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मुरली और रास

यही हाल उसकी मुरलीका है। जब वह बजती है, तब औरोंकी बात ही क्या है, निर्बीज-समाधिमें स्थित योगियोंकी समाधि भी टूट जाती है।

वह वंशीध्वनि निकलते ही जडको चेतन और चेतनको जड बना देती है। इसीसे एक बार एक गोपीने व्यंगसे मुरलीकी महिमा गाते हुए कहा था—

मुरहर रन्धनसमये
मा कुरु मुरलीरवं मधुरम्।
नीरसमेधो रसतां
कृशानुरप्येति कृशतरताम्॥

‘हे मुरारे! अरे, मेरे रसोई बनाते समय तो तुम कृपा कर अपनी मुरलीकी मधुर तान न छेड़ा करो, क्योंकि उस ध्वनिके आते ही मेरी सूखी लकड़ियाँ हरी हो रस टपकाने लगती हैं और आग बुझ जाती है, जिससे रसोई भी नहीं हो पाती है।’ दूरसे मुरलीकी टेर सुनकर एक सखी दूसरीसे कहती है—

सुनती हौ कहा, भजि जाहु घरै
बिंध जाओगी नैनके बाननमें।
यह बंसी ‘निवाज’ भरी बिषसों
बगरावति है बिष काननमें॥
अब ही सुधि भूलिहौ भोरी भटू
भँवरो जब मीठी-सी ताननमें।
कुलकानि जो आपनि राखि चहौ
दे रहौ अंगुरी दोउ काननमें॥

इस वंशीकी और रासकी कुछ आलोचना किये बिना गोपी-प्रेमकी चर्चा अधूरी रह जाती है। इसलिये इन विषयोंपर भी कुछ विचार करना है।

श्रीकृष्णमिलनके लिये कात्यायनीकी पूजा करनेवाली गोपियोंको वर देनेके दिन भगवान् ने उनके वस्त्र हरणकर उनके निर्मल और अनन्य प्रेमकी परीक्षा की। उनका सारा भेद-ज्ञान हरण करके उन्हें निर्मल प्रेमपथकी अधिकारिणी समझकर मिलनका वरदान दिया। वस्त्र-हरणलीलामें पाप देखना पापबुद्धिका परिणाम है। जीवात्माका परमात्माके सामने कोई पर्दा नहीं रह सकता। पर्दा मायामें ही है। सबके अन्तरात्मा भगवान् से कौन जीवात्मा अपने अंगोंको छिपानेका भाव रख सकता है? वह जबतक छिपाता है तबतक परमात्माको परमात्मा न समझकर अपने पृथक्त्वका अभिमान बनाये रखता है। चीरहरणसे गोपियोंका यह मोह भंग हुआ। उन्होंने श्रीकृष्णको परमात्मा समझा और जीवभावसे वे अभिमानके पर्देको तोड़कर भेदमूलक मायाके वस्त्रोंसे सर्वथा रहित होकर सर्वात्मरूप प्रभुके सामने आ गयीं।

इसके कुछ दिनों बाद शरद्पूर्णिमा आयी। भगवान‍्के मिलनका दिन आया। शारदीया रजनी, प्रफुल्ल मल्लिकापूर्ण सुधांशुकी सुधामयी मधुर किरणें आदि उद्दीपन भावोंसे गोपियोंके हृदयमें एक अलक्ष्य आकांक्षा जाग उठी, मानो उनका हृदय किसी अलभ्य वस्तुको चाहने लगा। यह थी श्रीकृष्णमिलनकी कामना।

बस, इसी समय श्रीकृष्णकी मोहन मुरली बज उठी। शारद सुधाकरकी ज्योत्स्नामें, नील यमुनाके निर्मल सैकतमें, मन्दानिलसे आन्दोलित माधवी-कुंजमें आत्माराम, पूर्णकाम, योगेश्वर, नित्य नवनटवर मोहनकी मधुर मुरलीसे विश्व-विमोहन प्रेमके आवाहनका अनंगवर्धक, आनन्ददायक संगीत प्रारम्भ हो गया। श्रीशुकदेवजी कहते हैं—

निशम्य गीतं तदनंगवर्धनं
व्रजस्त्रिय: कृष्णगृहीतमानसा:।
आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमा:
स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डला:॥
(श्रीमद्भा० १०। २९। ४)

‘उस अनंगवर्धन (श्रीकृष्ण-मिलन-कामनाको बढ़ानेवाले) गानके कानोंमें पड़ते ही समस्त व्रज-वनिताओंका मन श्रीकृष्णमय हो गया। वे उसी समय तुरंत सब कुछ छोड़कर अपने प्रियतम श्रीकृष्णके पास चली गयीं। उतावलीके कारण किसीने किसीको साथ लेनेका भी कोई प्रयत्न नहीं किया (सब अलग-अलग ही, जो जिस अवस्थामें थीं उसी अवस्थामें, सब कुछ भूलकर दौड़ पड़ीं)। उस समय वे इतने वेगसे चलीं कि सारे रास्ते उनके कानोंके कमनीय कुण्डल हिलते रहे।’

अनंगके बढ़ जानेपर वे अपने-अपने पतियोंके पास न जाकर श्रीकृष्णके पास क्यों गयीं? इसमें कारण है—उनका अनंग लौकिक काम नहीं था। श्रीकृष्णमिलनकी योगिजनदुर्लभ प्रबल कामना थी। जो किसी अंगवाली न होनेपर भी बड़ी प्रबल थी और जिसने उनको बरबस श्रीकृष्णकी ओर दौड़नेको बाध्य कर दिया था। वंशीध्वनि अखण्डानन्द प्रदान करनेके लिये भगवान् का अनिवार्य निमन्त्रण था, उसे वे कैसे टाल सकती थीं? उसे कोई भी नहीं टाल सकता। वह वंशी कैसे बजी, उसकी ध्वनि कहाँतक गयी?

रुन्धन्नम्बुभृतश्चमत्कृतिपरं
कुर्वन् मुहुस्तुम्बुरुं
ध्यानादन्तरयन् सनन्दनमुखान्
विस्मापयन् वेधसम्।
औत्सुक्यावलिभिर्बलिं चटुलयन्
भोगीन्द्रमाघूर्णयन्
भिन्दन्नण्डकटाहभित्तिमभितो
बभ्राम वंशीध्वनि:॥

‘वंशीका वह पवित्र संगीत अपनी सुधामयी स्वरलहरीसे समस्त वृन्दावनको आप्लावित करता हुआ, आकाशमें पहुँचकर जलदसमूहको स्तम्भित करता हुआ, स्वर्गमें देवगायक तुम्बुरुको पुन:-पुन: चकित करता हुआ ब्रह्मलोकमें सनन्दनादि महामुनियोंकी निर्गुण ब्रह्मकी निर्बीज समाधिको भंग करता हुआ, स्वयं प्रजापति ब्रह्माको विस्मित करता हुआ; यों ऊर्ध्वलोकमें अपनी विजयपताका फहराकर नीचे पातालकी ओर चला और वहाँ राजा बलिको चौंकाकर, नागराज अनन्त शेषनागके सहस्र फणोंको कँपाकर, अखिल ब्रह्माण्डकटाहको भेदकर श्रीकृष्णका वह वंशी-संगीत सब ओर फैल गया।’

परंतु इतनेपर भी इस आवाहन-संगीतको सुना भक्तोंने ही और वे उसी समय दौड़ चले। अब भी श्यामकी यह वंशी वैसे ही बजती है और प्रेमी भक्त अब भी उसे सुनते हैं। अस्तु!

भक्तवर श्रीनन्ददासजी कहते हैं—

सुनत चलीं ब्रज-बधू गीत-धुनिको मारग गहि।
भवन भीत द्रुम कुंज पुंज कितहू अटकी नहि॥
नाद अमृतको पंथ रँगीलो सुच्छम भारी।
तेहि मग ब्रज तिय चलैं, आन कोउ नहिं अधिकारी॥

वे मुरलीकी ध्वनिको लक्ष्य करके उन्मत्तकी भाँति चलीं और भगवान् श्रीकृष्णके चरण-प्रान्तोंमें जा पहुँचीं। यहाँ फिर प्रेम-परीक्षा होती है। खास करके दो बातें देखती हैं—(१) गोपियोंका किसी सांसारिक विषयोंमें मन आसक्त है या नहीं और (२) वे श्रीकृष्णको साक्षात् भगवान् समझती हैं या नहीं। इसीलिये पहले-पहल भगवान् ने उनसे कहा—

स्वागतं वो महाभागा: प्रियं किं करवाणि व:।
व्रजस्यानामयं कच्चिद् ब्रूतागमनकारणम्॥
(श्रीमद्भा० १०। २९। १८)

‘हे महाभागाओ! तुम्हारा स्वागत है! कहो, मैं तुम्हारा क्या प्रिय कार्य करूँ? व्रजमें सब कुशल तो है, इस समय अपने यहाँ आनेका कारण तो बताओ?’

गोपियाँ भगवान् की ऐसी वाणी सुनकर मुसकरा दीं, कुछ बोलीं नहीं। भगवान् फिर बोले—

रजन्येषा घोररूपा घोरसत्त्वनिषेविता।
प्रतियात व्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभि: सुमध्यमा:॥
(श्रीमद्भा० १०। २९। १९)

‘हे सुन्दरियो! देखो, रात्रि बड़ी घोर है। इस समय बहुत-से भयानक जीव इधर-उधर फिर रहे हैं। इसलिये तुमलोग तुरंत व्रजको लौट जाओ। यहाँ स्त्रियोंका अधिक देर ठहरना ठीक नहीं है।’

गोपियोंने कुछ उत्तर नहीं दिया। भगवान् फिर बोले—

मातर: पितर: पुत्रा भ्रातर: पतयश्च व:।
विचिन्वन्ति ह्यपश्यन्तो मा कृढ्वं बन्धुसाध्वसम्॥
(श्रीमद्भा० १०। २९। २०)

‘तुम्हें घरमें न देखकर तुम्हारे माता-पिता, पुत्र, भाई और पति आदि तुम्हें ढूँढ़ते होंगे। तुम यहाँ ठहरकर अपने घरवालोंको व्यर्थ घबराहटमें न डालो।’

यहाँ भगवान् ने सांसारिक अति निकटके सम्बन्धियोंकी बात याद दिलाकर यह जानना चाहा कि देखें गोपियोंके मनमें उनके प्रति मोह या उनसे भय है या नहीं। ये मायिक जगत‍्में हैं या ईश्वराभिमुखी हैं? परंतु गोपियाँ इस परीक्षामें पास हो गयीं। ऋषिपत्नियाँ यहीं, इसी प्रसंगपर घर लौट गयी थीं। गोपियाँ कुछ नहीं बोलीं। उनके चित्तमें संसारकी आत्मीयताका कुछ भी मोह नहीं जाग्रत् हुआ। वे भगवान् परमात्मा श्रीकृष्णके प्रेममें डूब रही थीं।

चाँदनी रातकी सुन्दर शोभा देखकर गोपियोंके मनोंमें श्रीकृष्ण-प्रेम जागा था, यह जागृति लौकिक थी या दिव्य? इसीको जाँचनेके लिये भगवान् ने फिर कहा—

दृष्टं वनं कुसुमितं राकेशकररञ्जितम्।
यमुनानिललीलैजत्तरुपल्लवशोभितम्॥
तद् यात मा चिरं गोष्ठं शुश्रूषध्वं पतीन् सती:।
क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च तान् पाययत दुह्यत॥
(श्रीमद्भा० १०। २९। २१-२२)

‘तुम रजनीशकी रश्मियोंसे रंजित और यमुनाजलके स्पर्शसे शीतल मन्द-मन्द पवनकी गति हिलते हुए नवपल्लवोंसे सुशोभित एवं कुमुद-कुसुम-मण्डित, मनोहर इस वृन्दावनकी शोभा देख चुकी। अब हे सतियो! देर न करो, तुरंत ही व्रज लौट जाओ और अपने-अपने पतियोंकी सेवा करो। देखो, बालक और तुम्हारी गायोंके बछड़े रो रहे होंगे, जाकर दूध पिलाओ और गायें दुहो।’

‘सती’ स्त्रीके लिये पति-सेवासे बढ़कर और कौन-सा महत्त्वका कार्य हो सकता है? भगवान् ने ‘सती’ सम्बोधन करके पतियोंकी याद दिलायी। माताको पुत्र और ग्वालिनोंको गौ-बछड़े बड़े प्रिय होते हैं; उनका भी करुण शब्दोंमें स्मरण कराया। इनका मन पति-पुत्रोंमें है या सबसे विरक्त होकर केवल मुझ भगवान् में है—यह जाननेके लिये भगवान् ने इतनी बातें कहीं। गोपियाँ अब भी कुछ नहीं बोलीं। अबकी बार अपने बाह्य सौन्दर्यकी महिमा दिखलाकर—यह जाननेके लिये ये केवल सौन्दर्यपर ही मोहित हैं या मुझे ईश्वर समझकर आयी हैं, भगवान् ने कहा—

अथवा मदभिस्नेहाद् भवत्यो यन्त्रिताशया:।
आगता ह्युपपन्नं व: प्रीयन्ते मयि जन्तव:॥
(श्रीमद्भा० १०। २९। २३)

‘अथवा यदि तुम मेरे स्नेहके कारण आसक्तचित्त होकर मुझे देखने आयी हो तो कोई दोषकी बात नहीं, क्योंकि मुझको देखकर सभी प्राणी प्रसन्न होते हैं।’ परंतु—

भर्तु: शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो ह्यमायया।
तद‍्बन्धूनां च कल्याण्य: प्रजानां चानुपोषणम्॥
दु:शीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोऽपि वा।
पति: स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी॥
अस्वर्ग्यमयशस्यं च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम्।
जुगुप्सितं च सर्वत्र औपपत्यं कुलस्त्रिया:॥
(श्रीमद्भा० १०। २९। २४—२६)

‘हे कल्याणियो! पति और उसके बन्धुओंकी निष्कपट भावसे सेवा करना तथा सन्तानका पालन-पोषण करना ही स्त्रियोंका परम धर्म है। जिन स्त्रियोंको शुभ गति पानेकी इच्छा हो वे अपने अपातकी पतिका किसी प्रकार भी त्याग न करें, चाहे वह बुरे स्वभाववाला, अभागा, वृद्ध, मूर्ख, रोगी या निर्धन ही क्यों न हो? कुल-स्त्रियोंके लिये उपपतिकी (जारकी) सेवा करना सर्वथा निन्दनीय है; इससे स्वर्गकी प्राप्ति नहीं होती, संसारमें अपकीर्ति होती है। यह अत्यन्त ही निन्दनीय और भयदायक कार्य है।’

भगवान् ने सब बातें खोलकर कह दीं। यदि मुझको मनुष्य मानकर कामाभिलाषासे आयी हो तो नरकगामिनी होओगी, संसारमें अपयश होगा, क्योंकि यही वेदधर्म है।

इस उपदेशसे भी गोपियाँ नहीं हिलीं, तब भगवान् ने उन्हें जाँचनेके लिये फिर कहा—

श्रवणाद् दर्शनाद् ध्यानान्मयि भावोऽनुकीर्तनात्।
न तथा सन्निकर्षेण प्रतियात ततो गृहान्॥
(श्रीमद्भा० १०। २९। २७)

(अच्छा मुझमें कुछ महत्त्व समझकर आयी हो तो भी) ‘मेरे गुण-श्रवण, दर्शन, ध्यान और कीर्तनसे मुझमें जैसा प्रेम होता है वैसा पास रहनेसे नहीं होता, इसलिये तुम अपने घरोंको लौट जाओ।’ ऋषिपत्नियाँ इसी प्रकारकी बात सुनकर लौट गयी थीं। परंतु गोपियाँ नहीं लौटीं, ऋषिपत्नियोंने भगवान् श्रीकृष्णको भगवान् तो जान लिया था; परंतु घरोंमें उनकी ममता थी। गोपियाँ संसारसे सर्वथा वैराग्यवती और भगवान् की महिमासे पूर्ण परिचित थीं। गोपियाँ इस बातको जानती थीं कि भगवान् समस्त जगत‍्के आत्मा हैं, हमारे पतियोंके, हमारे पुत्रोंके—सबके एकमात्र आत्मा हैं। जगदात्मा भगवान् में औपपत्यकी (जारपनेकी) कभी कल्पना ही नहीं हो सकती, बड़े-बड़े ऋषि, मुनि, तपस्वी, योगी संसारके सारे बन्धनोंको तोड़कर सबसे उपराम होकर जिन सच्चिदानन्दघन प्रभुकी प्राप्ति चाहते हैं, वही साक्षात् परमात्मा सुन्दर प्रियतमके रूपमें हमारे सामने खड़े हैं, उन्हींके चरणोंमें हम उपस्थित हैं। अब इन्हें छोड़कर कहीं जाना मूर्खता नहीं तो क्या है। अत: प्रेममयी गोपियाँ आँखोंमें आँसू भरकर प्रणयकोपके कारण गद‍्गद हुई वाणीसे बोलीं—

मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं
सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम्।
भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्
देवो यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून्॥
यत्पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरंग
स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम्।
अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे
प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा॥
(श्रीमद्भा० १०। २९। ३१-३२)
न खलु गोपिकानन्दनो भवा-
नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
सख उदेयिवान् सात्वतां कुले॥
(श्रीमद्भा० १०। ३१। ४)

‘हे सर्वव्यापक! आपको ऐसे कठोर शब्द नहीं कहने चाहिये। हम अन्य समस्त विषयोंको छोड़कर एकमात्र आपके चरणकमलोंमें ही अनुरक्त हैं। अत: जिस प्रकार आदिपुरुष श्रीनारायण मुमुक्षुओंको अपनाते हैं, आप भी हमलोगोंको इसी प्रकार ग्रहण कीजिये, कभी त्यागिये नहीं। हे कृष्ण! आप स्वयं धर्मको जाननेवाले हैं (सबसे बढ़कर धर्म तो आपके चरणोंका आश्रय है। फिर आप धर्मविद् होकर कैसे हमें लौट जानेको कहते हैं?) आपने जो कहा कि पति, पुत्र और बन्धु-बान्धवोंकी सेवा करना ही स्त्रियोंका धर्म है सो यह उपदेश आप ईश्वरमें ही रहे, क्योंकि इस उपदेशके आश्रय आप ही हैं। आप ही धर्मकी अन्तिम गति हैं। पति, पुत्र आदि समस्त देहधारियोंके आप ही प्रिय बन्धु और आत्मा हैं। निश्चय ही आप केवल यशोदाके पुत्र नहीं हैं, बल्कि आप समस्त देहधारियोंके अन्त:करणके साक्षी हैं। हे सखे! ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे आपने सम्पूर्ण जगत‍्की रक्षाके लिये यदुकुलमें अवतार लिया है।’

हमें छलिये नहीं। आप साक्षात् परमेश्वर हैं, आपके बिना पति, पुत्रादि किसीकी भी सत्ता और सम्भावना नहीं है। सबके आश्रय, सबकी गति, समस्त धर्मोंके अधिष्ठान, ईश्वरोंके ईश्वर आपको छोड़कर हम कहाँ जायँ और क्यों जायँ?

गोपियाँ इस बातको जानती थीं कि भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम, विज्ञानानन्दघन, विश्वात्मा परमेश्वर हैं। परमेश्वर ही सबके आत्मा और चरम गति हैं, अब उन परमात्माको पाकर गोपियाँ वहाँसे क्यों हटने लगीं? उन्होंने कहा—

कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं कुशला: स्व आत्मन्
नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरार्तिदै: किम्।
तन्न: प्रसीद परमेश्वर मा स्म छिन्द्या
आशां भृतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र॥
चित्तं सुखेन भवतापहृतं गृहेषु
यन्निर्विशत्युत करावपि गृह्यकृत्ये॥
पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद्
याम: कथं व्रजमथो करवाम किं वा॥
(श्रीमद्भा० १०। २९। ३३-३४)

‘शास्त्रज्ञ पुरुष अपने नित्य प्रिय आत्मारूप आपहीमें प्रेम करते हैं। इस लोकमें संसार-दु:ख देनेवाले पति-पुत्रादिसे उन्हें क्या प्रयोजन है? अत: हे परमेश्वर! आप हमपर प्रसन्न होइये। हमारी चिरकालकी आशा-लताको काटिये नहीं। अब हम किसी प्रकार घर नहीं जा सकतीं। हमारा जो चित्त सुखपूर्वक घरमें आसक्त था, उसको आपने चुरा लिया, हमारे हाथ घरके कामोंमें लगे थे, वे भी चेष्टाहीन हो गये और हमारे पैर भी आपके चरणकमलोंसे एक पग भी दूर नहीं हटना चाहते। हम किस प्रकार घर जायँ और वहाँ जाकर अब करें भी क्या?’

भगवान् ने भक्तकी परीक्षा की, परीक्षामें भक्त उत्तीर्ण हो गया, तब उसे मनोवांछित फल दिया। योगेश्वरेश्वर भगवान् ने आत्माराम होकर गोपियोंके साथ आत्मरमण किया। इसके बाद भगवान् एक बार अन्तर्धान हो गये। पीछेसे गोपियाँ भगवान‍्के अदर्शनसे व्याकुल होकर भगवान् को ढूँढ़ती और विविध विलाप करती रहीं—

दोहा

कुंज कुंज ढूँढ़त फिरीं खोजत दीनदयाल।
प्राननाथ पाए नहीं, बिकल भईं ब्रजबाल॥

रोला

बिरहाकुल ह्वै गईं सबै पूछत बेला-बन।
को जड़, को चैतन्य, न कछु जानत बिरही जन॥
हे मालति, हे जाति, जूथके, सुनि हित दै चित।
मान-हरन मन-हरन लाल गिरधरन लखे इत॥
हे केतकि, इतते कितहूँ चितये पिय रूसे।
कै नँदनंदन मंद मुसुकि तुम्हरे मन मूसे॥
हे मुक्ताफल बेल, धरे मुक्ताफल-माला।
देखे नैन बिसाल मोहना नँदके लाला॥
हे मंदार उदार, बीर करबीर महामति।
देखे कहुँ बलबीर धीर मन-हरन धीर-गति॥
हे चंदन दुखदंदन, सबकी जरन जुड़ावहु।
नँदनंदन जगबंदन, चंदन हमहिं बतावहु॥
पूछो री इन लतनि फूल रहिं फूलनि जोई।
सुंदर पियके परस बिना अस फूल न होई॥
हे सखि, हे मृगबधू! इन्हें किन पूछहु अनसरि।
डहडहे इनके नैन अबहिं कहुँ देखे हैं हरि॥
अहो सुभग बनगंध पवन-सँग थिर जु रही चलि।
सुखके भवन दुख-दवन रवन इतते चितए बलि॥
हे चंपक, हे कुसुम, तुम्हैं छबि सबसों न्यारी।
नैक बताय जु देउ जहाँ हरि कुंज-बिहारी॥
हे कदंब, हे निंब, अंब, क्यों रहे मौन गहि।
हे बट, उतँग सुरंग बीर कहु तुम इत उत लहि॥
हे अशोक, हरि सोक, लोकमनि पियहि बतावहु।
अहो पनस सुभ सरस, मरत, तिय अमिय पियावहु॥
जमुन निकटके बिटप पूछि भइँ निपट उदासी।
क्यों कहिहैं सखि, अति कठोर ये तीरथबासी॥
हे जमुना, सब जानि-बूझि तुम हठहि गहत हो।
जो जल जग उद्धार, ताहि तुम प्रगट बहत हो॥
हे अवनी नवनीत चोर चित चोर हमारे।
राखे कतहुँ दुराय बता देउ प्रान पियारे॥
हे तुलसी कल्यानि, सदा गोबिंद-पद-प्यारी।
क्यों न कहो तुम नंदसुवनसों बिथा हमारी॥
जहँ आवत तुम कुंज पुंज गहवर तरु छाईं।
अपने मुख चाँदने चलत सुंदर बन माईं॥
(नन्ददासजी)

वे बोलीं—

धन्या अहो अमी आल्यो गोविन्दाङ्घ्रॺब्जरेणव:।
यान् ब्रह्मेशो रमा देवी दधुर्मूर्ध्न्यघनुत्तये॥
(श्रीमद्भा० १०। ३०। २९)

‘भगवान् श्रीगोविन्दकी चरणरज अत्यन्त पवित्र है। ब्रह्मा, शिव, रमा आदि भी इसको मस्तकपर धारण करते हैं, हमलोग भी इसे मस्तकपर धारण करें।’ यों कहते-कहते वे श्रीकृष्णमें तन्मय होकर श्रीकृष्णकी-सी लीलाएँ करने लगीं।

इहि बिधि बन-बन ढूँढ़ि बूझि उनमतकी नाईं।
करन लगीं मनहरन लाल-लीला मन भाईं॥
मोहन लाल रसालकी लीला इनही सोहैं।
केवल तन्मय भईं कहु न जानैं हम को हैं॥
(नन्ददासजी)

तदनन्तर पुन: भगवान् ने प्रकट होकर प्रत्येकके साथ एक-एक अलग-अलग बनकर रास किया।

रासका पहला श्लोक है—

भगवानपि ता रात्री: शरदोत्फुल्लमल्लिका:।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रित:॥

‘भगवान् ने योगमायाको आश्रित करके रमणकी इच्छा की। इसके बाद ‘आत्मारामोऽप्यरीरमत्’ (आत्माराम होकर रमण किया), ‘साक्षान्मन्मथमन्मथ:’ (कामदेवको भी मोहनेवाले), ‘आत्मन्यवरुद्धसौरत:’ (अस्खलित वीर्य) आप्तकाम, सत्यकाम, पूर्णकाम, योगेश्वरेश्वर आदि शब्द आते हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि भगवान् की यह लीला परम दिव्य थी। इसमें लौकिक कामगन्धको जरा-सा भी स्थान नहीं है। ‘भगवान्’ शब्दसे ही सिद्ध होता है कि भगवान् में औपपत्य नहीं हो सकता, क्योंकि वे सबके आत्माराम हैं। जिनमें अणिमादि आठों ऐश्वर्य विद्यमान हों; जो धर्म, यश, श्री, वैराग्य और ज्ञानके अपार और अटूट भण्डार हों उन्हींको भगवान् कहते हैं—

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसश्श्रिय:।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा॥
(श्रीविष्णुपुराण ६। ५। ७४)

इस प्रकार षडैश्वर्यपूर्ण भगवान् में कामवासना या औपपत्य घट ही नहीं सकता। भगवान् ने यह सारी लीला अपनी योगमायाके द्वारा की। जिसकी जैसी इच्छा थी; भक्तवाञ्छाकल्पतरु भगवान् की योगमायासे उसे वैसा ही होता प्रतीत हुआ। योगमाया (भगवान् की अपनी दिव्य नित्य शक्ति)-के प्रभावसे ही नि:संग भगवान् सृष्टि, स्थिति और प्रलयकी लीला किया करते हैं। ऐन्द्रजालिक जिस प्रकार अपने इच्छानुसार दर्शकोंको मोहित करके मनमानी घटनाएँ उन्हें दिखाता है, इसी प्रकार भगवान् ने योगमायासे लीलाएँ कीं। राधिकाजी योगमायाका स्वरूप थीं। योगमायाके दूसरे एक स्वरूपको पहले भेजकर कंसको सन्देश दिलाया था और उसी योगमायाके द्वारा व्रजमें भगवान् ने दिव्य लीला-विलास किया। ब्रह्माके द्वारा गोप-बालकोंके और गोवत्सोंके हरण किये जानेपर पाँच वर्षके शिशु श्रीकृष्ण अपनी योगमायाके प्रभावसे स्वयं गोप-बालक, बछड़े और उनके सारे सामान—कपड़े, सींग, लाठी आदि बन गये। छ: वर्षके बालक श्रीकृष्णने अपनी योगमायाके प्रभावसे कालियदमन और दावाग्निपान किया। इसी अवस्थामें भगवान् ने पतिरूपसे चाहनेवाली व्रजबालाओंका मायाभ्रम दूर करके सम्पूर्ण आत्मसमर्पणकी योग्यता प्रदान करनेके लिये उनके वस्त्र-हरणकी लीला की। इसी योगमायाके प्रभावसे सात वर्षके बालक श्रीकृष्णको व्रजयुवतियोंने नवयौवनसम्पन्न देखा। इसी अपनी योगमायाके प्रभावसे रासमण्डलमें भगवान् क्रीड़ा (रमण) करते हुए प्रतीत हुए। इसी योगमायाके बलसे प्रत्येक गोपीने गोपीनाथको अपने साथ देखा। बालक जैसे दर्पणमें अपने प्रतिबिम्बके साथ स्वच्छन्द खेलता है, इसी प्रकार योगमायाके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णने अपनी छायास्वरूपा गोपियोंसे विलास किया—

रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभि-
र्यथार्भक: स्वप्रतिबिम्बविभ्रम:॥
(श्रीमद्भा० १०। ३३। १७)

और योगमायाके प्रभावसे ही व्रजवासियोंने रासमें गयी हुई अपनी-अपनी पत्नियोंको अपने पास ही सोये हुए देखा—

मन्यमाना: स्वपार्श्वस्थान्
स्वान् स्वान् दारान् व्रजौकस:॥
(श्रीमद्भा० १०। ३३। ३८)

योगमायाके प्रभावसे ही कंसके दरबारमें प्रवेश करते समय एकादशवर्षीय बालक श्रीकृष्णको मल्लोंने वज्रके समान, नागरिकोंने विलक्षण नरश्रेष्ठरूपमें, स्त्रियोंने मूर्तिमान् कामदेवके तुल्य, गोपोंने निज जनके सदृश, दुष्ट राजाओंने शासकके समान, वसुदेव और देवकीने पुत्ररूपमें, कंसने साक्षात् मृत्युरूपमें, विद्वानोंने विराट् पुरुषके रूपमें, योगियोंने परमतत्त्वके रूपमें और यादवोंने परम देवताके रूपमें देखा।

यह पूर्णकाम, सत्यकाम योगेश्वरेश्वर, षडैश्वर्यपूर्ण अघटन-घटनापटीयसी योगमायाके संचालक, ह्लादिनी शक्तिके शक्तिमान्, भक्तवाञ्छा-कल्पतरु साक्षात् भगवान् और उन्हींके प्रतिबिम्बरूप भक्तोंकी दिव्य प्रेमलीला थी।

वास्तवमें श्रीकृष्णके साथ राधाका सर्वथा अभेद है। श्रीकृष्णके सौन्दर्य और माधुर्यका आस्वाद करनेवाली श्रीकृष्णकी अपनी ही ह्लादिनी शक्तिका नाम श्रीराधा है और श्रीकृष्णकी असंख्य शक्तियोंमेंसे जो शक्तियाँ इस ह्लादिनी शक्तिकी पुष्टिकारिणी हैं, वे ही श्रीराधाकी सहचरी सखियाँ श्रीगोपियाँ हैं। उनमें भी सखी, सहेली, सहचरी, दूतिका, दासी आदि कई भेद हैं; श्रीकृष्ण सुन्दरतम और मधुरतम हैं; इसीलिये वे रसराज, साक्षात् मन्मथ-मन्मथ, कोटि-मनोज-लजावनिहारे, कन्दर्पके मूलबीज—दिव्य, नित्य, नवीन मदन, विज्ञानानन्दघन परम पुरुषोत्तम हैं और श्रीराधा, श्रीकृष्णके सौन्दर्य-माधुर्यसे मुग्ध श्रीकृष्ण-अनुरागमयी, श्रीकृष्णभावमयी परा-प्रकृति हैं। श्रीकृष्ण इस अपनी ही शक्तिद्वारा अपने सौन्दर्य-माधुर्यका रसास्वादन करते हैं। यही रसराज श्रीकृष्ण और रसरागिणी श्रीराधाकी पारस्परिक प्रेमसम्पत्ति है। यह प्रेम मानवीय नहीं है, यह नरलोकमें नहीं होता। इसीलिये श्रीचैतन्यचरितामृतमें कहा गया है—

परकीया भावे अति रसेर उल्लास।
व्रजबिना इहार अन्यत्र नाहि बास॥

इस अति रसके उल्लासरूप दिव्य परकीयाभावका व्रजके (दिव्य श्रीकृष्णप्रेममय गोलोकके) अतिरिक्त अन्यत्र कहीं निवास नहीं है और इसीलिये ये व्रजराज रसराज श्रीकृष्ण इस वृन्दावनको छोड़कर एक पैंड भी कहीं नहीं जाते—

वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति।

भगवान् श्रीकृष्ण शुद्ध चिन्मय, शुद्ध आनन्दमय, शुद्ध प्रेममय, शुद्ध रसमय हैं और ये श्रीकृष्णकान्ता गोपियाँ (श्रीकृष्णकी ह्लादिनी शक्ति राधा और श्रीराधा-कृष्णका सदा मिलन-संयोग करानेमें ही नित्य संलग्न रहनेवाली, श्रीराधासे भी बढ़कर सुखानुभव करनेवाली सखियाँ) शुद्ध चिन्मयी, शुद्ध आनन्दमयी, शुद्ध प्रेममयी और शुद्ध भावमयी हैं। ये और इनके देहादि हमलोगोंकी भाँति वस्तुत: रसमांसमय नहीं हैं, प्रापंचिक या कल्पित नहीं हैं, कर्मजन्य सुख-दु:ख-भोग-निमित्त नहीं हैं; ये नित्य हैं। प्रपंचमय मायिक जगत‍्में प्रकट होनेपर भी मृतलोकमें लीला करनेपर भी मरणधर्मसे सर्वथा अतीत हैं। प्रेमसे छलकते हुए दिव्य नेत्रोंसे ही इनकी दिव्य मूर्तियोंके और नित्यरासके दर्शन हो सकते हैं।

श्रीमहादेवजीके प्रति स्वयं भगवान‍्के वचन हैं—

इमां तु मत्प्रियां विद्धि राधिकां परदेवताम्।
अस्याश्च परित: पश्चात् सख्य: शतसहस्रश:॥
नित्या: सर्वा इमा रुद्र यथाहं नित्यविग्रह:।
सखाय: पितरो गोपा गावो वृन्दावनं मम॥
सर्वमेतन्नित्यमेव चिदानन्दरसात्मकम्।
इदमानन्दकन्दाख्यं विद्धि वृन्दावनं मम॥
(पद्म०, पाताल० ५१।७३—७५)

‘ये श्रीराधिकाजी मेरी प्रिया हैं—इन्हें परमदेवता समझिये। इनके चारों ओर और पीछे लाखों सखियाँ हैं, जैसे मैं नित्य-विग्रह हूँ इसी प्रकार ये सब भी नित्य हैं। मेरे पिता, माता, सखा, गोप, गौ और यह मेरा वृन्दावन सभी नित्य और सच्चिदानन्दरसमय है। मेरे इस वृन्दावनका नाम आनन्दकन्द जानो।’

रसोल्लासतन्त्रमें भगवान् श्रीशिवजी देवी पार्वतीसे रासके सम्बन्धमें कहते हैं—

शरीरे देहानि यथा स्थूलं सूक्ष्मं च कारणम्।
तथैवान्यद् देहं ज्ञेयं भावदेहं प्रकीर्तितम्॥
कृपालब्धमिदं देहं सहजं जन्मजन्मनि।
अथवा साधनालब्धं कदापि वा महेश्वरि॥
न सगुणं निर्गुणं वा देहमिदं परात्मकम्।
कुत्रापि न हि द्रष्टव्यं लोके वृन्दावनं विना॥
संगतं सह कृष्णेन गोपीनां चरितं च यत्।
तन्न कामादकामाद्वा भावदेहेन तत्कृतम्॥

अर्थात् ‘जैसे शरीरके स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह हैं, ऐसे ही एक भावदेह और होता है, यह देह भगवत्कृपासे प्राप्त होता है और उन्हींकी कृपासे जन्म-जन्मान्तरमें सहज ही मिल जाता है। (प्राय: ऐसा देह भगवान‍्के मुक्त परिकरोंका या कारक पुरुषोंका होता है।) अथवा हे महेश्वरि! कभी-कभी साधनाके द्वारा भी इस देहकी प्राप्ति हो सकती है। यह भावदेह न (कर्मजन्य) सगुण है और न निर्गुण है, यह परमात्माका देह है जो वृन्दावनके सिवा और कहीं नहीं देखा जाता। श्रीकृष्णके साथ मिलकर गोपियाँ कृतार्थ हुई थीं, उनका यह मिलन न कामजन्य था और न अकाम। वह भावदेहकृत था।’ शिवजीके इन वाक्योंसे, श्रीकृष्ण और गोपियोंके प्रेमकी दिव्यता स्पष्ट है। गोपियोंका श्रीकृष्णके साथ रमण प्राकृत शारीरिक नहीं था, उसमें इन्द्रियोंका विषय तनिक भी नहीं था, अतएव इस दिव्य प्रेमलीलामें दोष देखना महापाप है।

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