गोपी-प्रेम
गोपी-प्रेममें रागका अभाव नहीं है, परन्तु वह राग सब जगहसे सिमटकर, भुक्ति और मुक्तिके दुर्गम प्रलोभन-पर्वतोंको लाँघकर केवल श्रीकृष्णमें अर्पण हो गया है। गोपियोंके मन, प्राण सब कुछ श्रीकृष्णके हैं, इहलोक और परलोकमें गोपियाँ श्रीकृष्णके सिवा अन्य किसीको भी नहीं जानतीं। उनका जीवन केवल श्रीकृष्ण-सुखके लिये है, उनका जागना, सोना, खाना, पीना, चलना-फिरना, शृंगार-सज्जा करना, कबरी बाँधना, गीत गाना, बातचीत करना सब श्रीकृष्णको सुख पहुँचानेके लिये हैं, श्रीकृष्णको सुखी देखकर ही सम्पूर्ण कामनाओंसे सर्वथा शून्य उन गोपियोंको अपार सुख होता है। भगवान् ने स्वयं कहा है—
निजांगमपि या गोप्यो ममेति समुपासते।
ताभ्य: परं न मे पार्थ निगूढप्रेमभाजनम्॥
‘हे अर्जुन! गोपियाँ अपने शरीरकी रक्षा मेरी सेवाके लिये ही करती हैं। गोपियोंको छोड़कर मेरा निगूढ़ प्रेमपात्र और कोई नहीं है।’
यहाँ यह प्रश्न होता है कि सुख-समुद्र विज्ञानानन्दघन भगवान् को सुख पहुँचाना कैसा, क्या गोपियोंके द्वारा ही भगवान् को सुख मिलता है? भगवान् क्या स्वयं सुखसन्दोह नहीं हैं? हैं क्यों नहीं, शक्तिमान् भगवान् की ही ह्लादिनी शक्ति तो श्रीराधिकाजी हैं, वे इस शक्तिको अपने वंशी-ध्वनिद्वारा सदा अपनी ओर खींचते रहते हैं। भगवान् की यह शक्ति स्वाभाविक ही अपनी सारी अनुगामी अंग-शक्तियोंसहित सदा-सर्वदा भगवान् की ओर खिंचती रहती है और भगवान् उस आह्लादको पाकर पुन: उसे उन्हीं शक्तियोंको—प्रेमी भक्तोंको बाँट देते हैं। भक्त भगवान् की बाँसुरीकी ध्वनि—भगवान् का आवाहन सुनकर, घर-द्वारकी सुधि भुलाकर, प्रमत्त होकर, अपना सर्वस्व न्योछावर कर, भगवान् को सुखी करनेके लिये दौड़ता है। भगवान् उसकी दी हुई सुखकी भेंटको स्वीकार करते हैं और फिर उसीको लौटा देते हैं। दर्पणमें अपनी शोभा भरकर दर्पणको शोभायुक्त बनानेवाला पुरुष उस शोभाको स्वयं ही वापस पा जाता है और वह सुख लौटकर उसीको मिल जाता है। इसी प्रकार परम सुखसागर भगवान् गोपियोंके सुखकी भेंटको स्वीकार कर, उनकी इस कामनाको कि ‘श्रीकृष्ण हमें देखकर, हमारी सेवा स्वीकार कर, हमारे साथ खेलकर सुखी हों’ पूरी कर देते हैं। भगवान् सुखी होते हैं और वह सुख अपरिमितरूपमें बढ़ा करके उन्हींको दे देते हैं। गोपियोंके प्रेमकी यही विशेषता है कि गोपियोंको निज सुखकी कामना रत्तीभर भी नहीं है! उनके मनमें अपने सुखके लिये कल्पना ही नहीं होती। वे तो अपने द्वारा श्रीकृष्णको सुखी हुए देखकर ही दिन-रात सुख-समुद्रमें डूबी रहती हैं। गोपियोंका प्रेम काम-कालिमा-शून्य है; वह निर्मल भास्कर है, सर्वथा दिव्य है, अलौकिक है। श्रीचैतन्य-चरितामृतमें ‘काम’ और ‘प्रेम’ का भेद बतलाते हुए कहा है—
कामेर तात्पर्य निज संभोग केवल,
कृष्ण-सुख तात्पर्य प्रेम तो प्रबल।
लोक-धर्म, वेद-धर्म, देह-धर्म, कर्म
लज्जा-धैर्य, देह-सुख, आत्म-सुख मर्म॥
सर्व त्याग करये करे कृष्णेर भजन
कृष्ण-सुख-हेतु करे प्रेमेर सेवन।
अतएव काम-प्रेमे बहुत अन्तर,
काम अन्धतम, प्रेम निर्मल भास्कर॥
काम और प्रेममें बड़ा ही अन्तर है, हम विषयविमोहित जीव कामको ही प्रेम मानकर पाप-पंकमें फँस जाते हैं। काम जहर मिला हुआ मधु है। प्रेम दिव्य स्वर्गीय सुधा है। काम थोड़ी ही देरमें दु:खके रूपमें बदल जाता है, प्रेमकी प्रत्येक कसकमें ही सुखसुधाका स्वाद मिलता है। काममें इन्द्रिय-तृप्ति, इन्द्रिय-चरितार्थता है, प्रेममें तन्मयता, प्रियतम-सुखकी नित्य प्रबल आकांक्षा है। काममें इन्द्रियतृप्ति सुखरूप दीखनेपर भी परिणाममें दु:खरूप है, प्रेम सदा अतृप्त होनेपर भी नित्य परम सुखरूप है। काम खण्ड है, प्रेम अखण्ड है। काम क्षयशील है, प्रेम नित्य वर्धनशील है। काममें विषयतृष्णा है, प्रेममें विषयविस्मरण है। कामका लक्ष्य विषय है, आत्मतृप्ति है, प्रेमका विषय पूर्ण त्याग है और चरम आत्मविस्मृति है।
यथार्थ प्रेमसे ही कामका नाश हो जाता है। यद्यपि प्रेमी अपने प्रेमास्पदको सुख पहुँचानेकी इच्छाको कामना ही मानता है और समस्त इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि एकमात्र प्रेममुखी होनेसे उसे कामना ही कहते हैं, परंतु वह शुद्ध प्रेम यथार्थमें काम नहीं है। गौतमीयतन्त्रमें कहा है—
प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यगमत् प्रथाम्।
इत्युद्धवादयोऽप्येतं वाञ्छन्ति भगवत्प्रिया:॥
‘गोपियोंके प्रेमका नाम काम होनेपर भी वह असलमें काम नहीं, किंतु शुद्ध प्रेम है। महान् भगवद्भक्त उद्धवसरीखे महात्मा इसी ‘काम’ नामक प्रेमकी अभिलाषा करते हैं।’ क्योंकि गोपियोंमें निजेन्द्रियसुखकी इच्छा है ही नहीं। वे तो भगवान् श्रीकृष्णको साक्षात् भगवान् समझकर ही अपने सकल अंगोंको सम्पूर्णरूपसे अर्पण कर उन्हें सुखी करना चाहती हैं! श्रीचैतन्यचरितामृतमें विषयासक्तिशून्य श्रीकृष्ण-गतप्राणा गोपियोंके सम्बन्धमें कहा है—
निजेन्द्रिय-सुख-हेतु कामेर तात्पर्य
कृष्णसुख तात्पर्य गोपीभाव वर्य।
निजेन्द्रिय-सुख-वाञ्छा नहे गोपीकार,
कृष्ण-सुख-हेतु करे संगम-विहार॥
आत्म-सुख-दु:ख गोपी ना करे विचार,
कृष्ण-सुख-हेतु करे सब व्यवहार।
कृष्ण बिना आर सब करि परित्याग,
कृष्ण-सुख-हेतु करे शुद्ध अनुराग॥
अपने तन, मन, धन, रूप, यौवन, लोक-परलोक—सबको श्रीकृष्णकी सुख-सामग्री समझकर श्रीकृष्ण-सुखके लिये शुद्ध अनुराग करना ही पवित्र गोपीभाव है। इस गोपीभावमें मधुर रसकी प्रधानता है। रस पाँच हैं—शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य। लौकिक और ईश्वरीय—दिव्य भेदसे ये पाँचों रस दो प्रकारके हैं अर्थात् लौकिक प्रेम भी उपर्युक्त पाँच प्रकारका है और दिव्य प्रेम भी पाँच प्रकारका है। परंतु इन पाँचोंमें मधुर रस—कान्ताप्रेम सबसे ऊँचा है, क्योंकि इसमें शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य—ये चारों ही रस विद्यमान हैं। यह अधिक गुणसम्पन्न होनेसे अधिक स्वादिष्ट है, इसलिये इसका नाम ‘मधुर’ है। इसी प्रकार दिव्य प्रेममें भी कान्ताप्रेम—मधुर रस ही सर्वप्रधान है। शान्त और दास्यरसमें ‘भगवान् ऐश्वर्यशाली हैं, मैं दीन हूँ, भगवान् स्वामी हैं, मैं सेवक हूँ’—ऐसा भाव रहता है। इसमें कुछ अलगाव-सा है, भय है और संकोच है; परंतु सख्य, वात्सल्य और माधुर्यमें क्रमश: भगवान् अधिकाधिक निजजन हैं, अपने प्यारे हैं, प्रियतम हैं, इनमें भगवान् ऐश्वर्यको भुलाकर, विभूतिको छिपाकर सखा, पुत्र या कान्तरूपसे भक्तके सामने सदा प्रकट रहते हैं, इन रसोंमें प्रार्थना-कामना है ही नहीं। अपने निज-जनसे प्रार्थना कैसी? उसका सब कुछ अपना ही तो है। इनमें भी कान्ताभाव सर्वप्रधान है। कान्ताभावमें पिछले दोनों रसोंका—सख्य और वात्सल्यका पूर्ण समावेश है। यहाँ भगवान् की सेवा खूब होती है, इतनी होती है कि सेवा करनेवाला भक्त कभी थकता ही नहीं; क्योंकि यह मालिककी सेवा नहीं है, प्रियतमकी सेवा है। प्रियतमके सुखी होनेमें ही अपार सुख है, जितना सुख पहुँचे, उतना ही थोड़ा; क्योंकि प्रियतमको जितना अधिक सुख पहुँचता है, उतने ही अपार सुखका अनुभव उसे सुख पहुँचानेवाली प्रेममयी प्रियतमाको होता है।
यह कान्ताभाव दो प्रकारका है—स्वकीया और परकीया। लौकिक कान्ताभावमें परकीयाभाव त्याज्य है, घृणित है; क्योंकि उसमें अंग-संगरूप कामवासना रहती है और प्रेमास्पद ‘जार मनुष्य’ होता है। परंतु दिव्य कान्ताभावमें—परमेश्वरके प्रति होनेवाले कान्ताभावमें परकीयाभाव ग्राह्य है, वह स्वकीयासे श्रेष्ठ है, क्योंकि इसमें कहीं अंग-संग या इन्द्रियतृप्तिकी आकांक्षा नहीं है। प्रेमास्पद जार पुरुष नहीं है, स्वयं ‘विश्वात्मा भगवान् हैं’—पति-पुत्रोंके और अपने सबके आत्मा परमात्मा हैं। इसीलिये गोपी-प्रेममें परकीयाभाव माना जाता है। यद्यपि स्वकीया पतिव्रता स्त्री अपना नाम, गोत्र, जीवन, धन, धर्म सभी पतिके अर्पण कर प्रत्येक चेष्टा पतिके लिये ही करती है, तथापि परकीयाभावमें तीन बातें विशेष होती हैं। प्रियतमका निरन्तर चिन्तन, उससे मिलनेकी अतृप्त उत्कण्ठा और प्रियतममें दोषदृष्टिका सर्वथा अभाव। स्वकीयामें सदा एक ही घरमें एक साथ निवास होनेके कारण ये तीनों ही बातें नहीं होतीं। गोपियाँ भगवान् को नित्य देखती थीं, परंतु परकीयाभावकी प्रधानतासे क्षणभरका वियोग भी उनके लिये असह्य हो जाता था, आँखोंपर पलक न बनानेके लिये वे विधाताको कोसती थीं, क्योंकि पलक न होते तो आँखें सदा खुली ही रहतीं। गोपियाँ कहती हैं—
अटति यद् भवानह्नि काननं
त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते
जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम्॥
(श्रीमद्भा० १०। ३१। १५)
‘जब आप दिनके समय वनमें विचरते हैं तब आपको न देख सकनेके कारण हमारे लिये एक-एक पल युगके समान बीतता है। फिर संध्याके समय जब वनसे लौटते समय हम घुँघराली अलकावलियोंसे युक्त आपके श्रीमुखको देखती हैं, तब हमें आँखोंमें पलक बनानेवाले ब्रह्मा मूर्ख प्रतीत होने लगते हैं। अर्थात् एक पलक भी आपको देखे बिना हमें कल नहीं पड़ती।’
भगवान् का नित्य चिन्तन करना, पलभरके अदर्शनमें भी महान् विरह-वेदनाका अनुभव करना और सर्वतोभावसे दोष-दर्शनरहित होकर आत्मसमर्पण कर चुकना गोपियोंका स्वभाव था। इसीसे उस प्रियतमसेवाके सामने किसी बातको कुछ भी नहीं समझती थीं। लोक-वेद सबकी मर्यादाको छोड़कर वे कृष्णानुरागिणी बन गयी थीं। भोग और मोक्ष—दोनों ही उनके लिये सर्वथा तुच्छ और त्याज्य थे। भगवान् ने स्वयं कहा है—
ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिका:।
ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान् बिभर्म्यहम्॥
(श्रीमद्भा० १०। ४६। ४)
न पारमेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
मय्यर्पितात्मेच्छति मद्विनान्यत्॥
(श्रीमद्भा० ११। १४। १४)
‘हे उद्धव! गोपियोंने अपने मन और प्राण मुझमें अर्पण कर दिये हैं। मेरे लिये अपने सारे शारीरिक सम्बन्धोंको और लोकसुखके साधनोंको त्यागकर वे मुझमें ही अनुरक्त हो रही हैं। मैं ही उनके सुख और जीवनका आधार हूँ। इस प्रकार अपने आत्माको मुझमें अर्पित करनेवाला भक्त मुझको छोड़कर ब्रह्माके पद, इन्द्रके पद, चक्रवर्तीके पद, पाताल आदिके राज्य और योगके आठों ऐश्वर्य आदिकी तो बात ही क्या है, अपुनरावर्ती मोक्षको भी नहीं चाहता।’ ऐसे भक्तोंके लिये भगवान् क्या कहते हैं, सुनिये—
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभि:॥
(श्रीमद्भा० ११। १४। १६)
‘उनकी चरणरजसे अपनेको पवित्र करनेके लिये मैं सदा उनके पीछे-पीछे घूमा करता हूँ।’ इसी कारण गीतगोविन्दकारने ‘देहि मे पदपल्लवमुदारम्’ कहकर भगवान्के द्वारा श्रीराधाजीके पदकमलकी चाह करायी है और इसी आधारपर रसिक रसखानजीने कहा है—
ब्रह्म मैं ढूँढ़ॺो पुरानन गानन,
बेद रिचा सुनि चौगुने चायन।
देख्यो सुन्यो कबहूँ न कितै,
वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन॥
टेरत हेरत हारि परॺो,
रसखानि बतायो न लोग-लुगायन।
देख्यो, दुरॺो वह कुंज कुटीरमें
बैठ्यो पलोटत राधिका-पायन॥
यद्यपि भक्त कभी यह चाहता नहीं कि भगवान् प्रियतम मेरे पैर दाबें, परंतु वहाँ तो सर्वथा ऐक्य होता है। कोई छोटा-बड़ा रहता ही नहीं। महाभारतमें सखा भक्त अर्जुनके साथ भगवान् श्रीकृष्णके व्यवहारका वर्णन संजयने कौरवोंकी राजसभामें किया है। अर्जुनसे ही जब वैसा व्यवहार था, तब गोपियोंके समान भक्तोंकी बात ही निराली है। गोपियोंका परकीयाभाव दिव्य है। लौकिक विषय-विमोहित मनवाले मनुष्य इसका यथार्थ भाव नहीं समझकर अपने वृत्तिदोषसे दोषारोपण कर बैठते हैं। असलमें व्रजगोपिकाओंका प्रेम अत्यन्त उच्चतम अवस्थापर स्थित है। उसमें सभी रसोंका विकास है, परंतु मधुर रस प्रधान है। यह मधुर रस उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ प्रेम, स्नेह, मान, राग, अनुराग और भावपर्यन्त पहुँच जाता है। भावकी पराकाष्ठा ही महाभाव है। यह महाभाव केवल प्रात:स्मरणीया व्रजदेवियोंमें ही था। श्रीभगवान् ने प्रेमिक भक्तोंकी प्रेमकामना पूर्ण करनेके लिये व्रजमण्डलमें इस सच्चिदानन्दमयी दिव्य लीलाको प्रकट किया था। गोपी-प्रेमकी यह पवित्र लीला भगवान् ने रमणाभिलाषासे अथवा गोपियोंकी काम-वासना-तृप्तिके लिये नहीं की थी, न तो भगवान् में रमणाभिलाषा थी और न गोपियोंमें कामवासना ही। यह तो की गयी थी जगत्के जीवोंके कामनाशके लिये। रासलीला प्रकरणको समाप्त करते हुए मुनिवर शुकदेवजी कहते हैं—
विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णो:
श्रद्धान्वितोऽनुशृणुयादथ वर्णयेद् य:।
भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं
हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीर:॥
(श्रीमद्भा० १०। ३३। ४०)
जो धीर पुरुष व्रजबालाओंके साथ भगवान् विष्णुके (श्रीकृष्णके) इस रासविहारकी कथाको श्रद्धापूर्वक सुने या पढ़ेगा, वह शीघ्र ही भगवान् की पराभक्तिको प्राप्तकर हृदयके रोगरूप कामविकारसे छूट जायगा।’
जिस लीलाके भलीभाँति समझकर श्रद्धापूर्वक सुनने-पढ़नेसे ही हृद्रोग—कामविकार नष्ट होकर पराभक्ति प्राप्त होती है, उस लीलाके करनेवाले नायक श्रीभगवान् और उनकी प्रेयसी नायिका गोपिकाओंमें कामविकार देखना या कलुषित मानवी व्यभिचारकी कल्पना करना कामविमोहित विषयासक्त मनुष्योंके बुद्धि-दोषका ही परिणाम है। व्रजलीला परम पवित्र है, इस बातको प्रेमीजन भलीभाँति जानते हैं और इसीसे नारद-सदृश देवर्षि और शिव-सदृश महान् देव उसमें सम्मिलित होनेकी वाञ्छासे गोपीभावमें दीक्षित होते हैं। मृत्युकी बाट देखनेवाले राजा परीक्षित् को महाज्ञानी शुकदेवजी इसीलिये व्रजलीला सुनाते हैं, जिससे सहज ही पराभक्तिको प्राप्तकर परीक्षित् भगवान्के असली तत्त्वको जान लें और भगवान् को प्राप्त हो जायँ। भगवान् श्रीकृष्णने ज्ञाननिष्ठाके नामसे पराभक्ति-प्राप्तिका क्रम (और उसका फल) बतलाते हुए कहा है—
बुद्ध्या विशुद्ध्या युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस:।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित:॥
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥
(गीता १८। ५१—५५)
अर्थात् ‘जब मनुष्य विशुद्ध बुद्धिसे युक्त, एकान्तसेवी, मिताहारी, मन-वाणी-शरीरको जीता हुआ, सदा वैराग्यको धारण करनेवाला, निरन्तर ध्यानपरायण, दृढ़ धारणासे अन्त:करणको वशमें करके, शब्द-स्पर्शादि विषयको त्यागकर, राग-द्वेषको नष्ट करके, अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रहको छोड़कर ममतारहित, शान्त हो जाता है, तभी वह ब्रह्मप्राप्तिके योग्य होता है। फिर ब्रह्मभूत होकर सदा प्रसन्नचित्त रहनेवाला वह न किसी वस्तुके लिये शोक करता है और न किसी वस्तुकी आकांक्षा ही करता है और सब प्राणियोंमें समभावसे भगवान् को देखता है तब उसे मेरी पराभक्ति प्राप्त होती है। उस पराभक्तिके द्वारा मेरे तत्त्वको भलीभाँति जानता है कि मैं किस प्रभाववाला हूँ। इसी पराभक्तिसे मुझको तत्त्वसे जानकर भक्त तदनन्तर ही मुझमें मिल जाता है।’
ध्यानपूर्वक देखा जाय तो गोपियोंमें उपर्युक्त सभी बातें पूर्णरूपसे थीं। विशुद्ध बुद्धिका इससे बढ़कर क्या सबूत हो सकता है कि वह सदा भगवान् श्रीकृष्णमें ही लगी रहे। श्रीकृष्ण-मिलनके लिये एकान्त-सेवन, शरीरसे ही नहीं मनसे भी एकान्त रहना, खान-पान भूल जाना, मन-वाणी-शरीरको विषयोंसे खींचकर एकमात्र प्रियतम श्रीकृष्णमें लगाये रखना, घर-परिवार आदि किसी भी भोग-पदार्थमें राग न रखना, निरन्तर प्रियतम श्रीकृष्णके ध्यानमें संलग्न रहना, मनमें श्रीकृष्णकी दृढ़ धारणासे अन्त:करणको श्रीकृष्णमय बनाये रखना, श्रीकृष्ण विषयक पदार्थोंके सिवा, अन्य सभी शब्द-स्पर्शादि विषयोंको त्याग देना, जगत्की दृष्टिसे किसी भी पदार्थमें राग-द्वेष रखना, अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह सबका श्रीकृष्णमें उत्सर्ग कर देना, घर-द्वार ही नहीं स्वर्ग और मोक्षमें भी ममत्व न रखना, चित्तको सदा श्रीकृष्णके स्वरूपसे समाहित रखकर जगत्के विषयोंसे शान्त रखना और श्रीकृष्णको ब्रह्मरूपसे पहचानकर, उनसे मिलनेके लिये व्याकुल होना गोपियोंके चरित्रमें पद-पदपर प्राप्त होता है। इसके सिवा उनका नित्यानन्दमयी होकर सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें हर्ष-शोकसे रहित होना और सर्वत्र श्रीकृष्णको सब प्राणियोंमें देखना भी प्रसिद्ध ही है। साधकोंको दीर्घकालके महान् साधनसे प्राप्त होनेवाली ये बातें गोपियोंमें स्वाभाविक थीं, इसीसे भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें अपना रहस्य खोलकर बतला दिया और अपने स्वरूपका साक्षात् दर्शन कराकर उनके साथ दिव्य क्रीड़ा करके उन्हें श्रीकृष्णरूप बना लिया। ज्ञानियोंसे विशेषता यह रही कि इसमें सारी बातें केवल विचारके आधारपर न रहकर प्रत्यक्ष इन्द्रियगम्य हो गयीं। साक्षात् परब्रह्म महान् सुन्दर द्विभुज मुरलीमनोहररूपधारी बनकर स्वयं भक्तोंके साथ नाचे। अपनी रूपमाधुरीसे भक्तोंके चित्तको चुराकर, अपनी मुरलीध्वनिसे प्रेमी भक्तोंको खींचकर अपने पास बुला लिया और उन्हें सब प्रकार कृतार्थ किया। एक महात्माने दिव्यदृष्टिसे देखकर सखी-भावमें प्रवेश होकर कहा था—
शृणु सखि कौतुकमेकं
नन्दनिकेतांगने मया दृष्टम्।
गोधूलिधूसरांगे नृत्यति वेदान्तसिद्धान्त:॥
‘हे सखि! एक कौतुककी बात सुन! मैंने आज बाबा नन्दके आँगनमें वेदान्तके चरम सिद्धान्त ब्रह्मको गोधूलिधूसरितांग हुए नाचते देखा।’
ग्यानी बोध स्वरूप ह्वै होहिं ब्रह्ममें लीन।
निरखत पै लीला मधुर प्रेमी प्रेम प्रबीन॥
ग्यानी ढिग गंभीर हरि सच्चिद ब्रह्मानंद।
प्रेमी सँग खेलत सदा चंचल प्रेमानंद॥
ग्यानी ब्रह्मानंद सों रहत सदा भरपूर।
पै प्रेमी निरखत सुखद दुरलभ हरिको नूर॥
प्रेमी भाग्य सराहि मुनि, ग्यानी बिमल बिबेक।
चहैं सुदुरलभ प्रेमपद तजि निजपदकी टेक॥