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पाप-तापसे मुक्ति

श्रीभगवान‍्का नाम जपकर या भगवन्नामका संकीर्तन करके मनमें यह दृढ़ निश्चय करो कि मेरे पाप नष्ट हो गये हैं। अब मेरे मनमें पापके विचार नहीं उठ सकते। जैसे सूर्यके सामने अन्धकारके आनेकी सम्भावना नहीं है, इसी प्रकार भगवन्नामरूपी सूर्यके सामने पापरूपी अन्धकार नहीं आ सकता। इस कमजोरीको मनमें मत आने दो कि भगवान‍्के नामका जप करते-करते धीरे-धीरे पाप दूर हो जायँगे। यह भी कभी मत खयाल करो कि पाप करके नाम-जपसे उसे धो डालेंगे; यह तो बड़ा अपराध होगा। किसी बहाने भी पापको आश्रय मत दो।

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निश्चय करो कि पाप जल गये—सदाके लिये भस्म हो गये। बार-बार भगवन्नाम-स्मरण और कीर्तनरूपी प्रकाशको सदा बनाये रखो। पहलेका अँधेरा मिट गया और निरन्तर प्रकाश रहनेसे नया आ नहीं सकता।

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भगवान‍्के शरण होकर निर्भय बन जाओ। जो सर्वशक्तिमान् सर्वाधार विश्वपति देवाधिदेव भगवान‍्के शरण हो गया, उसको भय कहाँ? मनमें दृढ़ निश्चय करो कि मैं भगवान‍्के शरण हो गया, मैं उनका जन हो गया। अब मैं भगवान‍्की छत्रच्छायाके नीचे हूँ। उनकी शक्तिसे सर्वथा सुरक्षित हूँ। पाप-ताप मेरे समीप नहीं आ सकते। विषाद, शोक, व्याकुलता, उद्वेग, निराशा, क्षोभ, सन्देह, अश्रद्धा, ईर्ष्या, कायरता, द्वेष आदि दोष मुझमें रहे ही नहीं। मैं दैवी शक्तिको पाकर अपार शक्तिशाली बन गया हूँ। ईश्वरीय बल पाकर सब भयोंसे मुक्त हो गया हूँ।

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मनमें दृढ़ निश्चय करो कि भगवान् मेरे हृदयमें सदा विराजमान हैं, भगवान‍्का निवासस्थान होनेके कारण उसमें जरा-सी भी अपवित्रता नहीं रही। काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, अभिमान, राग, द्वेष, मत्सर, वैर आदि दोष अब मेरे समीप नहीं आ सकते। जहाँ परम पवित्र भगवान् हैं वहाँ अपवित्र चीजोंका क्या काम?

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निश्चय करो, भगवान‍्के हृदयमें आनेसे मेरे दिव्य नेत्र खुल गये। अब मुझमें सर्वत्र सब समय सब कुछ भगवान् ही दिखायी देते हैं। मेरा हृदय प्रेममय भगवान‍्को पाकर प्रेमसे भर गया। जगत‍्में कोई पराया नहीं, कोई घृणाके योग्य नहीं, कोई वैरी नहीं, सब मेरे अपने हैं, सब बन्धु हैं, सभी प्रियतम हैं, अब सबके साथ नि:स्वार्थ प्रेम करना ही मेरा स्वभाव है। प्रेम ही मेरा जीवन है। प्रेम ही मेरा धर्म है।

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भगवान‍्के शरण होकर और भगवान‍्का परम पवित्र नाम लेकर अपने अंदर पवित्रता, निर्भयता, शक्ति, तेज, प्रकाश, प्रेम, निर्भरता, निष्कामता, सन्तोष और परम आनन्दका अनुभव करो। कभी खिन्न न होओ। कभी निराशा, उदासी, चाह, निर्बलता, द्वेष आदिको पास भी न फटकने दो।

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सदा दृढ़ भावना करो, दृढ़ निश्चय करो कि भगवान् निरन्तर मेरे साथ हैं, मेरे हृदयमें हैं, मैं सदा-सर्वदा भगवान‍्की अजेय अपरिमित शक्तिके द्वारा सुरक्षित हूँ। मुझे किसीका भय नहीं है। पाप-ताप मेरे समीप आ ही नहीं सकते। मैं पवित्र हूँ, निष्पाप हूँ, शक्तिशाली हूँ, तन-मनसे नीरोग हूँ, आनन्दमय हूँ।

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निश्चय करो, मैं जब भगवान‍्के शरण हूँ तब मुझे किस बातकी कमी है! अब कुछ भी चाह नहीं रही। मैं तृप्त हूँ, मैं सन्तुष्ट हूँ, मैं अकाम हूँ, मैं आप्तकाम हूँ, मैं पूर्णकाम हूँ; क्योंकि भगवान‍्ने मुझे अपना मान लिया है। अब भोग-मोक्ष किसी वस्तुकी वासना मेरे मनमें नहीं रही।

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निश्चय करो, भगवान‍्ने जब मुझे अपना लिया; तब मुझे किस बातकी चिन्ता रही! वे मेरे लिये जो कुछ विधान करते हैं मेरे कल्याणके लिये ही करते हैं; क्योंकि वे मेरे ही अपने हैं। उनके समान मेरा हित करनेवाला परम सुहृद्, परम पिता, परम स्नेहमयी जननी, परम प्रियतम स्वामी, परम गुरु, परम आत्मा और कौन होगा?

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निश्चय करो, एक भगवान् वासुदेव ही विश्वरूप हो रहे हैं, विश्वका प्रत्येक पदार्थ उनका स्वरूप है। मैं उनसे अलग नहीं हूँ। मैं शरीर नहीं हूँ। उन्हींका अभिन्न अंश हूँ। मुझे आग जला नहीं सकती, हवा सुखा नहीं सकती, पानी भिगो नहीं सकता, शस्त्र काट नहीं सकते और मृत्यु मार नहीं सकती। मैं नित्य हूँ, सर्वगत हूँ, घन हूँ, अचल हूँ, अमर हूँ और सनातन हूँ।

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ऐसा निश्चय होते ही तुम सबको वासुदेवमय देखकर पाप-तापसे सर्वथा छूटकर निर्भय हो जाओगे, अतुल शक्तिशाली बन जाओगे, तुम्हारा जीवन सफल और कृतकृत्य हो जायगा।

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याद रखो, वास्तवमें ही तुम शरीर नहीं हो, तुम डरनेवाली या मरनेवाली चीज नहीं हो, तुम नित्य हो, तुम चेतन हो, तुम आनन्दमय हो, तुम भगवान‍्के अभिन्न अंश हो, भूलसे दु:ख पा रहे हो; बस, इस भूलको मिटा दो और नित्य परम सुखमय स्वरूपका अनुभव करो।

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जबतक भोगोंमें आसक्ति और पापकार्यमें प्रवृत्ति बनी हुई है, तबतक मनमें भगवान‍्के प्रति असली अनुराग नहीं पैदा हुआ। भगवदनुराग तो दूर रहा, भगवान‍्पर विश्वास होनेपर ही भोगोंमें राग और पापमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती।

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भगवान‍्के हृदयमें आते ही हृदय निर्मल हो जाता है। जैसे सूर्यके सामने अन्धकार नहीं ठहरता, इसी प्रकार भगवान‍्के प्रकाशके सामने विषय और पापका अँधेरा नहीं ठहर सकता। भगवन्नाम और भगवत्प्रेमके भरोसे विषय-सेवन और पाप करनेवाले मनुष्यके हृदयमें भगवान‍्का निवास नहीं हुआ।

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ऐश्वर्य, सौन्दर्य, माधुर्य, ज्ञान, वैराग्य, यश, शक्ति, श्री—सभी भगवान‍्में अपार हैं और वे भगवान् हमारे परम प्रिय सुहृद् हैं, अकारण प्रेमी हैं, आत्मा हैं, ऐसा विश्वास हो जानेपर मनुष्यके मनसे विषय-भोगकी इच्छा सर्वथा नष्ट हो जाती है। जब भोगकी इच्छा ही नहीं तब पाप कैसे हो?

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जो भगवान‍्का आश्रय ले लेता है, उसके लोक-परलोकके सभी कार्योंकी सिद्धि सहज ही हो जाती है, क्योंकि श्रीभगवान‍्में सर्वसिद्धियाँ सब समय मौजूद हैं। इहलौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकारकी उन्नति और सिद्धिके लिये मनुष्यको सर्वतोभावसे केवल विज्ञानानन्दघन सम्पूर्ण ऐश्वर्यमय परम सुहृद् भगवान‍्का ही आश्रय ग्रहण करना चाहिये।

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विश्वासपूर्वक भगवान‍्का आश्रय ग्रहण कर लेनेपर सन्तोष, शान्ति, परम आनन्द, तृप्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार आदि गुण अपने-आप ही आ जाते हैं। भगवान‍्का आश्रयी मनुष्य ही विश्वबन्धु और समस्त विश्वका सच्चा सेवक बन सकता है।

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जिसके मनमें प्रभुपर विश्वास नहीं है, वह कदापि सुख-शान्तिको प्राप्त नहीं हो सकता। सदाचार, ज्ञान, वैराग्य आदि गुण उससे दूर रहते हैं। वह अपने स्वार्थसाधनके लिये भाँति-भाँतिके अनुचित उपायोंका अवलम्बन कर स्वयं दु:खी होता है और विश्वके प्राणियोंको दु:खी करता है।

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पाप, ताप, अशान्ति, उद्वेग, डाह, द्वेष, विषाद, असूया, चंचलता, वैर, हिंसा आदि दोष भगवान‍्में अविश्वासी मनुष्यके हृदयमें घर कर लेते हैं, जिनसे वह जन्म-जन्मान्तरोंमें भी सदा दु:खपूर्ण जीवन बिताता है।

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भगवान् ही हमारे जीवन हैं, हमारे आत्मा हैं इस बातपर विश्वास करो। भगवान‍्के प्रति ही अनुराग करो और एकमात्र भगवान‍्का ही आश्रय ग्रहण करो।

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भगवान‍्के प्रति अनुराग और भोगोंमें अनासक्ति साथ-साथ ही होते हैं।

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भगवान‍्के प्रति अहैतुक अनन्य निष्काम प्रेमसे ही मानव-जीवनकी पूर्णता होती है, परन्तु प्रेम यथार्थ होना चाहिये। भक्ति ही पूर्णता प्राप्तकर प्रेमके रूपमें परिणत हो जाती है, परन्तु वही भक्ति प्रेमरूप बनती है जो ज्ञान-वैराग्यसे युक्त होती है। जिस भक्तिमें भगवान‍्के स्वरूप, उनके महत्त्व और प्रभावका ज्ञान नहीं रहता, वह भक्ति अधूरी होती है और जिस भक्तिमें वैराग्य नहीं होता, उसमें भगवान‍्के साथ पूर्ण अनुराग होनेकी गुंजाइश नहीं रहती। वैराग्य और ज्ञान दोनों ही भक्तिके संरक्षक, वर्धक और सहायक हैं। इन दोनोंके अभावमें भक्तिका प्रभाव शुद्ध अनन्य प्रेमकी ओर न जाकर दम्भ और मोहकी ओर बहने लगता है, जिससे भक्ति दूषित हो जाती है और आगे जाकर वह दम्भके रूपमें परिणत हो जाती है। अतएव ज्ञान-वैराग्यको सहायकरूपमें साथ लेकर ही भक्तिके पवित्र मार्गपर चलकर प्रेमरूपी परम लक्ष्यकी प्राप्ति करनी चाहिये।

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पापको छोटा समझकर उससे कभी बेखबर न रहो, याद रखो, आगकी जरा-सी चिनगारी बड़े भारी शहरको जला देती है, एक छोटा-सा बीज बड़े भारी जंगलका निर्माण कर सकता है। यह मत समझो कि काम-क्रोध-लोभका क्षणिक आवेश हमारा क्या बिगाड़ सकेगा, इनको समूल नष्ट करनेका सतत प्रयत्न करते रहो।

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असावधानी विनाशको बहुत शीघ्र बुला लाती है; सचेत रहो, सावधान रहो, जीवन-महलके किसी भी दरवाजेसे काम-क्रोधरूपी किसी भी चोरको अंदर न घुसने दो और सावधानीके साथ, जो पहले घुसे बैठे हों, उन्हें दृढ़ता और शूरताके साथ निकालनेकी प्राणपणसे चेष्टा करते रहो, सावधानी ही साधना है।

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पापोंके सरदार राग-द्वेष हैं और इनका राजा है अज्ञानजनित अहंभाव, उसे सिंहासनसे उतारकर भगवान‍्का गुलाम बना दो और सिंहासनपर सदाके लिये भगवान‍्को बिठा दो, फिर ये गुलामके गुलाम दोनों राग-द्वेष सीधे हो जायँगे और राजा—भगवान‍्के अनुकूल ही बरतेंगे। द्वेष उन वृत्तियों या व्यापारोंसे लड़ेगा जो भगवान‍्के विरुद्ध होंगे और राग उनसे प्रेम करेगा जो भगवान‍्के अनुकूल होंगे।

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‘अहम्’ का साथी एक और है, वह है ‘मम’। इस ‘मम’ को भगवान‍्के चरणोंमें बाँध दो, यानी यह समझ लो कि बस, भगवान‍्के चरण ही मेरे हैं, ‘मम’ को और कहीं भी भटकने मत दो। फिर इस ‘मम’ के बन्धनमें प्रेमकी डोरी फँसाकर टानो, भगवान् तुम्हारे पास आप ही चले आवेंगे। तुम समस्त पाप-तापोंसे सदाके लिये छूटकर परमानन्दमय बन जाओगे।

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