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॥ श्रीहरि:॥

गोपी-प्रेम

कहा ‘रसखान’ सुख-संपति सुमार महँ
कहा महाजोगी ह्वै लगाए अंग छारको।
कहा साधे पंचानल, कहा सोए बीच जल,
कहा जीत लीन्हें राज सिंधु वारापारको॥
जप बार-बार, तप-संजम, अपार, ब्रत,
तीरथ हजार अरे! बूझत लबारको?
सोइ है गँवार जिहि कीन्हों नाहिं प्यार, नाहिं
सेयो दरबार यार नंदके कुमारको॥
कंचनके मंदिरन दीठि ठहरात नायँ
सदा दीपमाल लाल रतन उजारेसों।
और प्रभुताई तव कहाँ लौं बखानौं, प्रति-
हारिनकी भीर भूप टरत न द्वारेसों॥
गंगाजूमें न्हाय मुकताहल लुटाय, बेद—
बीस बार गाय ध्यान कीजै सरकारेसों।
ऐसे ही भये तौ कहा कीन्हों, ‘रसखान’ जुपै,
चित्त दै न किन्ही प्रीति पीत पटवारेसों॥

‘गोपी-प्रेम’ पर कुछ भी लिखना वस्तुत: मुझ-सरीखे मनुष्यके लिये अनधिकार चर्चा है। गोपी-प्रेमका तत्त्व वही प्रेमी भक्त कुछ जान सकता है, जिसको भगवान् की ह्लादिनी शक्ति श्रीमती राधिकाजी और आनन्द तथा प्रेमके दिव्य समुद्र भगवान् सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्रीकृष्ण स्वयं कृपापूर्वक जना देते हैं। जाननेवाला भी उसे कह या लिख नहीं सकता, क्योंकि ‘गोपी-प्रेम’ का प्रकाश करनेवाली भगवान् की वृन्दावनलीला सर्वत्र अनिर्वचनीय है। वह कल्पनातीत, अलौकिक और अप्राकृत है। समस्त व्रजवासी भगवान‍्के मायामुक्त परिकर हैं और भगवान् की निज आनन्दशक्ति, योगमाया श्रीराधिकाजीकी अध्यक्षतामें भगवान् श्रीकृष्णकी मधुरलीलामें योग देनेके लिये व्रजमें प्रकट हुए हैं। व्रजमें प्रकट इन महात्माओंकी चरणरजकी चाह करते हुए सृष्टिकर्ता ब्रह्मा स्वयं कहते हैं—

तदस्तु मे नाथ स भूरिभागो
भवेऽत्र वान्यत्र तु वा तिरश्चाम्।
येनाहमेकोऽपि भवज्जनानां
भूत्वा निषेवे तव पादपल्लवम्॥
अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम्।
यन्मित्रं परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम्॥
तद् भूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यां
यद् गोकुलेऽपि कतमाङ्घ्रिरजोऽभिषेकम्।
यज्जीवितं तु निखिलं भगवान् मुकुन्द-
स्त्वद्यापि यत्पदरज: श्रुतिमृग्यमेव॥
(श्रीमद्भा० १०। १४। ३०, ३२, ३४)

‘हे प्रभो! मुझे ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो कि मैं इस जन्ममें अथवा किसी तिर्यक्-योनिमें ही जन्म लेकर आपके दासोंमेंसे एक होऊँ, जिससे आपके चरणकमलोंकी सेवा कर सकूँ। अहो! नन्दादि व्रजवासी धन्य हैं। इनके धन्य भाग्य हैं जिनके सुहृद् परमानन्दरूप सनातन पूर्णब्रह्म स्वयं आप हैं। इस धरातलपर व्रजमें और उसमें भी गोकुलमें किसी कीड़े-मकोड़ेकी योनि पाना ही परम सौभाग्य है, जिससे कभी किसी व्रजवासीकी चरणरजसे मस्तकको अभिषिक्त होनेका सौभाग्य मिले।’

जिन व्रजवासियोंकी चरण-धूलिको ब्रह्मा चाहते हैं, उनका कितना बड़ा महत्त्व है! ये व्रजवासीगण मुक्तिके अधिकारको ठुकराकर उससे बहुत आगे बढ़ गये हैं। इस बातको स्वयं ब्रह्माजीने कहा है कि ‘भगवन्! मुक्ति तो कुचोंमें विष लगाकर मारनेको आनेवाली पूतनाको ही आपने दे दी। इन प्रेमियोंको क्या वही देंगे—इनका तो आपको ऋणी बनकर ही रहना होगा’ और भगवान् ने स्वयं अपने श्रीमुखसे यह स्वीकार भी किया है। आप गोपियोंसे कहते हैं—

न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि व:।
या माभजन् दुर्जरगेहशृंखला:
संवृश्च्य तद् व: प्रतियातु साधुना॥
(श्रीमद्भा० १०।३२।२२)

‘हे प्रियाओ! तुमने घरकी बड़ी कठिन बेड़ियोंको तोड़कर मेरी सेवा की है। तुम्हारे इस साधुकार्यका मैं देवताओंके समान आयुमें भी बदला नहीं चुका सकता। तुम ही अपनी उदारतासे मुझे उऋण करना।’

महात्मा नन्ददासजीकी रचनामें भगवान् कहते हैं—

तब बोले ब्रजराज-कुँवर हौं रिनी तुम्हारो।
अपने मनते दूरि करौ किन दोष हमारो॥
कोटि कलप लगि तुम प्रति प्रति उपकार करौं जौ।
हे मनहरनी तरुनी, उरिनी नाहिं तबौं तौ॥
सकल बिस्व अपबस करि मो माया सोहति है।
प्रेममयी तुम्हरी माया सो मोहि मोहति है॥
तुम जु करी सो कोउ न करै सुनि नवलकिसोरी।
लोक-बेदकी सुदृढ़ सृंखला तृन-सम तोरी॥

सारे संसारके देव, मनुष्य, गन्धर्व, असुर आदि जीवोंको कर्मोंकी बेड़ीसे निरन्तर बाँधे रखनेवाले सच्चिदानन्दघन, जगन्नियन्ता, प्रभु गोपी यशोदाके द्वारा ऊखलसे बँध जाते हैं। सारे जगत‍्को मायाके खेलमें सदा रमानेवाले मायापति हरि गोप-बालकोंसे खेलमें हारकर, स्वयं घोड़े बनकर उन्हें अपनी पीठपर चढ़ाते हैं। उन व्रजवासी नर-नारियोंको धन्य है! एक दिनकी बात है—यशोदाजी घरके आवश्यक कामोंमें लग रही थीं, बालकृष्ण मचल गये और बोले, मैं गोद चढ़ूँगा। माताने कुछ ध्यान न दिया। इसपर खीझकर आप लगे रोने और आँगनमें लोटने। इतनेहीमें देवर्षि नारद भगवान् की बाल-लीलाओंको देखनेकी लालसासे वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने देखा, सचराचर विश्वके स्वामी परमआनन्दमय भगवान् माताकी गोद चढ़नेके लिये जमीनपर पड़े रो रहे हैं। इस दृश्यको देखकर देवर्षि गद‍्गद हो गये और यशोदाको पुकारकर कहने लगे—

किं ब्रूमस्त्वां यशोदे कति कति सुकृत-
क्षेत्रवृन्दानि पूर्वं
गत्वा कीदृग् विधानै: कति कति सुकृता-
न्यर्जितानि त्वयैव।
नो शक्रो न स्वयम्भूर्न च मदनरिपु-
र्यस्य लेभे प्रसादं
तत्पूर्णं ब्रह्म भूमौ विलुठति विलपन्
क्रोडमारोढुकामम्॥

‘यशोदे! तेरा सौभाग्य महान् है। क्या कहें, न जाने तूने पिछले जन्मोंमें तीर्थोंमें जा-जाकर कितने महान् पुण्य किये हैं। अरी! जिस विश्वपति, विश्वस्रष्टा, विश्वरूप, विश्वाधार, भगवान् की कृपाको इन्द्र, ब्रह्मा और शिव भी नहीं प्राप्त कर सकते, वही पूर्णब्रह्म आज तेरी गोद चढ़नेके लिये जमीनपर पड़ा लोट रहा है!’

जो विश्वनायक भगवान् मायाके दृढ़ सूत्रमें बाँध-बाँधकर अखिल विश्वको निरन्तर नाच नचाते हैं, वही विज्ञानानन्दघन भगवान् गोपियोंकी प्रेम-मायासे मोहित होकर सदा उनके आँगनमें नाचते हैं। उनके भाग्यकी सराहना और उनके प्रेमका महत्त्व कौन बतला सकता है; रसखानि कहते हैं—

सेस महेस गनेस दिनेस
सुरेसहु जाहि निरंतर ध्यावैं।
जाहि अनादि अनंत अखंड
अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद-से सुक-ब्यास रटैं,
पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीरकी छोहरियाँ
छछियाभरि छाछपै नाच नचावैं॥

गोपियोंके भाग्यकी सराहना करते हुए परम विरागी, सदा ब्रह्मस्वरूप मुनि शुकदेवजी कहते हैं—

नेमं विरिञ्चो न भवो न श्रीरप्यंगसंश्रया।
प्रसादं लेभिरे गोपी यत्तत् प्राप विमुक्तिदात्॥
(श्रीमद्भा० १०। ९। २०)

‘ब्रह्मा, शिव और सदा हृदयमें रहनेवाली लक्ष्मीजीने भी मुक्तिदाता भगवान् का वह दुर्लभ प्रसाद नहीं पाया जो प्रेमिकाश्रेष्ठ गोपियोंको मिला।’

इसी प्रकार ज्ञानिश्रेष्ठ उद्धवजी कहते हैं—

नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्तरते: प्रसाद:
स्वर्योषितां नलिनगन्धरुचां कुतोऽन्या:।
रासोत्सवेऽस्य भुजदण्डगृहीतकण्ठ-
लब्धाशिषां य उदगाद् व्रजवल्लवीनाम्॥
(श्रीमद्भा० १०। ४७। ६०)

‘रासोत्सवके समय भगवान‍्के भुजदण्डोंको गलेमें धारणकर पूर्णकामा व्रजकी गोपियोंको श्रीहरिका जो दुर्लभ प्रसाद प्राप्त हुआ था, वह निरन्तर भगवान‍्के वक्ष:स्थलमें निवास करनेवाली लक्ष्मीजीको और कमलकी-सी कान्ति और सुगन्धसे युक्त सुरसुन्दरियोंको भी नहीं मिला, फिर दूसरेकी तो बात ही क्या है?’

सूरदासजी कहते हैं—

बनी सहज यह लूट हरिकेलि गोपीनके
सुपनें यह कृपा कमला न पावे।
निगम निरधार त्रिपुरारहू बिचार रह्यो,
पचि रह्यो सेस नहिं पार पावे॥
किंनरी बहुर अरु बहुर गंधरबनी,
पन्नगनी चितवन नहिं माँझ पावें॥
देत करताल वे लाल गोपालसों,
पकर वे ब्रजलाल कपि ज्यों नचावें॥
× × ×
बैन कहि लोने पुनि चाहि रहत बदन हँसि,
स्वभुज बीच ले ले कलोलें।
धामके काम ब्रजबाम सब भूल रहीं,
कान्ह बलरामके संग डोलें॥
सूर गिरधरन मधु चरित मधु पानके,
और अमरित कछु आन आगे।
और सुख रंककी कौन इच्छा करे,
मुक्तिहू लौन-सी खारी लागे॥

गोपियोंकी चरण-रज पानेके लिये व्रजमें लता-गुल्मौषधि बननेके इच्छुक और गोपियोंका शिष्यत्व ग्रहण करके गोपीभावको प्राप्त हुए भक्त उद्धवसे स्वयं भगवान् ने कहा है—

न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शंकर:।
न च संकर्षणो न श्रीर्नैवात्मा च यथा भवान्॥
(श्रीमद्भा० ११। १४। १५)

‘हे उद्धव! मुझे ब्रह्मा, संकर्षण, लक्ष्मी और अपना आत्मा—ये भी उतने प्रियतम नहीं हैं, जितने तुझ-जैसे भक्त प्रियतम हैं।’

इससे गोपियोंके महत्त्वकी किंचित् कल्पना हुई होगी। भगवान् की ऐसी प्रियतमा गोपियोंके प्रेमका वर्णन मुझ-जैसा मनुष्य कैसे कर सकता है? परम वैराग्यकी प्राप्ति होनेपर कहीं प्रेमका अधिकार मिलता है और उस दिव्य प्रेम-राज्यमें प्रवेश कर चुकनेवाले महात्माओंके प्रसादसे ही दुर्गम प्रेमपथपर अग्रसर होकर भक्त उस प्रेमामृतका कुछ आस्वाद प्राप्त कर सकता है। यह साधन-सापेक्ष है। केवल अध्ययन या ग्रन्थपाठसे वहाँतक पहुँच नहीं हो सकती, तथापि भगवत्कृपासे इधर-उधरसे जो कुछ बातें मालूम हुई हैं, उन्हींका कुछ थोड़ा-सा भाव संक्षेपमें लिखनेकी चेष्टा यहाँ की जाती है। भाग्यवान् पूज्यपाद प्रेमीजन कृपापूर्वक अपराध और धृष्टता क्षमा करेंगे।

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