Hindu text bookगीता गंगा
होम > गोपी प्रेम > प्रेमका स्वरूप

प्रेमका स्वरूप

गोपी-प्रेमका रहस्य जाननेसे पहले प्रेम-तत्त्वपर कुछ विचार करना आवश्यक है। प्रेम वस्तुत: वाणीकी वस्तु नहीं है, जिसका वर्णन वाणीसे हो सकता है, वह तो प्रेमका अत्यन्त स्थूल बाहरी स्वरूप है। प्रेम हृदयमें रहता है और प्रेमीको प्रेममय बना डालता है। भगवान् श्रीरामने श्रीजानकीजीके पास यह प्रेम-संदेश भेजा था—

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥

‘तुम्हारे और मेरे प्रेमका तत्त्व केवल एक मेरा मन जानता है और वह मन सदा तुम्हारे पास रहता है। प्रेममें स्वार्थके लिये जरा-सी भी जगह नहीं है। जहाँ कुछ भी पानेकी वासना है वहाँ प्रेमके पवित्र आसनको काम कलंकित कर रहा है। प्रेममें देना-ही-देना है, लेने या पानेकी कल्पना भी नहीं है। प्रेम सदा बढ़ता ही रहता है। प्रेमी कभी यह मान ही नहीं सकता कि मुझमें पूरा प्रेम है। वह सदा अपनेमें त्रुटि ही देखा करता है और अनन्यभावसे प्रेमास्पदके प्रति सदा हृदयको आकृष्ट रखता है। गुण देखकर अथवा किसी आशासे जो प्रेम होता है वह तो गुणोंका ह्रास देखते ही अथवा आशाभंगकी आशंका होते ही घट जाता है या नष्ट हो जाता है। वह वास्तवमें प्रेम नहीं है। वहाँ काम ही प्रेमके नामपर राज्य कर रहा है।

छिनहि चढ़ै, छिन ऊतरै, सो तो प्रेम न होय।
अघट प्रेम पिंजर बसै, प्रेम कहावै सोय॥

अन्यत्र कहा गया है—

सर्वथा ध्वंसरहितं सत्यपि ध्वंसकारणे।
यद्भावबन्धनं यूनो: स प्रेमा परिकीर्तित:॥

‘ध्वंसका कारण वर्तमान होनेपर भी जो सर्वथा ध्वंसरहित है, इस प्रकारके परस्परके भावको प्रेम कहते हैं।’ अर्थात् प्रेमास्पदका धन नष्ट हो गया, रूप जाता रहा, उसके सद‍्गुण दुर्गुणोंमें परिणत हो गये, उसने आदर-सत्कार या प्रेम करना छोड़ दिया, वह पद-पदपर तिरस्कार करता है, हमारा अपमान करके हमारे ही सामने दूसरेको आदर देता है, उसमें हजारों दोषोंका उदय हो गया है, ऐसी अवस्थामें प्रेम नष्ट होना ही चाहिये। संसारमें ऐसी अवस्था हो ही जाती है, परंतु इस स्थितिमें भी जो प्रेम कभी घटता नहीं, बल्कि दिनोंदिन बढ़ता ही रहता है, उसीका नाम यथार्थ प्रेम है।

रसखानि कहते हैं—

बिनु जोबन गुनरूप धन,
बिनु स्वारथ हित जानि।
सुद्ध कामनाते रहित,
प्रेम सकल ‘रसखानि’॥
अति सूच्छम, कोमल अतिहि,
अति पतरो, अति दूर।
प्रेम कठिन सबते सदा,
नित इकरस भरपूर॥
रसमय, स्वाभाविक, बिना
स्वारथ, अचल महान।
सदा एक रस बढ़त नित,
सुद्ध प्रेम ‘रसखान’॥

प्रेमकी बाढ़ कभी रुकती ही नहीं—इस चन्द्रकलाके लिये कभी पूर्णिमा नहीं होती!

प्रेम सदा बढ़िबौ करै, ज्यों ससिकला सुबेष।
पै पूनो यामें नहीं, तातें कबहुँ न सेष॥

और ऐसा प्रेम वस्तुत: केवल भगवान् में उनके प्रेमी भक्तका ही हो सकता है। देवर्षि नारदजी ऐसे प्रेमका लक्षण बतलाते हुए कहते हैं—

अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्। मूकास्वादनवत्। प्रकाशते क्वापि पात्रे। गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्। तत्प्राप्य तदेवावलोकयति, तदेव शृणोति, तदेव चिन्तयति॥

(नारदभक्तिसूत्र ५१—५५)

अर्थात् ‘प्रेमके स्वरूपका उसी प्रकार वर्णन नहीं किया जा सकता, जैसे गूँगा स्वादका वर्णन नहीं कर सकता। ऐसा प्रेम किसी विरले भाग्यवान् अधिकारी-(परम विषय-विरागी भगवदनुरागी भक्तमें ही प्रकट होता है। यह प्रेम गुणोंसे रहित है, इसमें कामना) की गन्ध नहीं है, यह हर क्षण बढ़ता ही रहता है, इसका प्रवाह सदा अटूट रहता है, यह अति सूक्ष्म है, केवल अनुभवसे जाना जा सकता है। इस प्रेमको पाकर भक्त केवल प्रेमको ही देखता है, प्रेमको ही सुनता है और प्रेमका ही चिन्तन करता है।’ वहाँ प्रेम और प्रेमास्पदमें कोई अन्तर नहीं रह जाता। क्योंकि—

प्रेम हरीको रूप है, त्यों हरि प्रेमसरूप।
एक होइ द्वैमें लसै, ज्यों सूरज अरु धूप॥

इसी प्रेमभावको प्राप्त गोपियोंकी दशाका वर्णन करते हुए भक्त कविगण क्या कहते हैं, कुछ नमूने देखिये—

(१)

जित देखौं तित स्याममई है।
स्याम कुंज बन जमुना स्यामा,
स्याम गगन घनघटा छई है।
सब रंगनमें स्याम भरो है,
लोग कहत यह बात नई है॥
हौं बौरी, की लोगनहीकी
स्याम पुतरिया बदल गई है॥
चन्द्रसार रबिसार स्याम है,
मृगमद स्याम काम बिजई है॥
नीलकंठको कंठ स्याम है,
मनो स्यामता बेल बई है॥
श्रुतिको अच्छर स्याम देखियत,
दीपसिखापर स्यामतई है॥
नर-देवनकी कौन कथा है,
अलख-ब्रह्मछबि स्याममई है॥

(२)

कान न दूसरो नाम सुनै, नहिं
एकहि रंग रँगों यह डोरो।
धोखेहु दूसरो नाम कढ़ै,
रसना मुख बाँधि हलाहल बोरो॥
ठाकुर चित्तकी वृत्ति यहै
हम कैसेहु टेक तजैं नहिं भोरो।
बावरी वे अँखिया जरि जायँ
जो साँवरो छाँड़ि निहारति गोरो॥

(३)

पहले ही जाय मिले गुनमें श्रवन, फेरि
रूपसुधा मथि कीनो नैनहु पयान है।
हँसनि, नटनि, चितवनि, मुसुकानि,
सुघराई रसिकाई मिली मति-पय-पान है॥
मोहि-मोहि मोहनमयी री मन मेरो भयो,
‘हरीचंद’ भेद न परत पहचान है।
कान्ह भये प्रानमय, प्रान भये कान्हमय,
हियमें न जानि परै कान्ह है कि प्रान है॥

(४)

बाटनमें घाटनमें बीथिनमें बागनमें,
बृच्छनमें बेलिनमें बाटिकामें बनमें।
दरनमें दिवारनमें देहरी दरीचनमें,
हीरनमें हारनमें भूपनमें तनमें॥
काननमें कुंजनमें गोपिनमें गायनमें,
गोकुलमें गोधनमें दामिनिमें घनमें।
जहाँ-जहाँ देखौं तहँ स्याम ही दिखाई देत,
सालिगराम छाइ रह्यो नैननमें मनमें॥

(५)

कहि न जाय मुखसौं कछू स्याम-प्रेमकी बात।
नभ जल थल चर अचर सब स्यामहि स्याम लखात॥
ब्रह्म नहीं, माया नहीं, नहीं जीव नहिं काल।
अपनीहू सुध ना रही, रह्यो एक नँदलाल॥
को, कासों केहि बिधि, कहा कहै हृदैकी बात।
हरि हेरत हिय हरि गयौ, हरि सरबत्र लखात॥

(६)

‘नारायण’ जाके हृदय सुंदर स्याम समाय।
फूल पात फल डारमें ताको वही लखाय॥
दर दिवार दरपन भये, जित देखौं तित तोहि।
काकर पत्थर ठीकरी, भये आरसी मोहि॥

इस तरह कृष्णमय जगत् देखनेवाली गोपियोंकी एक गाथा इस प्रकार है—दिन-रात श्रीकृष्ण-चर्चामें लगी हुई कुछ गोपियोंसे एक दिन एक गोपीने पूछा—‘बहिन! क्या कहूँ, नन्दबाबा गोरे, यशोदाजी गोरी, दाऊजी गोरे, घरभरमें सभी गोरे, पर हमारे श्यामसुन्दर ही साँवरे कैसे हो गये?’ इसपर एक कृष्णदर्शनमयी गोपीने कहा—‘बहिन! क्या तू इतना भी नहीं जानती—अरी!’

कजरारी अँखियानमें बस्यो रहत दिन रात।
पीतम प्यारो हे सखी, तातें साँवर गात॥

कितने रहस्यकी बात है, गोपीकी कजरारी आँखोंमें केवल श्रीकृष्ण ही बसते हैं, जगत‍्में उसकी आँखें और किसीको देखती ही नहीं। कुछ लोग कहा करते हैं कि गोपियाँ भगवान् को सर्वव्यापक नहीं मानती थीं। उनका यह कहना ठीक ही है, क्योंकि गोपियाँ एकमात्र भगवान् को ही देखती थीं। जब दूसरी कोई वस्तु ही नहीं रही तब कौन किसमें व्यापक हो!

इस प्रकार श्रीकृष्णके दिव्य प्रेममें डूबी हुई गोपियोंके चरण-पंकजपरागको बार-बार नमस्कार करके अब आगे बढ़ना है।

अगला लेख  > गोपी-प्रेम