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भगवत्प्रेम और उसकी प्राप्ति

जिनके मनमें भगवत्प्रेमकी इच्छा जाग उठी है, उन्हें दूसरी सारी इच्छाओंका सहज ही त्याग करना पड़ेगा। ऐसी वस्तुमात्रका ही संग छोड़ना पड़ेगा, जो भगवत्प्रेमके पथमें बाधक हों। फिर चाहे वे वस्तु लौकिक दृष्टिसे कितने ही गौरवकी और परम सुखदायिनी ही क्यों न समझी जायँ। जो प्रियतमके पथका कण्टक है वह चाहे कितना ही आवश्यक या कीमती क्यों न हो, प्रेमीके लिये सर्वथा त्याज्य है।

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ऊँचे-से-ऊँचा पद-गौरव, बड़ी-से-बड़ी सम्पत्ति, दुनियाभरका सम्मान, अटल कीर्ति, अत्यन्त गौरवमयी विद्या, लौकिक विज्ञानका अद‍्भुत आविष्कार, साहित्यकी सरस मार्मिकता, नैसर्गिक कवित्वशक्ति, मनचाहा सुखद परिवार और स्नेहमय हृदयसे पालन-पोषण करनेमें समर्थ माता-पिता आदि कोई भी सहज आकर्षक या परम आवश्यक प्रिय वस्तु यदि भगवान‍्के प्रेमसे रहित है, यदि भगवत्प्रेममें सहायक नहीं है, तो उसके त्यागमें ही भगवत्प्रेमीको सुख मिलता है। जगत‍्का कोई पदार्थ रहे, तो प्रभु-प्रेमको बढ़ानेवाला होकर रहे—प्रभुके पूजनकी सामग्री होकर रहे, नहीं तो उसकी कोई भी आवश्यकता नहीं। जितना शीघ्र उसका संग छूटे, उतना ही मंगल है।

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जो देश, स्थान, समाज, व्यक्ति, संयोग, वियोग, वेष, भाषा, साहित्य, विज्ञान, भोजन, वस्त्र भगवान‍्के प्रेमको जगानेवाला है, भगवत्प्रेमको बढ़ानेवाला है, भगवत्प्रेमसे पूर्ण है, बस, प्रेमी अपना सब कुछ खोकर, किसी भी बातकी तनिक भी परवा न करके उसीको चाहता है, उसीको ग्रहण करता है, उसीमें रमण करता है। यह प्रियतमकी प्रिय स्मृति दिलानेवाला होनेके कारण उसके मनको परम प्रिय है, फिर चाहे लौकिक दृष्टिसे वह पदार्थ कितना ही हीन और दु:खदायी क्यों न माना जाता हो।

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जिसके हृदयमें प्रभुके प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया, जो हृदय निर्मल प्रेमके कारण भगवान‍्के विरहतापसे तप्त हो उठा, उसमें दूसरी वस्तु रह नहीं सकती—समा नहीं सकती। वहाँ अन्यके लिये गुंजाइश ही नहीं रह जाती। जिनका हृदय ऐसा अनन्य प्रभु-प्रेममय हो गया है, उन्हींका जीवन सार्थक है, वे धन्य हैं।

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ऐसे प्रभु-प्रेमकी प्राप्तिमें प्रभुकी अहैतुकी दया और उनकी सुहृदता ही प्रधान उपाय हैं। यों तो प्रभुकी दया सभीपर है, प्रभु जीवमात्रके नित्य सुहृद् हैं, परन्तु उनकी दया और सुहृदताका लाभ वही भाग्यवान् लोग उठाते हैं, जो प्रत्येक अनुकूल और प्रतिकूल स्थितिमें उनकी दया ढूँढ़ते हैं और दया देखनेका यत्न करते हैं। उनकी दयाका रहस्य समझमें आ जानेपर कोई प्रतिकूलता रह ही नहीं जाती। प्रत्येक स्थिति और प्रत्येक पदार्थ प्रभुसे व्याप्त दीखनेके कारण उसके लिये सभी कुछ अनुकूल हो जाता है। न वह प्रतिकूल स्थितिका अनुभव करता है और न कोई इन्द्रिय या मन आदि ही उसके प्रतिकूल होते हैं। जिनपर भगवान‍्की दया होती है, उनपर सबको दया करनी पड़ती है। सबको भगवत्प्रेरणासे स्वाभाविक ही उनके अनुकूल बन जाना पड़ता है। बाधक साधक हो जाते हैं और विघ्न पथप्रदर्शकका काम देते हैं।

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भगवत्कृपा असीम है, इतनी है कि मनुष्य अपनी बुद्धिसे उसकी कल्पनातक नहीं कर सकता। परन्तु वह जितना-जितना अधिक देखता है, उतना-ही-उतना उसे शान्ति और आनन्दकी लहरोंका स्पर्श मिलता है। कुछ आगे बढ़नेपर तो वह आनन्दके असीम सागरमें एकरूप होकर निमग्न हो जाता है।

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सत्संग, सद‍्बुद्धि, सद‍्ग्रन्थ, सदाचार आदि मनुष्यको भगवत् -कृपासे ही प्राप्त होते हैं, बड़ी-बड़ी विपत्तियोंसे और पापोंके गड्ढेमें गिरनेसे मनुष्य भगवत्कृपासे ही बचता है। भगवत्कृपा इतनी है कि मनुष्य तो भूल करनेमें नहीं थकता और भगवत्कृपा उसकी रक्षा करनेमें नहीं चूकती।

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कभी-कभी मनुष्यको ऐसा अवसर प्राप्त होता है, जब कि वह महान् दु:खोंसे घिर जाता है, चारों ओरसे आफतोंके पहाड़ टूटने लगते हैं, उस समय भी वास्तवमें भगवान‍्की दयाका ही कार्य हो रहा है। भगवान‍्का दण्डविधान भी दयासे पूर्ण होता है। उस दण्डसे ही मनुष्य विषयोंके दु:खमय स्वरूपको समझकर सुखमय सच्चिदानन्दकी ओर अग्रसर होता है।

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भगवान् अपने प्रति शत्रुता करनेवालेके साथ भी स्नेहमयी जननीका-सा बर्ताव करते हैं। माताके दण्डविधानमें हृदयका स्नेह सन्निहित रहता है। जब लौकिक माता ही कभी अपने बच्चोंके प्रति निर्दय नहीं हो सकती, तब संसारकी सारी भूत, भविष्य, वर्तमानकी माताओंका स्नेह जिन श्यामसुन्दरके स्नेह-सागरकी एक नन्ही-सी बूँद है, वे भगवान् जीवोंके प्रति कैसे निर्दय हो सकते हैं?

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भगवान‍्की दयाका अवलम्बन जीवके लिये परम अवलम्बन है। इससे बड़ा सहारा और कोई हो ही नहीं सकता। दयापर विश्वास करनेवाले मनुष्योंको तो इसके प्रमाणकी आवश्यकता ही नहीं होती। जिसने भगवान‍्की दयाका आश्रय लिया, वही स्नेहमयी जननीकी सुखद गोदकी भाँति भगवान‍्की निरापद गोदमें सदाके लिये जा बैठा। परन्तु विश्वास बिना ऐसा नहीं हो सकता।

विश्वास हुए बिना भगवान‍्की दयाका मनुष्य आश्रय नहीं लेता, भगवान‍्की दया बिना मनुष्यके मनसे जगत‍्के विषयोंका आश्रय नहीं छूटता और जबतक विषयोंका आश्रय है, तबतक किसी प्रकार भी सच्चे सुख और सच्ची शान्तिकी झाँकी नहीं हो सकती। विषयोंका आश्रय तो दूरकी बात है, विषयोंकी सूक्ष्म वासना भी वास्तविक शान्तिका उदय नहीं होने देती।

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वासनानाशका सर्वोत्तम उपाय है—मनका भगवत्प्रेमकी कामनासे सर्वथा भर जाना और इसका प्रथम साधन भगवान‍्की दयापर विश्वास करना ही है।

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