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भगवान‍्की आज्ञा

जिसके मनमें—प्रेम, सत्य, दया, आनन्द, सरलता, समता आदि गुण भरे हैं वही यथार्थमें सुन्दर है, चाहे वह देखनेमें बदसूरत ही क्यों न हो और जिसके मनमें—वैर, असत्य, क्रूरता, विषाद, कपट, विषमता आदि दोष भरे हैं, वह देखनेमें परम सुन्दर होनेपर भी यथार्थमें कुरूप है, अतएव मनमें दैवी गुणोंको भरनेकी चेष्टा करो।

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जिसका मन वशमें है वही यथार्थमें स्वाधीन है। देहका बन्धन—बन्धन नहीं है, असली बन्धन है—मनका बन्धन। एक आदमी देहसे स्वतन्त्र है, परन्तु यदि वह मनके अधीन है तो उसे सर्वथा पराधीन ही समझना चाहिये। मनपर विजय प्राप्त करनेवाला ही यथार्थ विजयी है। अतएव मनको वशमें करो।

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मनको वशमें करनेके लिये यदि तुम्हें विधि या नियमोंके बन्धनमें रहना पड़े तो अपना सौभाग्य समझो, यह बन्धन ही तुम्हें मनकी गुलामीसे मुक्त करेगा। उच्छृंखलता बन्धनकी गाँठोंको और भी कस देती है, अतएव नियमोंकी शृंखलामें बँधे रहनेमें ही मंगल समझो।

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जिसके मनमें भगवान‍्के प्रति भक्ति है, वही यथार्थ भक्त है, बाहरी आडम्बरवाला नहीं! भगवान् मनपर ध्यान देते हैं, भेषपर नहीं, इसलिये मनसे भगवान‍्की भक्ति करो, दुनियाके लोग चाहे तुम्हें भक्त न मानें।

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किसीके साथ किसी बातको लेकर कुछ अनबन हो जाय और बर्तावमें कोई दोष आ जाय तो फिर उसके साथ अच्छा बर्ताव करनेके लिये इस बातकी बाट न देखो कि पहले वह मुझसे अच्छा बर्ताव करे। सम्भव है वह भी इसी प्रकार तुमसे अच्छे बर्तावकी प्रतीक्षा करता हो। ऐसी अवस्थामें तुम कभी अच्छा बर्ताव कर ही नहीं सकोगे। अतएव अपनी ओरसे पहलेसे ही अच्छा बर्ताव करना आरम्भ कर दो। तुम्हारे बर्तावसे उसपर असर पड़ेगा और वह भी अच्छा बर्ताव करने लगेगा।

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किसीका उपकार करके उसको जनानेकी इच्छा न करो, उपकार जितना गुप्त रहेगा उतना ही वह अधिक मूल्यवान् होगा। जना देनेसे उपकारकी कीमत घट जाती है और उपकार पानेवालेको कभी-कभी बड़े संकोचमें पड़ना पड़ता है।

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सच्चे संत अपने संतपनेका ढिंढोरा नहीं पीटते, बल्कि उनमेंसे बहुतोंको अपने संतपनेका भी पता नहीं रहता। वे अपनेको साधारण मनुष्य मानते हैं, परन्तु उनके संगसे बड़े-से-बड़े पापी भी तर जाया करते हैं।

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संतोंका मिलना और उनको पहचानना बड़ा कठिन है। संत प्राय: छिपे रहते हैं। उनके ऊपरके आचरणोंसे लोग सहजमें उनको नहीं पहचान सकते, दूसरी बात यह है कि संतोंको साधारण पुरुष पहचाने भी कैसे, वह तो उसे अपनी बुद्धिके अनुसार ही परखना चाहते हैं, परन्तु उनका वह परखना वैसे ही निरर्थक होता है जैसे पत्थर तौलनेके बड़े काँटेपर बहुमूल्य हीरेको तौलना।

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भगवत्कृपासे ही संत मिला करते हैं, परन्तु उनका मिलना व्यर्थ नहीं जाता, उससे कुछ-न-कुछ फल मिलता ही है। यदि मनुष्य उन्हें यथार्थरूपसे पहचान ले तो वह भी वैसा ही बन जाय। संतोंको पहचानना ही उनसे यथार्थ मिलना है। इसीलिये संत-मिलनकी इतनी प्रशंसा की गयी है।

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दु:ख पापका फल है और सुख पुण्यका; आज जो लोगोंपर, संसारपर नित नये दु:ख आ रहे हैं, इससे यह सिद्ध है कि संसारमें पाप बढ़ रहा है। बुद्धिमें पाप समा जानेके कारण पापकी वृद्धिमें ही उन्नति नजर आती है और इसीलिये लोग उसीमें लग रहे हैं। अतएव सुख चाहनेवालोंको जगत‍्के इन वर्तमान विपरीतगामी लोगोंसे उलटा चलना चाहिये, क्योंकि पापका प्रतिपक्षी ही पुण्य होता है और पुण्यका फल ही सुख है।

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पापमें पुण्य, अकर्तव्यमें कर्तव्य, अधर्ममें धर्म या बन्धनमें मुक्तभाव होना विपरीत-बुद्धिका ही परिणाम है। आज संसारमें यही हो रहा है। इसका फल दु:ख और बन्धन अवश्यम्भावी है। विपरीत ज्ञानका कारण अविद्या है, जो भगवान‍्की कृपासे ही नष्ट हो सकती है। भगवान‍्की कृपा प्राप्त करनेके लिये भगवद्भजन परम आवश्यक है। अतएव मन लगाकर सबको श्रीभगवान‍्का भजन करना चाहिये।

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जो संसारके विषयोंपर जितना कम सोचता है और जितना कम बोलता है वह आध्यात्मिक मार्गपर उतना ही शीघ्र आगे बढ़ सकता है। इसलिये जहाँतक बन सके चित्तमें जगत‍्के प्रपंचोंको बहुत ही कम आने दो और बिना आवश्यकताके जीभको कभी न खोलो। कम-से-कम बुद्धिमान् कहलानेके लिये तो कभी न बोलना ही अच्छा है।

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जो जितना कम बोलता है उससे उतने ही कम मिथ्या बोले जाने और परनिन्दा होनेकी गुंजाइश रहती है। मिथ्या और निन्दा बड़े पाप हैं, अतएव वाणीका संयम करके इन्हें यथासाध्य कम करो।

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वाणीसे होनेवाले पापोंमें चार प्रधान हैं—मिथ्या बोलना, किसीकी निन्दा या चुगली करना, कड़ुआ बोलना और व्यर्थकी बातें करना। अतएव जहाँतक बने कम बोलो और जो बोलो उसमें चार बातोंका ध्यान रखो—तुम्हारे शब्द उद्वेग पैदा करनेवाले न हों, मिथ्या न हों, प्रिय हों और हितकारी हों। ऐसा सब समय न बोल सको तो इन चारोंमेंसे तीन, दो या कम-से-कम एक सत्यपर तो डटे ही रहो! नहीं तो वाणीसे भगवान‍्के गुण और नामका गान करो। मुँहसे व्यर्थ तो बोलो ही मत! बोलना ही पड़े तो बोलो—रामकी बात या आवश्यक कामकी बात! यही भगवान‍्की आज्ञा है। इसे याद रखो।

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