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॥ श्रीहरि:॥

गोरक्षाके लिये क्या करें?

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नम:॥
नमो गोभ्य: श्रीमतीभ्य: सौरभेयीभ्य एव च।
नमो ब्रह्मसुताभ्यश्च पवित्राभ्यो नमो नम:॥

गौका महत्त्व

गोरक्षण, गोपालन और गोसंवर्धनका प्रश्न भारतवर्षके लिये नया नहीं है। यह भारतवर्षका सनातन धर्म है। हमारी आर्य-संस्कृतिके अनुसार अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थोंके साधनका मूल हमारी ‘सर्वदेवमयी’ यह गोमाता है। हमारे अपौरुषेय वेदोंने गौकी बड़ी महिमा गायी और उसे ‘अघ्न्या’ बतलाया है। वैदिक वाङ्मयमें सवा सौसे अधिक बार ‘अघ्न्या’ पदका प्रयोग हुआ है। अथर्ववेदमें पूरा ‘गोसूक्त’ है। उपनिषदोंमें ‘गोमहिमा’ है। महाभारतके अध्याय-के-अध्याय गोमहिमाके सम्बन्धमें हैं। रामायण, इतिहास, पुराण और स्मृतियोंमें गोमाहात्म्य भरा है। गौके रोम-रोममें देवताओंका निवास माना गया है। उसे ‘सुरभि’, ‘कामधेनु’, ‘अर्च्या (पूज्या)’, ‘विश्वकी आयु’, ‘रुद्रोंकी माता’, ‘वसुओंकी पुत्री’ कहा गया है और ‘सर्वदेवपूज्या’ माना गया है। गोपूजा, गोभक्ति, गोमन्त्र आदिसे महान् लाभ बतलाये गये हैं। वह यहाँ सर्वप्रकारसे अभ्युदय करती है और परलोकमें वैतरणीसे तारती है। ‘वृषोत्सर्ग’ का महान् माहात्म्य है। गोचरभूमि छोड़ना बड़ा भारी पुण्य माना गया है। गौका यह आध्यात्मिक तथा धार्मिक महत्त्व चाहे आज किसीकी समझमें न आये और आध्यात्मिक जगत‍्का यह रहस्य भौतिक साधनोंसे समझमें आ भी नहीं सकता। श्रद्धालु पुरुष शास्त्रप्रमाणसे तथा अन्तर्दर्शी महात्मा ऋतम्भरा प्रज्ञाके द्वारा अनुभवसे ही इसे जान सकते हैं।

गोसेवा भारतीय संस्कृति है और धार्मिक कर्तव्य है

गोसेवा और गोवंशकी उन्नति भारतीय संस्कृतिके अभिन्न अङ्ग हैं। हिंदू, बौद्ध, जैन, सिक्ख सभी धर्मावलम्बियोंके लिये गोरक्षा धार्मिक दृष्टिसे मुख्य कर्तव्य है। अतएव गोरक्षाका आध्यात्मिक तथा धार्मिक दृष्टिकोण भी बड़े महत्त्वका है तथा कदापि उपेक्षणीय नहीं है। इसका सांस्कृतिक महत्त्व तो सर्वविदित ही है। भारतवर्षमें अत्यन्त प्राचीन कालसे बड़े-बड़े महापुरुषोंद्वारा गोसेवन और गोपालन होता चला आता है। रघुवंशी महाराजा दिलीप नन्दिनी गौके लिये अपने प्राण देनेको प्रस्तुत हो गये थे। राजा नृगने असंख्य गायें दान की थीं। भगवान् श्रीरामका अवतार ही ‘गो-ब्राह्मणहितार्थ’ हुआ था। उन्होंने दस सहस्र करोड़ (एक खरब) गौएँ विद्वानोंको विधिपूर्वक दान की थीं।

‘गवां कोटॺयुतं दत्त्वा विद्वद‍्भ्यो विधिपूर्वकम्।’
(वा० रा० १। १। ९४)

भगवान् श्रीकृष्णका समस्त बाल्यजीवन गो-सेवामें बीता। उन्होंने स्वयं वनोंमें घूम-घूमकर गो-वत्सोंको चराया। इसीसे उनका नाम ‘गोपाल’ पड़ा। कामधेनुने अपने दूधसे तथा देवराज इन्द्रने ऐरावतकी सूँड़के द्वारा लाये हुए आकाशगङ्गाके जलसे भगवान् श्रीकृष्णका अभिषेक करके उनको ‘गोविन्द’ नामसे सम्बोधित किया था। द्वारकामें वे पहले-पहल ब्यायी हुई, दुधार, बछड़ोंवाली, सीधी, शान्त, वस्त्रालंकारोंसे समलङ्कृत तेरह हजार चौरासी गायोंका प्रतिदिन दान करते थे। (देखिये श्रीमद्भागवत १०। ७०। ९)

प्राचीन कालकी गो-सम्पत्ति

युधिष्ठिरके यहाँ गायोंके दस हजार वर्ग थे, जिनमें प्रत्येकमें आठ-आठ लाख गायें थीं। लाख-लाख, दो-दो लाख गायोंके तो और भी बहुत-से वर्ग थे।

तस्याष्टशतसाहस्रा गवां वर्गा: शतं शतम्।
अपरे शतसाहस्रा द्विस्तावन्तस्तथापरे॥
(महा० विराट० ९। ९-१०)

इस गो-विभागकी सारी व्यवस्थाका भार सहदेवपर था। वे गोविज्ञानके महान् पण्डित थे। नन्द-उपनन्दादिके पास असंख्य गौएँ थीं और वे उनका भलीभाँति रक्षण-पालन और संवर्धन करते थे। अभी पिछले बौद्धकालमें भारतमें कितनी बड़ी संख्यामें गोपालन होता था; इसके लिये यहाँ एक ही प्रमाण पर्याप्त होगा। धनंजय सेठने अपनी कन्याके विवाहमें कुछ गायें देनेकी इच्छासे अपने सेवकोंसे कहा—‘जाओ, छोटा गोकुल खोल दो और एक-एक कोसके अन्तरपर नगारा लिये खड़े रहो। १४० हाथकी चौड़ी जगह बीचमें छोड़कर दोनों ओर आदमी खड़े कर दो, जिसमें गायें फैल न सकें। जब सब लोग ठीक खड़े हो जायँ, तब नगारा बजा देना।’ सेवकोंने ऐसा ही किया। जब गायें एक कोस पहुँचीं, तब नगारा बजा, फिर दो कोस पहुँचनेपर बजा, अन्तमें तीन कोस पहुँचनेपर फिर बजा, तीन कोसकी लम्बाई और १४० हाथकी चौड़ार्हके मैदानमें इतनी गायें भर गयीं कि वे एक-दूसरेके शरीरको रगड़ती हुई चलीं। तब धनंजयने कहा—‘बस, अब दरवाजा बंद कर दो।’ सेवकोंने दरवाजा बंद किया; परंतु बंद करते-करते भी ६०,००० गायें, ६०,००० बैल और ६०,००० बछड़े तो निकल ही गये। अब अनुमान कीजिये, इस छोटे गोकुलमें कितनी गायें रही होंगी। यों गोपालकोंका यह पशुधन गोकुलोंमें लाखों-करोड़ोंकी संख्यामें था। गोतम नामक बड़े गायोंके व्यापारी होते थे, जिनके पास लाखोंकी संख्यामें गौओंके दल-के-दल होते थे। यह थी हमारी गोसम्पत्ति और यह था हमारा गोपालन। गायको अब भी गाँवोंके लोग ‘धन’ कहते हैं। बड़े ही दु:खकी बात है कि उसी गोपालकोंके देशका आज इतना पतन हो गया कि उनके अपने ही राज्यमें गायें निर्बाध काटी जाती हैं और गोरक्तसे भारतकी पवित्र भूमि लाल हो रही है!!

भयानक गोहत्या और गोरक्षाका आन्दोलन

अंग्रेजी शासनके पहले गोरक्षा-आन्दोलनकी कोई आवश्यकता ही नहीं थी। उस समय सर्वत्र पर्याप्त गोचरभूमि थी। बहुत अधिक मात्रामें चारा उत्पन्न होता था। इसलिये पशुओंको जीवनभर पूरा चारा मिलता था। बड़े विशाल और बलवान् बैल थे। एक-एक हलमें क्रमसे ९ या १० जोड़े बैलतक जुतते थे। अच्छा चारा-दाना मिलने तथा सेवाकी सुव्यवस्था होनेके कारण पशु बीमार ही बहुत कम होते थे। अनुभवी चिकित्सक घरेलू दवाइयोंसे उनकी सफल चिकित्सा करते थे। चमड़े, मांस आदिके बाहर भेजे जानेका तो कोई प्रश्न ही नहीं था, कहीं कसाईखाने नहीं थे। लूले, लँगड़े, अपंग गौ-बैलोंके लिये शुद्ध सेवाकी दृष्टिसे स्थापित ‘पिंजरापोल’ तथा ‘गोशालाएँ’ थीं। खेतोंमें गाय-बैलोंके गोबरकी प्रचुर खाद डाली जाती थी, इनसे बहुत अधिक अन्न पैदा होता था। दूध, दही तथा घीकी तो मानो नदी बहती थी। दूध-दहीका मूल्य लेना पाप माना जाता था। मुसल्मानी जमानेमें तो एक रुपयेका १६ सेरतक घी बिका था, अंग्रेजोंके आनेके बादतक घी एक रुपयेका पाँच सेरतक बिकता था। मुसल्मानी शासनमें भी गायका कम महत्त्व नहीं समझा जाता था। बाबर, हुमायूँ और अकबरने गोवध रोक दिया था। कई मुसल्मान शासकोंने गायोंकी नस्लको उन्नत बनाया था।

अंग्रेजोंके आनेके बाद गोरोंके लिये गोमांसकी आवश्यकता हुई। व्यापारी नीतिसे चमड़ेका निर्यात आरम्भ किया। कानूनी तौरपर जगह-जगह कसाईखाने खुले और उत्तरोत्तर गोहत्या बढ़ती गयी। सन् १९१७ ई० में सर जान उडरफने प्रतिवर्ष एक करोड़ गोवधका अनुमान लगाया था। सन् १९२९ में छिंदवाड़ेके वकील श्रीव्रजमोहनलाल वर्माने विभिन्न सरकारी रिपोर्टों और पत्र-व्यवहारके आधारपर यहाँके कसाईखानोंमें प्रतिवर्ष प्राय: सवा करोड़ गाय-बैलोंकी हत्या होना बतलाया था। दरभंगाके श्रीधर्मलालसिंहजीके मतानुसार वर्षभरमें कुल मिलाकर एक करोड़ बाईस लाख गौएँ काटी जाती थीं। सारांश यह कि विशेषज्ञोंकी उस समयकी सम्मतिके अनुसार प्रतिवर्ष लगभग एकसे सवा करोड़ अर्थात् प्रति मिनट लगभग १९ से २४ तक गोजातिके पशु काटे जाते थे। (दु:खकी बात यह है, यह गोवध अब भी ज्यों-का-त्यों जारी है।)

इसी उत्तरोत्तर बढ़ती हुई भयानक गोहत्याको देखकर भारतीय राष्ट्रपुरुषका अन्त:करण दहल जाता था। और समय-समयपर इसीलिये किसी-न-किसी प्रकारसे गोरक्षणका प्रयास भी होता था। आर्यसमाजके संस्थापक स्वामीजी श्रीदयानन्दजी सरस्वतीने गोरक्षाका बड़ा प्रयास किया। उन्होंने ‘गोकरुणानिधि’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित की। फर्रुखाबादके सेठ मोहनलाल, हरद्वारके बाबा भगवानदास, काशीके भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र, स्वामी आलाराम सागर संन्यासी, पं० नटवर लाल चतुर्वेदी, गोभक्त श्रीहासानन्दजी, श्रीकरसेठजी सोरावजी जस्सावाला, सर जान उडरफ, महामना पं० श्रीमदनमोहनजी मालवीय और महात्मा गांधीजी-प्रभृति अनेकों महानुभावोंने अपने-अपने समयमें अपनी-अपनी योग्यता, पद्धति तथा सुविधाके अनुसार विभिन्न प्रकारसे गोरक्षाके लिये प्रबल आन्दोलन तथा महान् कार्य किये। महाराष्ट्रके श्रीचौंडेजी महाराजने गोरक्षार्थ बड़ा प्रयत्न किया। गोविषयक ज्ञानसे भरे हुए ‘गोज्ञानकोष’ नामक ग्रन्थका निर्माण किया। अनेकों संस्थाएँ स्थापित हुईं, जिनमें बम्बईकी जीवदयामण्डली, महात्मा गांधीजीद्वारा स्थापित गो-सेवासंघ, हिसारकी गोरक्षिणी, सभा, विहारकी गोशाला-सोसाइटी और भारतीय गोसेवकसमाज आदि अनेकों संस्थाएँ आज भी बड़ा सुन्दर कार्य कर रही हैं।

हमारी अपनी सरकार स्थापित होनेके बाद सन् १९४७ में जीवदयामण्डली और हिसारकी गोरक्षिणी सभाकी ओरसे आन्दोलन हुआ, लाखों तार-पत्र सरकारके पास भेजे गये। महात्मा श्रीकरपात्रीजीके द्वारा संस्थापित ‘धर्मसंघ’ की ओरसे बड़ा सुन्दर और विशाल प्रयत्न हुआ। सत्याग्रह हुआ। हजारों साधु-ब्राह्मण जेल गये। स्वयं श्रीकरपात्रीजी महाराजको कारागारमें रहना पड़ा। लाखों हस्ताक्षरोंके तार-पत्र भेजे गये। अभी दो वर्ष पूर्व ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ’ की ओरसे लगभग १॥। करोड़ हस्ताक्षर भेजे गये। स्वामीजी श्रीकरपात्रीजी महाराजने गोरक्षार्थ सहस्रचण्डी आदि अनेकों अनुष्ठान करवाये। गतवर्ष वृन्दावनमें सेठ श्रीहजारीमलजी सोमानीके प्रयत्नसे बृहद् अनुष्ठान हुआ। प्रयागमें निम्बार्क-सम्प्रदायके श्रीराधाकृष्णजी आचार्यने अनुष्ठान कराया। ब्रह्मचारी श्रीप्रभुदत्तजी महाराजने ‘गोसेवाव्रत’ धारण किया, धर्मवीर श्रीरामचन्द्रजीने कई लम्बे अनशन किये। स्वामीजी श्रीकरपात्रीजीने पुन: दूध-दही-मक्खन देनेका सत्याग्रह शुरू किया। आर्यसमाजके वीर और बुद्धिमान् महानुभाव कमर कसकर गोरक्षाके आन्दोलनमें प्रवृत्त हो रहे हैं, हिन्दूसभाने भी गोवधके विरुद्ध बुलंद आवाज उठा रखी है। भारत-गोसेवक-समाजकी ओरसे जगह-जगह गो-सम्मेलन हो रहे हैं, बर्धाका गो-सेवा-संघ तो वर्षोंसे गोरक्षाके प्रयत्नमें रचनात्मक कार्य कर रहा है, राजर्षि पुरुषोत्तमदासजी टण्डन गोहत्या कतई बंद करनेके लिये सिंहगर्जना कर रहे हैं, संत श्रीविनोबा भावे गोरक्षाके लिये समय-समयपर उपदेश दे रहे हैं, नामधारी सिखसम्प्रदाय (जिनके सतगुरु श्रीरामसिंहजी महाराज तथा उनके कूके नामधारी सिख गोवध बंद करानेके लिये ही बलिदान हुए थे) भी गोवधके विरुद्ध आवाज उठा रहा है। सतगुरु श्रीप्रतापसिंहजी सतत प्रयत्नमें लगे हैं। इसके अतिरिक्त और भी बहुत-से प्रयत्न चालू हैं। अभी सेठ गोविन्ददासजीने गोरक्षाके लिये संसदमें एक विधेयक उपस्थित किया है। इन एक ही उद्देश्यको लेकर होनेवाले विविध प्रयत्नोंसे सिद्ध हो जाता है कि भारतीय जनताका हृदय गोवधसे कितना दु:खी और क्षुब्ध है एवं सभी गोरक्षा चाहते हैं। अस्तु,

सरकारने क्या किया?

महात्मा गांधीजी तथा राष्ट्रपति डॉ० श्रीराजेन्द्रप्रसादजीके प्रयत्नसे ता० १९। ११। ४७ को भारतसरकारके कृषिमन्त्रणालयके द्वारा ‘गोरक्षण और गोपालन’ पर भलीभाँति विचार करके सम्मति देनेके लिये सर दातारसिंहजीकी अध्यक्षतामें ‘पशुरक्षण और संवर्धन कमेटी’ (Cattle Preservation and development commitee) बनायी गयी।

भारतसरकारके द्वारा निर्मित इस कमेटीने गत ६। ११। ४९ को अपनी रिपोर्ट दी और गोरक्षण तथा गोसंवर्धनकी योजना उपस्थित करते हुए यह सिफारिश की कि ‘चौदह वर्षतककी उम्रके पशुओंका वध तुरंत रोक दिया जाय और दो वर्षके अंदर-अंदर सम्पूर्ण गोवध बंद हो जाय।’ इस सिफारिशके अनुसार कार्य होता तो अबतक गोवध सम्पूर्ण बंद हो जाना चाहिये था, परंतु सरकारने इसकी पूर्ण अवहेलना की। यद्यपि इस कमेटीकी योजनाके अनुसार भारत-सरकारने निम्नलिखित कुछ कार्य किये और इसके लिये वह धन्यवादकी पात्र है—

(क) पहले केन्द्रिय गोशाला—विकास बोर्ड, तदनन्तर मध्यस्थ गोसंवर्धन कौंसिलकी स्थापना की गयी, जिसमें विभिन्न राज्योंके गोशाला-पिंजरापोल-संघोंके प्रतिनिधि तथा पशु-विभागके अधिकारियोंकी नियुक्ति की गयी।

(ख) इस कौंसिलको गोसंवर्धनकी योजना, गोसदनोंकी योजना, पशुओंके संक्रामक रोगोंका इलाज आदि कार्य सौंपे गये।

(ग) गोसंवर्धन कौंसिलको उपर्युक्त योजनाके निमित्त सरकारने आर्थिक सहायता देनेका निश्चय किया।

(घ) पञ्चवर्षीय योजनामें सवा तीन लाख अपंग और वृद्ध गोवंशको रखनेके लिये १६० गोसदन और नस्ल-सुधारके लिये ७५० केन्द्र खोलनेका निश्चय किया गया।

(ङ) गोशाला-पिंजरापोल-संघोंको व्यवस्थित करने और इन संस्थाओंके द्वारा गोसंवर्धन-योजनाको सफल बनानेपर विचार किया गया।

(च) सरकारी तौरपर गोपाष्टमीके दिनोंमें गोसंवर्धन-दिवस मनाया जाने लगा। (परंतु बड़े ही खेदकी बात है कि इस दिन भी जहाँ गोपाष्टमीके दिन गोसंवर्धन-दिवस मनाया गया, वहाँ केवल उस एक दिनके लिये भी कसाईखानेमें गोहत्या बंद नहीं की गयी!)

संविधानमें कतई गोवध-बंदीका विधान होनेपर भी अभी उपयोगी गायोंका वध जारी है।

उपर्युक्त कमेटीके सुझावोंको ध्यानमें रखते हुए संविधानमें ४८वीं धारा बनायी गयी थी जो इस प्रकार है—

“The State shall endeavour to organize agriculture and animal husbandry on modern and scientific lines and shall, in particular take steps for preserving and improving the breeds and prohibiting the slaughter of Cows and Calves and other milch and draught Cattle.”

मूल संविधानकी उपर्युक्त धाराके अनुसार ‘गाय और बछडोंका वध सर्वथा बंद होना चाहिये और दूसरे जो दूधके या खेतीके काममें आते हैं, उन पशुओंका भी वध नहीं होना चाहिये।’

इस यथार्थ अभिप्रायके अनुसार कुछ स्टेटोंमें गोवध कतई बंद करनेकी बात सोची जा रही थी कि इसी बीचमें भारतसरकारकी ओरसे प्रान्तीय सरकारोंको उक्त धाराका दूसरा अर्थ करते हुए वास्तवमें मूल संविधानके विरुद्ध, ता० २० दिसम्बर सन् १९५० को एक गश्ती पत्र भेजा गया, लिखा गया कि “Hides from slaughtered cattle are much superior to hides from fallen cattle and fetch a higher price. In the absence of slaughter the best type of hide which fetches good price in the export market no longer be available. A total ban slaughter is thus detrimental to the Export trade and work against the interest of the Tanning industry in the country.”

‘मरे हुए पशुकी अपेक्षा मारे गये पशुओंकी खालें बहुत बढ़िया होती हैं और उनके दाम ज्यादा आते हैं। गोवध सर्वथा बंद होनेकी स्थितिमें निर्यात व्यापारके लिये बढ़िया खालें नहीं मिलेंगी। अतएव सर्वथा गोवध-निषेध चर्म-निर्यातके व्यापारके लिये हानिप्रद होगा तथा चर्म-व्यवसाय करनेवाले लोगोंके स्वार्थके भी विरुद्ध होगा।’

इसलिये राज्य-सरकारको अनुपयोगी और दूध न देनेवाले पशुओंके सर्वथा वध रोकनेका कोई कानूनी प्रतिबन्ध नहीं लगाना चाहिये!

सच्ची बात तो यह है कि उपर्युक्त धाराका यह अर्थ करना उसका अनर्थ करना है। भारत-गोसेवक-समाजके सभापति और भारतीय संसदके सदस्य प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता सेठ गोविन्ददासजीने उपर्युक्त धाराके इस अंशका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है—

इस धाराका बहुत बार ऐसा अर्थ लगाया जाता है जो यथार्थमें इसका अर्थ नहीं। मैं निवेदन करना चाहता हूँ कि इस धाराका जो अन्तिम विशेषण है, ‘अदर मिल्च एन्ड ड्रॉट कैटल’। इन विशेषणोंको काऊज (गाय) और काब्ज (बछड़े) के साथ नहीं लगाया जा सकता। क्यों नहीं लगाया जा सकता, वह मैं आपको बताना चाहता हूँ। पहले तो आप काब्ज (बछड़ा) शब्दको लीजिये, ‘काब्ज’ न तो मिल्च (दूध देनेवाले ही) होते और न ड्रॉट (खेतीके कामके ही होते है)। ‘काब्ज’ शब्दके पहले ‘काऊज’ शब्द आया है, यानी ‘काऊज एण्ड काब्ज; एण्ड अदर मिल्च ड्रॉट कैटल’। अब आप देखिये कि ‘अदर मिल्च एण्ड ड्रॉट कैटल’ विशेषण काब्जके साथ नहीं लग सकते, तो फिर वह ‘काऊज’ (गायों) के साथ कैसे लग सकता है?

अगर इस संविधानका अभिप्राय केवल ‘मिल्च और ड्रॉट कैटल’ को ही बचानेका होता तो ‘काऊज एण्ड काब्ज’ इन शब्दोंको (अलग) रखनेकी आवश्यकता ही नहीं थी। ‘मिल्च एण्ड ड्रॉट कैटल’ में गायें भी आ जाती हैं, बैल भी आ जाते हैं, भैंस भी आ जाते हैं और भैंसे भी; लेकिन इसमें ‘काऊज एण्ड काब्ज’ पहले लिखे गये और उसके बाद ‘अदर मिल्च एण्ड ड्रॉट कैटल’ लिखा गया है। जो भाषाके विशेषज्ञ हैं, उनके सामने इस संविधानको रखा जाय और उनसे पूछा जाय कि इस संविधानकी धाराका अर्थ क्या होता है तो मेरा निश्चित मत है कि यदि कोई विशेषज्ञ अपना निष्पक्ष निर्णय देंगे तो स्पष्टरूपसे यही निर्णय देंगे कि गायों और बछड़ोंका वध तो तुरंत बंद होना चाहिये और उसके बाद दूसरे जानवर हैं, भैंस हैं और भैंसे हैं जो ‘मिल्च एण्ड ड्रॉट कैटल’ में आते हैं, उनका भी वध नहीं किया जाना चाहिये। ‘जो हमारे दूधके या खेतीके काममें आते हैं या इस प्रकारके अन्य जानवरोंका वध भी नहीं होना चाहिये’—गायों और बछड़ोंमें यह विशेषण नहीं लगाये जा सकते। इस तरहका अर्थ लगाना, खींचातानी करना, हमारे संविधानके अर्थका अनर्थ करना है।

अतएव यह सिद्ध है कि भारतसरकारने जान-बूझकर गोवध जारी रखनेकी इच्छासे ही यह अनर्थपूर्ण गश्ती पत्र राज्यसरकारोंको भेजा है; परंतु दु:ख तो यह है कि १४ वर्षसे कम उम्रकी उपयोगी गायोंका वध भी तो बंद नहीं हुआ। कितने ही प्रान्तोंमें १४ वर्षतककी आयुके पशुओंकी हत्या कानूनन बंद तो कर दी गयी है तथापि अभीतक वहाँ उपयोगी पशुओंकी हत्या वस्तुत: बंद नहीं हो पायी है और जबतक कानूनसे पूर्णरूपसे गोवध बंद नहीं हो जाता, तबतक उपयोगी गायोंका वध रुक नहीं सकता। दुनियामें जहाँ लोग गोमांस खाते हैं, वहाँ भी ऐसे उपयोगी पशुओंका निर्दय और निर्बाध वध नहीं होता, परंतु हमारे पवित्र देशमें कलकत्ते, बंबई-जैसे बृहत् नगरोंमें, बड़े-बड़े विद्वान्, बुद्धिमान्, देशहितैषी, राजपुरुष, गोसेवक और गोभक्तोंकी छातीपर सर्वोत्तम नस्लकी नौजवान दुधारू उपयोगी गाय-बैलोंकी भयंकर हत्या होती रहती है। असंख्य बछड़े-बछड़ियोंका कत्ल होता है। मानो ये नगर गरीब मूक गायोंकी वध्यभूमि बने हुए हैं!

जबतक कानूनमें ‘उपयोगी’ की शर्त रहेगी, तबतक ऐसा होता ही रहेगा। यह अबतकके अनुभवसे सिद्ध है। कानूनका अमल कितनी ही कड़ाईसे करनेकी इच्छा हो, अमल करने-करानेवाले जैसे होंगे वैसा ही अमल होगा। यही कारण है कि १४ वर्षसे कम उम्रकी गायोंका वध कानूनकी दृष्टिसे निषिद्ध होनेपर भी वे निर्बाध कट रही हैं और वे इसीलिये कट रही हैं कि मांसाहारी लोग उनके मांसको अच्छा समझते हैं और उनका चमड़ा भी बढ़िया माना जाता है तथा मांस एवं चमड़ेका निर्यात उत्तरोत्तर बड़ी तेजीसे बढ़ रहा है और यह—

गोमांस तथा चमड़ेका निर्यात ही भयानक गोवधमें प्रधान कारण है

सरकारी रिपोर्टोंके आधारपर सन् १९५२, ५३ में—४६,०९,१७३ (छियालीस लाख नौ हजार एक सौ तिहत्तर) गायोंकी खालें बाहर भेजी गयी हैं, जिनका मूल्य ७,५६,०९,१७३ (सात करोड़ छप्पन लाख नौ हजार एक सौ तिहत्तर) रुपये होते हैं। बछड़ोंकी खालें इससे अलग हैं और उनकी संख्या भी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है—सन् १९४५,४६ में जहाँ १,७२,००० बछड़ोंकी खालें बाहर गयी थीं, वहाँ सन् १९५२,५३ में—२०,०७,९५१ खालें बाहर भेजी गयी हैं, जिनका मूल्य १,२०,४६,९७० (एक करोड़ बीस लाख छियालीस हजार नौ सौ सत्तर) रुपये होते हैं, इनमेंसे केवल १० प्रतिशत खालें अन्य देशोंमें गयी हैं तथा १,०८,३८,०८४ रुपयेकी खालें एक इंगलैंडको भेजी गयी हैं, लाला हरदेवसहायजीके कथानानुसार इस समय—

अंग्रेजी राज्यकी अपेक्षा गोवधकी संख्या कहीं बढ़ी है?

लालाजी लिखते हैं—

गायकी ट्रेण्ड खालोंकी संख्या—४६,०९,१७३

बछड़ोंकी खालोंकी संख्या—२०,०७,९५१

गायकी कच्ची खाल—१०,०००

तैयार खालें—१,५०,०००

देशमें वध किये गये गोवंशकी खालोंका कम-से-कम खर्च—१५,००,००० अनुमान।

यों वध किये हुए गोवंशकी खालोंकी कुल संख्या—८२,७७,१२४।

चमड़ेके निर्यात, सामान तथा देशमें कत्ली खालोंके खर्चका जो अनुमान लगाया है, वह सरकारी रिपोर्टोंके आधारपर कम-से-कम है। उत्तर प्रदेश गोसंवर्धन कमेटीके प्रधान ग्रॉ० सर सीतारामजीने उस दिन अपने भाषणमें कहा है—

“India supplied hides worth? 11,74000 to Britain alone which was about three times the quantity supplied to the previous year.”

‘भारतवर्षसे केवल अकेले ब्रिटेनको ११,७४,००० पौण्डकी खालें भेजी गयी थीं जो गतवर्षकी भेजी गयी संख्यासे तिगुनी है।’

गो-मांसका निर्यात भी बढ़ता जा रहा है—

भारतमें कुल २२ बंदरगाहें हैं, जहाँसे विदेशमें माल निर्यात होता है—इनमेंसे तीन बंदरगाहोंके आँकड़े प्राप्त हुए हैं। इन तीनोंसे १ जुलाई सन् १९५२ से ३० जून सन् १९५३ तक जितने रुपयेका गोमांस भेजा गया, उसके आँकड़े इस प्रकार हैं—

१—बम्बईसे — ३१,६९,९६६) रुपयेका

२—कलकत्तासे — २१,६९,३४७) रुपयेका

३—मद्राससे — २,९९,१३९) रुपयेका

यों एक वर्षमें ५६,३८,४५२) रुपयेका गोमांस केवल उपर्युक्त तीन बंदरगाहोंसे भेजा गया है!

अंग्रेजी राज्यमें जिम्मेवार पुरुषोंने अनुमान एक करोड़ गोवधकी संख्या बतलायी थी। देशविभाजनके बाद वह संख्या उस अनुपातके अनुसार ६७ लाख करीब होनी चाहिये थी जो आज ८२ लाखसे कहीं अधिक है। इससे सिद्ध होता है कि अंग्रेजी राज्यमें जितना गोवध होता था उससे अब अधिक होता है। अंग्रेजी राज्यमें प्राय: गोवध केवल कसाईखानोंमें ही होता था, उसकी गणना भी की जा सकती थी; परंतु आजकल तो घरोंमें, जंगलोंमें और खेतोंमें बहुत अधिक गोवध हो रहा है, इसलिये उसकी अलग-अलग संख्याका पता नहीं लग सकता। अत: निर्यातके अङ्कोंसे ही अनुमान लगाया जा सकता है।

यह चमड़ेका और गोमांसका निर्यात तथा चमड़ेका व्यापार ही इतने भयानक गोवधका प्रधान कारण है। अत: जबतक चमड़ेका तथा गोमांसका निर्यात तथा गोवध कानूनसे सर्वथा बंद नहीं होगा, तबतक गोवंशकी सुरक्षा असम्भव है। अतएव भारतके सब राज्योंमें सर्वथा गोवधबंदीका तथा चमड़े एवं गोमांसके निर्यात बंद करनेका कानून शीघ्र-से-शीघ्र बन जाय, इसके लिये हर तरहके शान्तिमय उपायोंसे प्रबल आन्दोलन कर ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देनी चाहिये जिससे सरकार तथा हमारे प्रमुख नेता इस बातको समझ जायँ कि ‘गोरक्षा हुए बिना भारतीय जनताके हृदयका दु:ख नहीं मिट सकता।’ और वे सर्वथा गोवधबंदीका कानून बना दें।

यह याद रखना चाहिये कि जबतक एक बूँद भी गोरक्त भारतभूमिपर गिरता रहेगा, तबतक न भारतका कलङ्क मिटेगा और न वह सुखी होगा।

गो-सदन

इसीके साथ-साथ गोसदनोंकी स्थापना आवश्यक है। हमारे प्राचीन पिंजरापोल, गोशाला एक प्रकारके ‘गो-सदन’ ही हैं। उनमें सेवा तथा धर्मवृत्तिसे अपने बूढ़े माता-पिताके पालन करनेकी भाँति अशक्त, असमर्थ, रोगी गाय-बैलोंको भरण-पोषण किया जाता था। और यह परम आवश्यक भी था। वस्तुत: यह बड़े महत्त्वका नैतिक दायित्व है। हमारे माता-पिता, जिन्होंने हमें नाना प्रकारके दु:ख-संकट झेलकर पाला-पोसा, अपने हृदयका सर्वस्व देकर हमारी उन्नति-कामना की तथा हमें मनुष्य बनाया, बुढ़ापेमें उन्हें अनुपयोगी बताकर छोड़ देना क्या हमारा नैतिक दुराचार नहीं है? इसी प्रकार जिस गोमाताने हमारा जीवनभर पालन-पोषण किया, सैकड़ों मन दूध दिया, जिसके पुत्र बैलने हमारे जीवन-रक्षाके लिये हजारों मन अन्न उपजाया, वृद्ध होनेपर उसे हम भूखों मरनेको छोड़ दें या कह दें कि उसे कत्ल कर दिया जाय? यह भीषण कृतघ्नता और महान् नैतिक पतन नहीं तो और क्या है? अतएव ऐसे गाय-बैलोंका पालन-पोषण करना हमारा परम कर्तव्य हो जाता है। इसी उद्देश्यसे पिंजरापोलोंकी स्थापना हुई थी और इसीलिये आज भी गो-सदनोंकी स्थापनाका विचार किया गया है। यद्यपि इसमें दया तथा पूज्य भावनाका एवं श्रद्धाका अभाव है, तथापि जो सर्वथा अनुपयोगी पशु हैं; उनके लिये गो-सदनकी स्थापना अत्यावश्यक है।

सरकारी पञ्चवर्षीय योजनामें वृद्ध तथा अपंग गाय-बैलोंको रखनेके लिये १६० गोसदन बनानेकी योजना है। इसमें लगभग तीन लाख पशु रखे जायँगे; यद्यपि इतने ही पर्याप्त नहीं हैं, तथापि, दु:खकी बात तो यह है कि इस काममें बहुत ही शिथिलता बरती जा रही है! अबतक बहुत ही थोड़ा काम हुआ है। सरकारसे निवेदन है कि स्वीकृत योजनाके अनुसार शीघ्र कार्य करे। जबतक वृद्ध अपंग गायोंके रखनेकी संतोषजनक व्यवस्था गो-सदनोंके द्वारा नहीं होगी, तबतक सम्पूर्ण गोवधबंदीका कानून बननेपर भी बूढ़ी, अपंग गायोंके निराश्रय होकर मरते रहनेकी सम्भावना रहेगी ही।

वृद्ध और अपंग पशुओंकी रक्षा आर्थिक दृष्टिसे भी लाभदायक है

आजकल कहा जाता है कि जो पशु अनुत्पादक और अनुपयोगी हों, उनको तो मार ही डालना चाहिये। यहाँतक कि ‘राष्ट्रिय-योजना-कमेटी’ ने अपनी रिपोर्टमें लोगोंके भोजन-सम्बन्धी अभ्यास और धार्मिक भावनामें क्रान्ति उत्पन्न करके अनुपयोगी पशुओंका भोजनके रूपमें प्रयोग किये जानेकी राय दी है; यद्यपि हमारी संस्कृतिके अनुसार अनुपयोगी बताकर गोमाताका वध करनेकी बात कहना बूढ़े माता-पिताके वधकी सम्मति देनेके समान ही महापाप है। पर सच कहा जाय तो जितनी संख्या अनुत्पादक या अनुपयोगी बतलायी जाती है, उतनी है भी नहीं और जो है उसमेंसे पर्याप्त चारा-दाना मिलनेपर बहुत-सी उत्पादक और उपयोगी बन सकती हैं। यह अनुभवसे सिद्ध हो चुका है। पर जो सर्वथा अनुपयोगी, वृद्ध और अपंग पशु हैं, वे भी वस्तुत: लाभदायक हैं। इस सम्बन्धमें सेठ गोविन्ददासजीने कहा है—

‘आर्थिक दृष्टिसे जो पशु बेकाम कहे जा रहे हैं, वे यथार्थमें बेकार हैं या नहीं, इसपर हमें विचार करना होगा। प्रामाणिक ग्रन्थोंके आधारपर एक पशुपर कितना व्यय होता है, इसपर विचार कीजिये। सरकारी गोसंवर्धन कौंसिलके अनुमानके अनुसार एक पशुको गो-सदनमें रखनेका आरम्भिक व्यय १५) रुपये हैं और प्रतिवर्ष १०) रुपये निगरानी इत्यादिपर व्यय आता है। यदि एक वृद्ध और अपंग पशु अधिक-से-अधिक ५ वर्ष जीवित रहे तो उसपर औसत खर्च १५) रुपये प्रतिवर्ष होगा। इस पशुके मरनेपर चमड़े, हड्डी इत्यादिसे यदि कम-से-कम २५) रुपये आय हो तो १०) रुपये प्रतिपशु प्रतिवर्ष व्यय हुआ।

भारतसरकारकी वैज्ञानिक पत्रिका ‘वेटर्नरी साइंस एण्ड ऐनिमल हसबैंडरी’ के मार्च १९४१ के प्रकाशित एक लेखमें बताया गया था कि औसत गायको जीवित रखनेके लिये ४ सेर नित्य या वर्षमें ३६ मन सूखा चारा चाहिये। जिसका मूूल्य अधिक-से-अधिक ३) रुपया प्रतिमनके हिसाबसे १०८) रुपये वार्षिक होता है। इस हिसाबमें वह चारा, जो पशु वर्षाके दिनोंमें या अन्य दिनोंमें गोचरभूमियोंमें चरता है, वह कम नहीं किया गया। सब खर्च लगा लेनेपर अधिक-से-अधिक १०८) रुपये चारेपर एक पशु जीवित रहता है। जैसा कि आयके हिसाबमें बतलाया गया है। एक पशुसे १२५) रुपये वार्षिक आय होती है और गो-सदनमें रखनेसे १५) रुपये तथा घरमें रखनेसे १०८) रुपये व्यय पड़ता है। इस हिसाबसे गो-सदनमें रखा जानेवाला ११०) रुपये वार्षिक और घरमें रखा जानेवाला १८) रुपये वार्षिक लाभ देता है; यदि सरकार और जनता—दोनों गोबर और गोमूत्रको ठीक-ठीक उपयोगमें लावें और मरे हुए पशुके चमड़े और हड्डीका ठीक-ठीक उपयोग हो तो एक वृद्ध, अपंग,अनुपयोगी कहलानेवाला पशु भी हानिकारक नहीं, लाभदायक है। यह तो व्ययके हिसाबसे हुआ, अब आयके हिसाबसे देखिये। ‘पञ्चवर्षीय योजना’ के १८वें अध्यायमें ‘कृषि-उन्नतिकी कुछ समस्याएँ’ के २३वें पैराग्राफमें लिखा है कि १९५१ की पशु-गणनाके हिसाबसे ८०० मिलियन टन या अनुमानत: २२ अरब ५० करोड़ मन गोबर वार्षिक होता है। इसमेंसे आधा या सवा ग्यारह अरब मन खादके काममें और आधेके करीब जलानेके काममें आता है। सिंदरीके कारखानेके सल्फेटका भाव जिसमें अनुमान २० प्रतिशत नाइट्रोजन होता है, उसका २८०) रुपये टन १० रुपये प्रतिमन है। गोबरका खाद ऐमोनियम सल्फेटसे निस्संदेह अच्छी चीज है, पर उसमें नाइट्रोजन कम-से-कम २ प्रतिशत है। इस हिसाबसे नाइट्रोजनके अनुपातको देखते हुए गोबर एक रुपये मन पड़ता है, अर्थात् पञ्चवर्षीय योजनाके लेखकोंके अनुमानके अनुसार जो गोबर खादके काम आता है, उसका मूल्य ११ अरब रुपये होता है। ईंधनके काम आनेवाला गोबरका मूल्य खादके काम आनेवाले गोबरके बराबर नहीं, पर कम-से-कम एक चौथाईके बराबर लगभग तीन अरब रुपये अवश्य हैं। इस हिसाबसे खाद और जलानेवाले दोनों प्रकारके गोबरका मूल्य १४ अरब रुपयेसे कम नहीं।

यह पञ्चवर्षीय योजनाके विशेषज्ञ स्वीकार करते हैं। इसी पैरे २३ में लिखा है कि गोमूत्रका अनुमान इस गोबरमें नहीं लगाया गया। अत: जो यह कहा जाता है कि ये पशु बेकार हैं, ये पशु आर्थिक दृष्टिसे रखनेके कामके नहीं हैं, यह बिलकुल गलत बात है। मैंने जो हिसाब प्रस्तुत किया है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनपर जो खर्च होता है, वह उनसे जो आय होती है उससे बहुत कम है।

दूधकी कमी और अच्छे साँड़ोंकी आवश्यकता

आज हमारी गाय इतनी निर्बल है कि वह संख्यामें बहुत अधिक होनेपर भी दुग्धोत्पादनमें बहुत ही पीछे है। आजकल प्रति मनुष्य औसत भारतवर्षमें लगभग ३ औंस यानी डेढ़ छटाँक (किसी-किसीके मतमें ७ औंस) दूध मिलता होगा, जब कि न्यूजीलैंडमें ५६, आस्ट्रेलियामें ४५, इंगलैंडमें और अमेरिकामें ३५ औंस मिलता है। शरीरकी संतोषजनक वृद्धि और स्वास्थ्यरक्षाके लिये कम-से-कम १५ से ३० औंसतक दूध तो मिलना ही चाहिये। इसी दूधके अभावके कारण बच्चोंकी मृत्यु-संख्या बहुत अधिक होती है। हमारे यहाँकी गाय सालभरमें औसत ७५० पौंड दूध देती है तथा दो व्यानोंके बीचका अन्तर भी दूसरे देशोंकी अपेक्षा बहुत लम्बा होता है। अतएव नस्ल-सुधारकी बड़ी आवश्यकता है। इसके लिये खूराक तो पूरी चाहिये ही, पर उत्तम साँड़ोंकी भी बड़ी आवश्यकता है। हमारे यहाँ अनुमानत: जहाँ २५० अच्छे सांतानिक साँड़ोंकी आवश्यकता है, वहाँ केवल एक ही ऐसा साँड़ है। जिसकी माँ बहुत दूध देनेवाली हो, उसीसे उत्पन्न साँड़की संतान गौ अधिक दूध देनेवाली हो सकती है। सरकारी पञ्चवर्षीय योजनामें साँड़ तैयार करनेके लिये ६०० केन्द्रीय ग्रामयोजना तथा १२५ साँड़-फार्म बनानेकी योजना की गयी है। यह योजना यदि सफल हुई तो प्रतिवर्ष ६ हजार साँड़ निकलेंगे, पर गायोंकी संख्याको देखते यह संख्या बहुत ही कम है। विशेषज्ञोंके द्वारा ऐसे ही साँड़ तैयार कराये जायँ जो स्थानीय नस्लोंके लिये लाभदायक हों और उनसे उन्हींके अनुकूल गायोंको बर्दानेकी व्यवस्था करायी जाय जिससे उनकी नस्ल वर्णसंकरी होकर बिगड़ न जाय।

गोचर-भूमि तथा चारा-दाना

गायकी दुर्बलतामें चारे-दानेकी कमी भी एक प्रधान कारण है। कहना नहीं होगा कि भारतवर्षमें पहले प्रचुर गोचरभूमि थी। अंग्रेजोंके जमानेमें उनका बड़ा ह्रास हो गया। इधर कारखानों तथा रेलके विस्तारसे जंगल तथा चारेकी ऊसर जमीन भी रुकी जा रही है। गौओंकी ओर वस्तुत: किसीका ध्यान नहीं है।

पाकिस्तानसहित भारतवर्षका क्षेत्रफल १५७१९६४ वर्गमील अर्थात् ११६२९१९००० एकड़ भूमि है। इनमेंसे कुल २८६६५१७०५ एकड़ जमीन खेतीके काममें आती है।*

* सन् १९२२-२३ के अंकोंके अनुसार।

शेष ८७६२६७२७५ एकड़ जमीनमें आबादी(नगर, गाँव, सड़क, रेल, तालाब आदि) हैं। ६३२५४७११ एकड़ भूमि ऊसर तथा १०३५७२१३८ एकड़ जंगल है। विशेषज्ञोंका मत है कि चारेके लिये केवल ६४ (किसीके मतसे अधिक-से-अधिक ९०) लाख एकड़ जमीनसे अधिक नहीं है। खेतोंके लिये अयोग्य भूमिमें जो कुछ चारा अपने-आप चौमासेमें पानीसे हो जाता है, बस, उसीपर पशुओंको निर्भर रहना पड़ता है। असलमें चारा उपजाया ही नहीं जाता। लगभग २॥ सेरसे अधिक चारा (हरा-सूखा मिलाकर औसत) कठिनतासे मिलता है। यह स्थिति है। इधर पाश्चात्त्य देशोंको देखिये—ग्रेटब्रिटेनमें कुल ७॥। करोड़ एकड़ भूमि है और २ करोड़ ३० लाख एकड़ जमीन स्थायी गोचरभूमिके लिये है। जर्मनीमें ६॥ करोड़ एकड़ जमीनमें खेती होती है और २ करोड़ १४ लाख एकड़ गोचरभूमि है। न्यूजीलैंडमें ६ करोड़ ७० लाख एकड़ जमीन है, जिसमें २ करोड़ ७२ लाख एकड़ गोचरभूमि है। अमेरिकामें लगभग ६० करोड़ एकड़ गोचरभूमि होगी, वहाँ खास तौरपर बढ़िया घास-चारा उपजाया जाता है। हमारे यहाँ पशुओंकी आवश्यकतासे २२ प्रतिशत चारा और ७२ प्रतिशत दाना कम मिलता है। इसलिये गोचरभूमिकी प्रचुरता और दाने-चारेकी व्यवस्था परमावश्यक है। हमारे यहाँ करोड़ों एकड़ जमीन व्यर्थ पड़ी है, उसमें तरह-तरहके उपयोगी घास तथा चारा उपजाया जाय; चारेका ठीक उपयोग हो और बिनौले, ग्वार, खली आदिका उत्पादन बढ़ाकर उनका उपयोग केवल पशुओंके लिये ही किया जाय तो इस स्थितिमें सुधार हो सकता है। इधर सरकार और जनताको विशेष ध्यान देना चाहिये।

गोवध-निषेध, गो-रक्षा, गो-संवर्धनके लिये क्या-क्या करना चाहिये!

  1. गोवध भारतका कलङ्क है, अतएव कतई गोवधबंदीका कानून सब जगह बन जाय, इसके लिये सतत और सबल प्रयत्न करना चाहिये। जबतक सर्वथा गोवधबंदीका कानून सब स्टेटोंमें न बन जाय, तबतक आन्दोलनको शिथिल न होने दिया जाय।

  2. बूढ़ी, बेकाम गायोंके लिये गो-सदनोंकी स्थापना करना-कराना। जिनमें गायके अपनी मौत मरनेके समयतक उसके लिये आवश्यक चारे-पानी और चिकित्साकी सुव्यवस्था हो। नस्ल न बिगड़े, इस दृष्टिसे वहाँ गायोंकी बरदाया न जाय।

  3. गायकी नस्ल-सुधारका प्रयत्न करना, जिससे गाय प्रचुर दूध देनेवाली हो, बैल मजबूत हों और मरे हुए गाय-बैलकी अपेक्षा जीवित गाय-बैलका मूल्य बढ़ जाय। इस प्रकार गायको आर्थिक दृष्टिसे स्वावलम्बी बनाना।

  4. कलकत्ते आदि शहरोंमें जहाँ गायके रखनेके लिये पर्याप्त स्थान नहीं है, जहाँ कृत्रिम और निर्दय उपायोंसे दूध निकाला जाता है, बछड़े मरने दिये जाते हैं, दूध सूखते ही गाय कसाईके हाथ बेचदी जाती है, कानूनी प्रतिबन्ध होनेपर म्युनिसिपलिटीकी सीमासे बाहर ले जाकर गाय मार दी जाती है। वहाँ जबतक ये बातें दूर न हों बाहरसे गायको कतई न जाने देना। स्थानकी सुविधा कराना तथा सरकारके द्वारा ऐसी व्यवस्था कराना, जिसमें गायोंको दिये जानेवाले ये सब कष्ट दूर हों।

  5. गायको भरपेट चारा-दाना मिले इसके लिये व्यवस्था करना। गोचर-भूमि छुड़वाना। नये-नये चारेकी खेती कराना।

  6. वर्तमान पिंजरापोल, गोशालाओंका सुधार करना और जो पिंजरापोल, गोशाला दयाभावसे केवल बूढ़ी-अपंग गायोंके लिये खोले गये हैं, उन्हें डेरीफार्म न बनाकर उसी कामके लिये रहने देना।

  7. गायोंका गर्भाधान, विशेष दूध देनेवाली गौके पुत्र, बलवान् तथा श्रेष्ठ जातिके साँड़से ही कराना। ऐसे साँड़ोंका निर्माण तथा विस्तार करना, बूढ़े साँड़ोंसे गर्भाधानका काम कतई न लिया जाना।

  8. कसाईखानोंमें मारी हुई गायके चमड़े इत्यादिसे बनी हुई वस्तुएँ—जूते, बटुए, कमरपट्टे, बिस्तरबंद, घड़ीके फीते, चश्मेके घर, पेटियाँ, हैंडवेग आदिका व्यवहार न करनेकी शपथ करना-कराना।

  9. गोवधमें सहायक चमड़े, मांस आदिका व्यापार, जिससे गोवध होता है बिलकुल न करना।

  10. गो-सदनोंमें, पिंजरापोलोंमें और सर्वसाधारणके द्वारा भी मरे हुए पशुओंके चमड़े, हड्डी, सींग, केश आदिसे अर्थ उत्पन्न करना और उसे बूढ़ी, अपंग गायोंकी सेवामें लगाना।

  11. ट्रैक्टरोंका व्यवहार न करके या कम करके हल जोतनेका काम केवल बैलोंसे ही लेना तथा रासायनिक खादका उपयोग न करके गोबर, गोमूत्रकी खादसे ही काम लेना।

  12. बेजिटेबल—जमाये तेलकी घीमें मिलावट न हो, इसके लिये उसे अवश्य रँग देनेकी व्यवस्था सरकारसे कराना।

  13. चमड़ा, चर्बी, खून, हड्डी आदि जिन-जिन वस्तुओंके लिये गाय मारी जाती है तथा जिन कार्यों, कारखानों, मोटरगाड़ी आदि वाहनोंमें ये चीजें बरती जाती हैं, उनका पता लगाकर कारखानेवालोंसे तथा दूसरे इससे सम्बन्ध रखनेवालोंसे प्रार्थना करना कि वे इन चीजोंको काममें न लावें।

  14. यथासाध्य गायके ही दूध, दही, घीका व्यवहार करना।

  15. गोरक्षाके लिये सभी लोग प्रतिदिन अपने-अपने इष्टदेव भगवान‍्से आर्त प्रार्थना करें।

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