अभावकी पूर्ति
मनुष्य किसी एक वस्तुका अभाव समझकर उसे प्राप्त करनेकी चेष्टा करता है, वह प्राप्त हो भी जाती है और नहीं भी। प्राप्त हो जाती है तो क्षणभरके लिये दूसरी वस्तुके अभावका अनुभव न होनेतक मनमें हर्ष होता है, नहीं प्राप्त होती तो शोक रहता है! प्राप्त होकर नष्ट हो जाती है तो शोक और भी बढ़ जाता है और चाहकी चिन्ता-चिता तो निरन्तर चित्तमें धधकती ही रहती है।
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किसी एक वस्तुके अभावको मिटानेके लिये जो उपाय किये जाते हैं, उनके करनेमें भी बीच-बीचमें ग्रहोंकी महादशामें अन्तर्दशाकी भाँति नये-नये अभाव पैदा होते रहते हैं, जिनकी पूर्ति-अपूर्तिका हर्ष-शोक भी चलता ही रहता है। दु:ख किसी हालतमें भी नहीं मिटता और जबतक अभावोंकी उत्पत्ति होती रहेगी मिटेगा भी नहीं।
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यही मनुष्यकी मूर्खता है कि वह एक-एक अभावकी पूर्ति करनेमें लगा रहता है और नये-नये अभावोंको उत्पन्न करता रहता है, जिससे उसके हृदयकी आग किसी भी हालतमें कभी बुझती ही नहीं। जलते-जलते ही—हाय-हाय करते-करते ही—जीवन बीत जाता है।
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यदि वह ऐसी स्थितिको प्राप्त कर ले जिसमें कभी किसी अभावका अनुभव ही न हो, किसी अभावको पूर्ण करनेकी कभी चाह ही न हो तो सारा बखेड़ा अपने-आप मिट जायगा। ‘चाह गयी, चिन्ता गयी मनुवाँ बेपरवाह।’ इसीलिये प्रह्लादने भगवान्से यह वर माँगा था कि मेरे मनमें कभी माँगनेकी इच्छा ही न उत्पन्न हो।
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अभावोंकी पूर्ति करके कोई भी अभावोंको सर्वथा पूर्ण नहीं कर सकता, क्योंकि अभावोंकी पूर्तिके साथ-ही-साथ रक्तबीजके रक्तबिन्दुओंसे बने असुरोंकी भाँति नये-नये अभावोंकी सृष्टिका क्रम कभी बन्द नहीं होता। ‘बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ, बिषय-भोग बहु घी ते।’ इसलिये अभावकी उत्पत्तिका स्रोत ही बन्द कर देना चाहिये। कामना उत्पन्न ही न होगी तो आगेके सारे प्रपंच और पाप आप ही नष्ट हो जायँगे।
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अतएव अभावकी पूर्तिके पचड़ेमें न पड़कर अभावका ही अभाव कर डालो। सारे अभावोंका अभाव होता है उस वस्तुको पानेसे जो नित्य है, पूर्ण है, एकरस है, सर्वगत है, अचल है, सनातन है, ज्ञानस्वरूप है, सबका आदि, मध्य और अन्त है, सर्वगुणाधार है और सर्वैश्वर्यमय है। ऐसी वस्तु एक भगवान् है। महामहिम भगवान्के महत्त्वको जान लेनेपर तो कोई ऐसा नहीं होगा जो भगवान्के सिवा और किसी ओर नजर भी डाले। हम भगवान्को न जाननेके कारण ही उस समस्त अभावोंके बीजका बीज नाश कर देनेवाले, नित्य परम सुहृद्, परम धनसे वंचित होकर नाना प्रकारसे दु:ख भोग रहे हैं।