भगवत्प्रेमकी महिमा
प्रवचन दिनांक—४-५-१९४१, दोपहर, स्वर्गाश्रम
मैं ईश्वरके स्वरूपको मायाकी उपाधि सहित नहीं मानता। ईश्वरके गुण लोगोंका उद्धार करनेवाले हैं। जीवन्मुक्तमें माया नहीं होती। ईश्वरमें यदि माया हो, तब बेचारा ईश्वर जीवन्मुक्तसे भी गया बीता हो गया।
ईश्वरमें ही यदि माया हो तो वह अवतार लेकर हमारी माया कैसे मिटा सकता है। हमारा ईश्वर मायावाला नहीं है, गुणोंवाला है। हमारे कृष्णमें चोरी, झूठ, कपटका व्यवहार नहीं है, हमारा कृष्ण अलौकिक है, पूर्ण ब्रह्म है, साक्षात् ब्रह्म है, विशुद्ध है, पवित्र है। भगवान् कहते हैं—
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
(गीता ७। १४)
यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है; परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे तर जाते हैं।
ज्ञानाग्नि सारे पापोंको, सारे कर्मोंको भस्म कर देती है। यदि कोई संसारके सभी पापियोंसे भी बढ़कर है, वह भी भगवान् की कृपासे, उनकी भक्तिके प्रभावसे परम शान्तिको प्राप्त हो सकता है। अतिशय दुराचारी होनेपर भी मोक्षकी प्राप्ति कर सकता है।
भगवान् ने भीलनीका आतिथ्य स्वीकार किया और विदुरके घर जाकर शाकका भोग लगाया। यह सब प्रेम और भक्तिकी महिमा है। जब श्रीकृष्ण पाण्डवोंकी ओरसे कौरवोंकी सभामें संधिका प्रस्ताव लेकर जाने लगे, बीचमें ही द्रौपदीने टोका। महाराज! आप उन दुष्ट पापियोंसे संधि करने जा रहे हैं, जिन्होंने मेरा अपमान किया, मेरे केश खींचे, मुझे यातना दी, क्या उनसे संधि करना उचित है? मेरे केश आज भी खुले हुए हैं। जबतक दुष्ट दुशासन मारा नहीं जायगा, तबतक मेरा प्रण है कि यह खुले रहेंगे, मैं जूड़ा नहीं बाँधूगी। द्रौपदीके पीड़ा भरे वचन सुनकर श्रीकृष्णने उसे आश्वासन दिया कि उन पापियोंका नाश होगा। कृष्णे! तुम चिन्ता क्यों करती हो, तुम्हारा प्रण पूरा होगा, यह मेरा प्रण है। उनसे संधि होना सम्भव ही नहीं। प्रभु भक्तके प्रेमके वशीभूत होकर उसके अधीन हो जाते हैं।
भगवान् जब कौरव-सभामें गये, दुर्योधनने उनके स्वागतका बड़ा प्रबन्ध किया। उनके भोजनके लिये नाना प्रकारके खाद्य-पदार्थ और मेवा-मिष्टान्नकी व्यवस्था की। हर-एक सुख-सुविधाका प्रबन्ध किया, अतिशय सम्मान किया, किन्तु भगवान् ने उन पदार्थोंकी ओर दृष्टि भी नहीं डाली। वहाँ प्रेम नहीं था, दैन्य नहीं था, अपितु अभिमानकी गन्ध थी, दिखलावा था। भगवान् ने वहाँसे तुरन्त चले जाना ठीक समझा। उन्होंने सब अस्वीकार कर दिया। जब वे जाने लगे तो दुर्योधनने इसका कारण पूछा। भगवान् ने कहा—जिस कार्यके लिये मैं आया हूँ, वह पहले कीजिये, पाण्डवोंसे समझौता कीजिये। दुर्योधनने इन्कार किया तो भगवान् ने सब अस्वीकार किया। दुर्योधनने कहा—अतिथिका सत्कार करना ही चाहिये, इसी दृष्टिसे हम आपका सत्कार करते हैं। भगवान् ने कहा—यह सत्कार नहीं है, सेवा नहीं है। सेवा वहीं स्वीकार की जाती है, जहाँ प्रेम होता है या जहाँ संकटमय स्थिति होती है। न तुममें प्रेम है और न मुझपर संकट है। अत: मेरे लिये यह सभी सामग्री त्याज्य है। भगवान् भक्त विदुरके यहाँ चले गये, वहाँ उनकी पत्नीके हाथसे शाकका भोग लगाया। वहाँ प्रेम-ही-प्रेम था। विदुर भक्त थे, शुद्ध अन्त:करण वाले थे। उनकी पत्नी भी प्रेममयी थी। भगवान् वहाँ बिना बुलाये गये। स्वयं भोजन माँगा। प्रेमवश होकर विदुर पत्नीने केलेके छिलके खिलाये। भगवान् प्रेमके दास हैं। जो कोई प्रेमसे पत्र-पुष्प अर्पण करता है, भगवान् उसे स्वीकार करते हैं। भगवान् ने कहा है—
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥
(गीता ९। २६)
जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।
यही कारण है भगवान् राजा दुर्योधनके मेवा-मिष्टान्न और सुन्दर-सुन्दर पदार्थोंको त्यागकर प्रेममूर्ति विदुरके यहाँ बिना बुलाये गये। वहाँ प्रेम था, भक्ति थी। यहाँ अभिमान था, दम्भ था, पाखण्ड था। यह प्रेमकी महिमा है। शबरीके बेर भी उसके सरल प्रेमके कारण स्वीकार किये। व्रजकी गोपियोंके प्रेमके बारेमें क्या कहा जाय, वह तो कृष्णमय थीं। उनकी-सी तन्मयता सबमें कहाँ मिलती। वह हर समय कृष्णको ही देखा करती थीं। उठते-बैठते, झाड़ू देते समय, पालना झुलाते समय, दही बिलोते समय, हर समय श्यामको ही देखती थीं। भगवान् भी उनके प्रेमके अधीन थे। उनके यहाँ भगवान् माखन चुराते थे, उनके साथ रास करते थे। हमें भी हर बातमें प्रेमको स्थान देना चाहिये, अतिथि-सत्कार हमें नारायणका भाव रखकर करना चाहिये। ‘मातृ देवो भव। पितृ देवो भव। अतिथिदेवो भव।’ अतिथिकी सेवा करे तो ऐसा समझे कि हम नारायणकी ही सेवा कर रहे हैं, हमारे अहोभाग्य हैं। शरीरसे सेवा और वाणीसे उनके नाम और गुणका कीर्तन करे। इस प्रकार मनसा वाचा कर्मणा तीनोंसे प्रभुकी पूजा करें। याद करनेसे भगवान् प्रसन्न होते हैं। यह बात कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि हमें यह सब करनेका अवकाश नहीं है। अवकाशकी क्या बात है। यदि हमारे हृदयमें प्रेम है, भक्ति स्वयं आयेगी, साधन स्वत: ही बनेगा। रावण, कंस, मारीच आदि भगवान् रामसे डरते थे। उन्हें हर समय राम और कृष्ण ही दिखलायी देते थे। भयसे उनकी ही याद बनी रहती थी। मारीच ‘र’ अक्षरसे काँप उठता था, ‘राज’ ‘रथ’ आदिसे उसे रामकी याद आ जाती थी और भयातुर हो जाता था। कंस कृष्णसे डरता था, कृष्णको ही हर समय देखता था, उनके नाशकी बात सोचता था। जब भगवान् से शत्रुता रखनेसे या भय रखनेसे उनकी याद हर समय बनी रहती है और हृदयसे निकालनेपर भी नहीं निकलती, तब भगवान् से प्रेम किया जाय तो क्या वह हमें सदैव याद नहीं रहेंगे? हमें दिखायी नहीं देंगे? अवश्य दिखायी देंगे। प्रेमसे भगवान् अवश्य आते ही हैं। गोपियोंने भगवान् से प्रेम ही किया था, उनका वह प्रेम अनुपम था, वास्तविक था। गोपाङ्गनाएँ उठते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते, हर समय कृष्णको याद रखती थीं, उनसे प्रेम करती थीं। भगवान् भी उनके प्रेममें मत्त होकर उनके साथ क्रीड़ा करते थे। यह है प्रेमका महत्त्व, प्रेम बड़ी चीज है, प्रेमसे प्रभु अपने हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं। हमें प्रभुको अपना बनानेके लिये या उनका बननेके लिये हृदयमें नित्य-निरन्तर प्रेमभाव उदित करना चाहिये। इसीमें हमारा कल्याण है।
नारायण नारायण नारायण