने दो। निश्चय करो—मैं निश्चिन्त हूँ। अनुभव करो—परमात्मा मेरे हृदयमें प्रकट हो रहे हैं।
२८ अक्टूबर—यह तुम्हारा अहंकार मिथ्या है कि मेरे करनेसे कुछ हो जायगा। जो तुमसे कराया जा रहा है, करते जाओ। जिस समय अलग होनेकी सूचना मिले, अविलम्ब अलग हो जाओ। कर्मकी पूर्णता और उनके फल तुम्हारे अधिकारसे बाहर हैं। तुम अपने जीवनको उस महान्का यन्त्र बन जाने दो।
२९ अक्टूबर—तुम्हारा जीवन समर्पित है, तुम भगवान्के अपने हो; उनके स्वरूप हो। अनुभव करो—मेरा सौभाग्य अखण्ड है, मैं परमात्माकी कृपासे पूर्ण हूँ। मैं एकरस अनन्त आनन्दस्वरूप परमात्मामें स्थित हूँ।
३० अक्टूबर—एक क्षण देवता और दूसरे क्षण दैत्य—भला यह भी कोई जीवन है? जीवन तो एकरस होना चाहिये। विश्वासपूर्ण भावना करो—मेरा यह समर्पित जीवन दिव्य जीवन है, आसुर भाव मेरा स्पर्श नहीं कर सकते, अब मैंने दुष्कर्म और दुर्भावनाओंसे सर्वदाके लिये छुट्टी पा ली है।
३१ अक्टूबर—अन्तर्दृष्टिसे अनुभव करो—परम सत्य, परम ज्ञान और परमानन्द मेरी अपनी सम्पत्ति है। उनकी एकरस अनुभूति ही मेरा स्वरूप है, मैं अपने स्वरूपमें स्थित हूँ।