गीता गंगा
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सर्वत्र भगवान् को ही देखें

प्रवचन दिनांक—१-१२-१९४५, प्रात: ७.४५ बजे, राजासाहबका निवास स्थान, गोरखपुर
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६। ३०)

जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता है, क्योंकि वह मेरेमें एकीभावसे स्थित है।

ज्ञानमार्गसे—बादलमें आकाश और आकाशमें बादलकी तरह।

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
(गीता १०। ४२)

हे अर्जुन! इस बहुत जाननेसे तेरा क्या प्रयोजन है, मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपनी योगशक्तिके एक अंशमात्रसे धारण करके स्थित हूँ, इसलिये मेरेको ही तत्त्वसे जानना चाहिये।

भक्तिमार्गसे—सर्वत्र सगुण रूपसे अपने इष्टदेवको देखे कि जहाँ नेत्र जाते हैं, जहाँ दृष्टि पड़ती है, पत्ते-पत्तेमें सर्वत्र भगवान् श्रीकृष्ण विराजमान हैं। गोपियोंकी नेत्रोंकी पुतलीमें भगवान् हैं। हरे रंगके चश्मेकी बात—चश्मेसे तो ऊपर, नीचे देखनेपर दूसरा रंग भी दीख सकता है, पर नेत्रोंकी पुतलीमें बसानेपर दूसरा नहीं दीखता। यह नेत्रकी बात हुई। इसी प्रकार मनमें भगवान् को बसा लेनेपर सर्वत्र वे ही दीखते हैं। इसी प्रकार भगवान् में सब देखना, जैसे यशोदा मैयाने भगवान् में सब कुछ देखा था, अर्जुनने देखा था।

तीसरी बात—भक्ति-मिश्रित ज्ञानका प्रकरण। रास्तेमें एक वृक्ष दीखा, भगवान् स्वयं ही लीला करनेके लिये वृक्षका रूप धारण किये हुए हैं। वाह प्रभु! वृक्ष साक्षात् भगवान् का रूप दीख रहा है, वह लिपट जाता है। गाय दिखती है—प्रभु! आप गायका रूप धारण करके लीला कर रहे हैं! देख-देखकर मुग्ध होता रहता है। सर्वत्र भगवान् को ही देख रहा है। एक भगवान् अनेक रूपोंमें लीला कर रहे हैं! सबको भगवान् में देखना, जो कुछ है, सब भगवान् हैं—यह ज्ञान-मिश्रित भक्ति है।

सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥
(रा०च०मा०, किष्किन्धाकाण्ड, दोहा ३)

सब कुछ भगवान् के स्वरूपकी राशि है, सबमें भगवान् देखता है। ज्ञानवान् सबको भगवान् देखता है—

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९)

बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है अर्थात् वासुदेवके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, इस प्रकार मेरेको भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है।

भक्ति मिश्रित ज्ञान—सबको भगवान् समझना।

दूसरी बात—ज्ञान मिश्रित भक्ति—सबमें भगवान् को देखना जहाँ मन गया—भगवान्। जहाँ दृष्टि गयी—भगवान्। इस प्रकार अभ्यास करते-करते भगवान् का यह तत्त्व-रहस्य समझमें आ जाता है और संसारका स्वरूप बदल जाता है। अनेक रूपोंमें पदार्थ दिखनेपर भी भाव बदल जाता है। भाव बदलनेपर क्षणभरमें जमीन-आसमानका अंतर हो जाता है। निराले ढंगकी बात है। अनुभवमें आनेसे ही समझमें आती है।

एक जिज्ञासु एक महात्माके पास गया, उसी महात्माको वह खोज रहा था, पर उसने पहचाना नहीं। उन्हींसे पूछता है कि अमुक महात्मा कहाँ हैं? महात्मा मौन हो जाते हैं। जिज्ञासुको कुछ सन्देह हो जाता है कि क्या यही हैं? थोड़ी देरमें जब पता चल जाता है कि ठीक वे ही हैं तो उस जिज्ञासुके पहलेके भावमें और अबके भावमें बड़ा अन्तर हो जाता है। पहचान लेनेपर इतना आनन्द होता है कि क्या कहा जाय! सर्वत्र भगवद्-बुद्धि हो जानेपर जब हमलोग वास्तवमें भगवान् को पहचान लेते हैं, तब हमारी स्थिति बड़ी विलक्षण हो जाती है।

काम, क्रोध, लोभ, मोहको हटानेकी चेष्टा करनेकी अपेक्षा भगवान् के भजनकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये। सूर्योदय होनेसे अन्धकार अपने-आप नष्ट हो जायगा। अन्धकारके नाशके लिये अन्य उपाय करनेकी अपेक्षा सूर्योदयके लिये प्रयास करना ही श्रेष्ठ है।

गोस्वामी तुलसीदासजी-सरीखा लाखों मनुष्योंमें कोई एक ही निकल सकता है। उनकी कवितामें इतनी अद्भुत आकर्षण-शक्ति भरी हुई है कि हमारे ऋषियोंके ग्रन्थोंसे भी आगे चले गये हैं। रामचरितमानस और विनय-पत्रिकाकी जितनी प्रशंसा की जाय, उतनी ही थोड़ी है।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...

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