मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाका त्याग
प्रवचन दिनांक—६-६-१९४२, गोरखपुर
वास्तवमें जो उच्चकोटिके पुरुष होते हैं, वे इन मान, बड़ाई आदिसे खूब सावधान रहते हैं। वे इस बातको नहीं मानते कि मेरा शरीर पूजने लायक है।
भक्तिकी दृष्टिसे देखा जाय तो भी वही बात है और ज्ञानकी दृष्टिसे भी वही बात है।
भक्तकी कोई पूजा करेगा तो वह रोयेगा। वह सबको नारायण समझता है, फिर नारायणसे पूजा कैसे करवा सकता है? वह समझता है कि नमस्कार, पूजा करने योग्य तो केवल भगवान् हैं। जो झूठे भक्त होते हैं, वे ही भगवान् को अलग हटाकर अपनी पूजा करवाते हैं, जैसे नीच सेवक स्वामीका धन स्वयं हड़प जाता है।
बड़ी महत्त्वकी बात है, खूब ध्यान देनेकी बात है कि जो बहुत उच्चकोटिके महापुरुष होते हैं, वे अपने चरणोंका जल दूसरोंको नहीं देते, न अपना चित्र ही देते हैं। इसमें क्या गुप्त रहस्य है, वह आपको बताया जाता है।
प्रसादका क्या फल बताया गया है?—चित्तकी प्रसन्नताका नाम प्रसाद है (गीता २। ६५), ईश्वर और महात्माओंकी दयाका नाम प्रसाद है, ईश्वर और महात्माके लगाये हुए भोगका नाम प्रसाद है। प्रसादका फल होना चाहिये—सारे दु:खोंका अभाव होकर परमात्माकी प्राप्ति हो जाय। तब तो वह प्रसाद है, अन्यथा प्रमाद है।
कोई महापुरुष हैं, उनके चरणोंका जल लिया, परन्तु हमें उसी समय भगवान् की प्राप्ति नहीं हुई तो हम महात्माओंके, शास्त्रके कलंक लगाते हैं। लोग कहेंगे—शास्त्र मिथ्या हैं। ये महात्मा कहाँ हैं? इनके चरणोंका जल पी लिया, कुछ भी तो लाभ नहीं हुआ। जैसे कल थे, वैसे ही आज हैं।
महात्मा इस प्रकार क्यों करायेगा? शिष्य यदि पात्र हो, तब तो वह महात्मा ही बन जाता। महात्मा यदि सच्चा ईश्वरका भक्त है तो वह इस बातको कैसे सहन कर सकता है कि उसके चरणोंका जल दूसरा ले। महात्मा अपने चरणोंकी रज, चरणोंका जल इसलिये नहीं लेने देते कि हमारे कलंक लगे तो भले ही लगे, पर शास्त्रोंके कलंक नहीं लगाना चाहिये, इसलिये वे अपने चित्रको नहीं पुजवाते। वे समझते हैं कि हमारे स्पर्श किये हुए जलमें क्या विशेष बात है? भगवान् के सच्चे भक्त भगवान् को ही पुजवाते हैं। वे कहते हैं—भगवान् की पूजा करो, उनके चरणोंका जल लो तो कल्याण होगा। अच्छे महापुरुष अपनेको नहीं पुजवाते। जो पुजवाते हैं, वे महात्मा नहीं हैं। हम पुत्रको उसके माता-पिताकी सेवा करनेके लिये मना नहीं करते, स्त्रीको अपने पतिकी सेवा करनेकी मनाही नहीं करते, शिष्यको अपने गुरुकी पूजा करनेकी मनाही नहीं करते, परन्तु वे अपनेको महात्मा न समझें।
महात्मा पुरुष मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाको विष्ठाके समान समझकर उस मार्गसे नहीं जाते। एक भाईको समझना चाहिये कि मानके योग्य एक भगवान् ही हैं। अपने शरीरको सबके चरणोंकी धूलि समझना चाहिये। अपनेको तुच्छ समझे और यह समझे कि यह शरीर तो नष्ट होनेवाला है, इसकी हड्डियाँ एक दिन ठोकर खाती फिरेंगी। इस प्रकार सबके चरणोंकी धूलि बनकर विचरे। इसपर भी कोई उसका मान कर देता है तो उसे बड़ा संकोच होता है।
एक विरक्त पुरुष थे, नगरकी ओर जा रहे थे, लोगोंने उनको दण्डवत् प्रणाम किया, उन्होंने भी उसी प्रकार दण्डवत् प्रणाम किया। लोगोंने कहा—महाराज! आप हमारेपर भार क्यों चढ़ाते हैं?
महाराजने कहा—आप भी मेरे भार चढ़ाते हैं।
लोगोंने कहा—महाराज! आप त्यागी हैं।
महाराजने कहा—आप मेरेसे बढ़कर त्यागी हैं।
लोगोंने पूछा—यह कैसे?
महाराजने कहा—सबसे बढ़कर क्या चीज है?
लोगोंने कहा—परमात्मा हैं।
महाराजने कहा—मैं त्यागी कैसे हुआ?
लोगोंने कहा—आपने कंचन, कामिनी, भोग-पदार्थोंका त्याग कर दिया।
महाराज—ठीक है। क्या मैंने ईश्वरका भी त्याग कर दिया है?
लोगोंने कहा—नहीं, ईश्वरका त्याग कहाँ किया है? उसे तो पकड़ रखा है।
महाराज—आपने बड़ी चीजका ही त्याग किया है। आप बड़े त्यागी हैं इसलिये आप नमस्कार करने लायक हैं।
लोगोंने कहा—हम आपको महात्मा समझकर प्रणाम करते हैं।
महाराजने कहा—महात्माका लक्षण सुना है क्या?
लोगोंने कहा—सुना है—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९)
बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है—इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।
महाराजने कहा—ठीक है। मैं तो महात्मा नहीं हूँ, पर तुम कहते हो तो ठीक है। महात्माकी बुद्धि होती है—सबमें परमात्माके दर्शनकी; मैं तुम्हें परमात्मा समझकर प्रणाम करता हूँ।
जो अपनेको श्रेष्ठ मानता है, पूज्य समझता है, वह महात्मा नहीं, महा-तमा है, यानी महान् तमोगुणी है, बहुत नीचे दर्जेका है। यह हम किसके लिये कह रहे हैं? जो अपनी आत्माका कल्याण चाहे, उसके लिये और जो कल्याणको प्राप्त हो चुके हैं।
मान, बड़ाई तुम्हारे लिये बड़ी ही घातक हैं। उच्चकोटिके साधक इसे घातक समझते हैं, परन्तु जो इसके प्राप्त होनेपर प्रसन्न होते हैं, वे इसमें फँस जाते हैं और डूब जाते हैं। मान, बड़ाई स्वीकार करना गलेमें पत्थर बाँधकर डूबना है। मान, बड़ाईको मृत्युसे भी बढ़कर समझना चाहिये। मान, बड़ाईसे डरकर भागना चाहिये। मृत्युसे डरनेकी आवश्यकता नहीं है। कोई अपनेको ज्ञानी मानता है और इस मान्यतासे अपनेको पुजवाता है, वह महा-अज्ञानी है, ज्ञानी नहीं है। देहकी पूजासे प्रसन्न होता है तो सम-बुद्धि कहाँ हुई? ज्ञानीका लक्षण देखें—
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो:।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीत: स उच्यते॥
(गीता १४। २५)
जो मान और अपमानमें सम है, मित्र और वैरीके पक्षमें भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है।
यह दीवाल है, इसका चाहे कोई मान करो, चाहे अपमान। इसी प्रकार देहमें चेतनके रहते हुए जो मान-अपमानमें सम रहता है, वही जीवन्मुक्त है। मुर्देके लिये मान-अपमान समान है, इसी प्रकार जीते हुए ही जो मर चुका है, वही जीवन्मुक्त है।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥
(गीता ६। २९)
सर्वव्यापी अनन्त चेतनमें एकीभावसे स्थितिरूप योगसे युक्त हुए आत्मावाला तथा सबमें समभावसे देखनेवाला योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें बर्फमें जलके सदृश व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें देखता है, अर्थात् जैसे स्वप्नसे जगा हुआ पुरुष स्वप्नके संसारको अपने अन्तर्गत संकल्पके आधार देखता है, वैसे ही वह पुरुष सम्पूर्ण भूतोंको अपने सर्वव्यापी अनन्त चेतन आत्माके अन्तर्गत संकल्पके आधार देखता है।
सर्वत्र समान भावसे देखनेवाला आत्माको सब भूतोंमें समान देखता है और सुख-दु:खमें भी समान देखता है। उसके अपने और दूसरेके शरीरमें भेद नहीं है। जिसकी इस प्रकारकी बुद्धि हो, वह कैसी किसीसे पूजा करवा सकता है? वह समझता है कि शिव, राम और कृष्ण मेरेसे अभिन्न हैं। वह अपनेको उनसे अलग नहीं समझता है, फिर वह शिव, राम और कृष्णकी ही पूजा करवायेगा, अपनी पूजा वह किस आधारपर करायेगा?
अच्छे पुरुष सब लोगोंकी आँखें खोलनेके लिये ही होते हैं। अच्छे पुरुष ही मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा स्वीकार करेंगे तो उनमें तथा औरोंमें क्या अन्तर रहेगा? मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा त्याज्य हैं—यह पाठ फिर और कौन पढ़ायेगा? जो स्वयं मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाका त्याग करेंगे, वे ही पुरुष तो आदर्श होंगे। अच्छे पुरुषोंको यह बात करके दिखला देनी चाहिये।
जो उच्चकोटिके पुरुष समझे जाते हैं और मान, बड़ाईको स्वीकार कर रहे हैं, उनकी यमराजके यहाँ खबर ली जायगी।
महापुरुषोंका यह कर्तव्य है, उन्हें यह दिखला देना चाहिये कि मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाका त्याग ही वास्तविक वस्तु है। जिन्हें मान, बड़ाई प्राप्त नहीं है, वे क्या त्याग करेंगे? जिसके मान, बड़ाईकी बौछार होती है, परन्तु वह उसके निकट नहीं जाता, वही हमें पाठ पढ़ा सकता है कि मान, बड़ाई त्यागने योग्य हैं।
किसीकी स्त्री सेवा करती है, पर उसे प्रेमसे समझाकर वह उससे सेवा नहीं लेता, वही आदर्श पुरुष है।
घरमें स्त्री रहते हुए भोग नहीं करना—यह तो खण्डेकी धार है। एकान्तमें रहकर ब्रह्मचर्यका पालन करना भी उत्तम है, पर वह तो बहुत ही प्रशंसनीय है, जो स्त्रीके साथ रहते हुए भी ब्रह्मचर्यका पालन करे।
जहाँ गुलाबजलकी बोतलें छिड़की जा रही हैं, महात्मा पुरुष वहाँसे भागता है, वह देखता है कि पेशाबकी बौछारें आ रही हैं, वह वहाँ जाना ही नहीं चाहता। विरक्त होकर वह अपने वैराग्यको प्रकट करना भी नहीं चाहता और वहाँसे हटना भी चाहता है। हजारों व्यक्ति किसीको प्रणाम करते हैं और वह अपनेको बड़ा मानता है तो समझ लो कि वह ईश्वरके यहाँ बड़ा नहीं है, किन्तु जो मान, बड़ाईको न भीतरसे चाहता है और न बाहरसे—वही बड़ा है।
ये गुलाबजामुन हैं, हमने सोचा कि लोगोांको दे दें। फिर मालूम पड़ा कि ये लोग हमें महात्मा समझकर प्रसाद लेंगे तो हमारा कर्तव्य है कि हम वह प्रसाद रूपमें नहीं दें। यदि हम देते हैं तो सबका कल्याण होना चाहिये। नहीं होगा तो हम शास्त्रके कलंक लगा रहे हैं।
आपसमें हम आपको भोजन करवाते हैं, आप हमें भोजन करवाते हैं, उसमें कोई दोष नहीं है, क्योंकि उसमें हमारे ऊपर कोई आक्षेप नहीं कर सकता है। महात्मा बनकर प्रसाद देते हैं तो शास्त्रोंके और महात्माओंके कलंक लगाते हैं।
एक बड़ी गुप्त बात बताता हूँ। जैसे बिजलीके करेन्टको छूनेसे सारे शरीरमें सनसनी हो जाती है, स्त्रीको छूनेसे कामीके काम व्याप्त हो जाता है, इसी प्रकार ईश्वरको छूनेसे प्रेमकी लहरें उठनी चाहिये। महात्माको छूनेसे भी वही बात होनी चाहिये न हो तो कोई कारण होना चाहिये। वह महात्मा ही यदि वास्तवमें महात्मा नहीं है तो हमारे क्या करेन्ट दौड़ेगा? या हम अश्रद्धा रूपी काठपर खड़े हैं तो करेन्ट नहीं दौड़ेगा।
जो पदार्थ जैसा है, उसका वैसा प्रभाव पड़ेगा। आगको छुएँगे तो उसके गर्म परमाणु हमारे शरीरमें प्रवेश करेंगे, इसी प्रकार ईश्वरको छूनेसे ईश्वरके परमाणु, महात्माको छूनेसे महात्माके परमाणु प्रवेश करेंगे।
यहाँ यह लालटेन है। यहाँसे कोई ले गया तो प्रकाश चला गया, इसी प्रकार महात्मा पुरुष हैं, वे चले गये तो अन्धकारकी तरह प्रतीत होगा।
महात्माके दर्शनसे परमात्माकी स्मृति होनी चाहिये। महात्माओंके पास दैवी-सम्पदा रूपी धन रहता है—क्षमा, शान्ति, दया आदि उत्तम गुण, उत्तम आचरणोंका उनमें समूह रहता है। जैसी चीज होती है, वैसा उसका प्रभाव पड़ता है। हमारे हृदयमें अच्छी स्फुरणा होती है तो समझना चाहिये कि किसी महात्माका प्रतिबिम्ब पड़ रहा है और दूषित भाव होते हैं तो समझना चाहिये कि हमारे आसपास कोई खराब पुरुष है। जिसके पास जो चीज होती है, उसका प्रभाव पड़ता है।
और एक सूक्ष्म बात है—हमलोगोंके हृदयमें सूक्ष्म दोष ऐसे प्रवेश करके रहते हैं जैसे प्लेगके परमाणु। मैंने पूछा—कैसी बात सुनायी? आपने कहा—बहुत अच्छी। इसे सुनकर मुझे प्रसन्नता होती है तो समझना चाहिये कि मुझमें मान, बड़ाई प्रतिष्ठाकी चाह है।
मैं कहूँ कि इस प्रकारकी बात आपको कहीं नहीं मिलेगी। जो मान, बड़ाईको नहीं चाहता है, वहींपर ऐसी बात आपको मिलेगी। इसका क्या तात्पर्य है? मैं मान, बड़ाई प्रतिष्ठा चाहता हूँ।
व्याख्यान देकर भी निर्लेप रहे, उसके अभिमान नहीं आये, वही श्रेष्ठ पुरुष है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...