श्रीकृष्णकी रूपमाधुरी
भगवान् की उस रूपमाधुरीका वर्णन कौन कर सकता है? वे एक बार जिसकी ओर प्रेमकी नजरसे देख लेते; उसीपर प्रेमसुधा बरसाकर उसे अमर कर देते, उसकी सारी विषयासक्तिको नष्ट कर अपना प्रेमी बना लेते। पण्डितराज जगन्नाथ कहते हैं—
रे चेत: कथयामि ते हितमिदं
वृन्दावने चारयन्
वृन्दं कोऽपि गवां नवाम्बुदनिभो
बन्धुर्न कार्यस्त्वया।
सौन्दर्यामृतमुद्गिरद्भिरभित:
सम्मोह्य मन्दस्मितै-
रेष त्वां तव वल्लभांश्च विषया-
नाशु क्षयं नेष्यति॥
‘रे चित्त! तेरे हितके लिये तुझे सावधान किये देता हूँ। कहीं तू उस वृन्दावनमें गाय चरानेवाले, नवीन नील मेघके समान कान्तिवाले छैलको अपना बन्धु न बना लेना, वह सौन्दर्यरूप अमृत बरसानेवाली अपनी मन्द मुसकानसे तुझे मोहित करके तेरे प्रिय समस्त विषयोंको तुरंत नष्ट कर देगा।’ अद्वैतसिद्धिकार मधुसूदन स्वामीजीको भी उसकी रूपछटाके फंदेमें पड़कर स्वाराज्य-सिंहासनसे च्युत होना पड़ा था। वे कहते हैं—
अद्वैतवीथीपथिकैरुपास्या:
स्वाराज्यसिंहासनलब्धदीक्षा:।
शठेन केनापि वयं हठेन
दासीकृता गोपवधूविटेन॥
‘अद्वैतमार्गके अनुयायियोंद्वारा पूज्य तथा स्वाराज्यरूपी सिंहासनपर प्रतिष्ठित होनेका अधिकार प्राप्त किये हुए हमको गोपियोंके पीछे-पीछे फिरनेवाले किसी धूर्तने हठपूर्वक (जबरदस्ती, इच्छा न रहनेपर भी) अपने चरणोंका गुलाम बना लिया।’ भक्त लीलाशुकजी उस बालकृष्णकी छविके जादूसे डरकर सबको सावधान करते हुए कहते है—
मा यात पान्था: पथि भीमरथ्या
दिगम्बर: कोऽपि तमालनील:।
विन्यस्तहस्तोऽपि नितम्बबिम्बे
धूत: समाकर्षति चित्तवित्तम्॥
‘अरे पथिको! उस रास्ते न जाना। वह गली बड़ी भयावनी है। वहाँ अपने नितम्बबिम्बपर हाथ रखे जो तमालके तुल्य नीले रंगका एक नंग-धड़ंग बालक खड़ा है, वह केवल देखनेमात्रका ही अवधूत है, असलमें तो वह अपने पास होकर निकलनेवाले किसी भी मुसाफिरके मनरूपी धनको लूटे बिना नहीं रहता।’
व्रजरसरसीले साह कुन्दनलालजी श्रीललितकिशोरीजी बने हुए कहते हैं—
नैन-चकोर मुख-चंदहूपै वारि डारौं,
वारि डारौं चित्तहि मनमोहन चित्तचोरपै।
प्रानहूकों वारि डारौं हँसन दसन लाल,
हरन कुटिलता औ लोचनकी कोरपै॥
वारि डारौं मनहिं सुअंग-अंग स्यामा-स्याम,
महल मिलाप रसरासकी झकोरपै।
अतिहि सुघरबर सोहत त्रिभंगी लाल,
सरबस वारौं वा ग्रीवाकी मरोरपै॥
सर्वस्व वार देनेपर भी वह फिर अपनी तिरछी चितवनकी बरछीसे प्रेमी भक्तको घायल करता है और बार-बार उसकी ओर झाँक-झाँककर, हँस-हँसकर घावपर नमक बुरकाता रहता है—
देखो री! यह नंदका छोरा
बरछी मारे जाता है।
बरछी-सी तिरछी चितवनकी
पैनी छुरी चलाता है॥
हमको घायल देख बेदरदी
मंद-मंद मुसकाता है।
‘ललितकिसोरी’ जखम जिगरपर
नौनपुरी बुरकाता है॥
श्यामकी तिरछी नजरसे घायल प्रेमीका यह जख्मेजिगर कभी सूख ही नहीं सकता, वह सदा हरा रहता है और उसकी पल-पलकी कसक ब्रह्मानन्दसे भी बढ़कर आनन्द दिया करती है। गोपियोंके हृदयमें यह घाव बहुत गहरा था। बड़े भाग्यसे यह दिनोंदिन बढ़नेवाला घाव होता है और स्वयं साँवरेके वैद्य बनकर आनेपर भी यह अच्छा नहीं होता। श्यामसुन्दरके दर्शनसे यह और भी बढ़ जाता है, परंतु अदर्शन कभी सुहाता नहीं। एकमात्र वही वैद्य हैं, परंतु वैद्य घाव बढ़ाते हैं, घटाते नहीं। इस घावके बढ़नेमें ही सुख है, इसीलिये घावसे कराहना और बार-बार घाव बढ़ानेका कार्य करना, यही बस प्रेमियोंके जीवनका नित्य परमसुखदायी दु:ख हो जाता है।