॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
प्राक्कथन
यस्याङ्गेऽखिलसृष्टिसौष्ठवमिदं प्रोतं सदा वर्तते
यल्लीलाश्रवणेन दुर्जयमन: शीघ्रं हरौ रुध्यते।
नाम्नैकेन हि यस्य पापनिरतो जीवो भयान्मुच्यते
वत्सीकृत्य तु फाल्गुनं करुणया गीतादुहे नो नम:॥
‘जिन भगवान् श्रीकृष्णके अंगमें सम्पूर्ण सृष्टिका सौन्दर्य ओत-प्रोत है, जिनकी लीलाका श्रवण करनेसे दुर्जय मन भी शीघ्र ही भगवान् में ठहर जाता है, जिनका एक नाम लेनेमात्रसे पापमें आसक्त जीव भी भयसे मुक्त हो जाता है और जिन्होंने अर्जुनको बछड़ा बनाकर कृपापूर्वक गीतारूपी दूधको दुहा, उन्हें हम प्रणाम करते हैं।’
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श्रीमद्भगवद्गीता विश्वका अद्वितीय ग्रन्थ है। इसपर अबतक न जाने कितनी टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं, लिखी जा रही हैं और भविष्यमें लिखी जायँगी, पर इसके गूढ़ भावोंका अन्त न आया है, न आयेगा। कारण कि यह अनन्त भगवान् के मुखसे निकली हुई दिव्य वाणी (परम वचन) है। इस दिव्य वाणीपर जो कुछ भी कहता या लिखता है, वह वास्तवमें अपनी बुद्धिका ही परिचय देता है। गीताके भावोंको कोई मनुष्य इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे नहीं पकड़ सकता। हाँ, इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने-आपको भगवान् के समर्पित करके अपना कल्याण कर सकता है। जो अपने-आपको भगवान् के समर्पित कर देता है, उनके शरणागत हो जाता है, उसपर गीता-ज्ञानका प्रवाह स्वत: आ जाता है। तात्पर्य है कि गीताको समझनेके लिये शरणागत होना आवश्यक है। अर्जुन भी जब भगवान् के शरणागत हुए, तभी भगवान् के मुखसे गीताका प्राकट्य हुआ, जिससे अर्जुनका मोह नष्ट हुआ और उन्हें स्मृति प्राप्त हुई—‘नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १८।७३)।
गीता-ज्ञानको जाननेका परिणाम है—‘वासुदेव: सर्वम्’ का अनुभव हो जाना। इसके अनुभवमें ही गीताकी पूर्णता है। यही वास्तविक शरणागति है। तात्पर्य है कि जब भक्त शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने-आपको भगवान् के समर्पित कर देता है, तब शरणागत (मैं-पन) नहीं रहता, प्रत्युत केवल शरण्य (भगवान्) ही रह जाते हैं, जिनमें मैं-तू-यह-वह चारोंका ही सर्वथा अभाव है। इसलिये जब कोई महात्मा गीताको जान लेता है, तब वह मौन हो जाता है। उसके पास कुछ कहने या लिखनेके लिये शब्द नहीं रहते। वह साधकोंके प्रति गीताके विषयमें कुछ भी कहता है तो वह शाखाचन्द्रन्यायसे संकेतमात्र होता है।
लगभग बीस वर्ष पहले मैंने गीतापर ‘साधक-संजीवनी’ नामक विस्तृत हिन्दी टीका लिखी थी। जिज्ञासु साधकोंने उसे बड़े उत्साहपूर्वक अपनाया और उससे लाभ भी उठाया। फलस्वरूप अबतक उसकी लगभग साढ़े चार लाख प्रतियाँ मुद्रित हो चुकी हैं। इसके साथ ही साधकोंकी यह माँग भी बढ़ती रही कि ‘साधक-संजीवनी’ का कलेवर बहुत बड़ा होनेसे इसे अपने साथ रखनेमें कठिनाई होती है तथा विस्तार अधिक होनेसे पूरा पढ़नेके लिये समय भी नहीं मिल पाता। इसे ध्यानमें रखते हुए गीतापर एक संक्षिप्त टीका लिखनेका विचार किया गया, जो ‘गीता-प्रबोधनी’ नामसे साधकोंकी सेवामें प्रस्तुत है। इसमें गीताके मूल श्लोक एवं अर्थके साथ संक्षिप्त व्याख्या दी गयी है। परन्तु सभी श्लोकोंकी व्याख्या नहीं दी गयी है। अनेक श्लोकोंका केवल अर्थ दिया गया है। टीकाको संक्षिप्त बनानेकी दृष्टि रहनेसे व्याख्याका विस्तार करनेमें संकोच किया गया है। अत: साधकको यदि किसी व्याख्याका विषय विस्तारसे समझनेकी आवश्यकता प्रतीत हो तो उसे ‘साधक-संजीवनी’ टीका देखनी चाहिये।
गीताके भावोंका अन्त न होनेसे इस ‘गीता-प्रबोधनी’ टीकामें भी कुछ नये भाव आये हैं, जो अन्य किसी टीकामें हमारे देखनेमें नहीं आये। साधकोंसे प्रार्थना है कि वे किसी मत, सम्प्रदाय आदिका आग्रह न रखते हुए इस टीकाको पढ़ें और लाभ उठायें।
वि०सं० २०६१