सद्गुरु
मनुष्य-जीवनका ध्येय है परम कल्याण अर्थात् मोक्षकी प्राप्ति! मुक्तिका मार्ग वही बतला सकते हैं जो मुक्त हो चुके हैं। भगवान्के परम धामका पथ उन्हींको ज्ञात है, जो भगवत्कृपासे वहाँ पहुँच चुके हैं। इसीलिये मोक्ष या भगवत्प्राप्तिके इच्छुक साधकजन तत्त्वज्ञानी भगवत्प्राप्त महापुरुषोंकी खोज कर उनकी शरण लेते हैं और उनके बतलाये हुए मार्गपर चलकर भगवान्के धामतक पहुँचनेका यत्न करते हैं।
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ऐसे ही तत्त्वज्ञानी भगवत्प्राप्त महात्मागण ‘सद्गुरु’ कहलाते हैं। गुरु उसे कहते हैं जिससे मनुष्य किसी ऐसी नयी बातको सीखे, जिसको वह नहीं जानता। इसलिये मनुष्य सभीको गुरु मान सकता है। अवधूतने इसी दृष्टिसे चौबीस गुरु बनाये थे। परंतु सद्गुरु इन सारे गुरुओंसे विलक्षण होता है। वह सत् —परमात्माके पथको जानता है, इसीसे मनुष्य उस सद्गुरुको परम गुरु मानकर, सब कुछ उसके चरणोंपर न्योछावर कर देता है; क्योंकि वह उस सद्गुरुसे ऐसी चीज पाता है, जिसके सामने संसारकी सभी चीजें, सभी स्थितियाँ बहुत ही कम कीमतकी और अत्यन्त तुच्छ हैं।
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सद्गुरु ही गोविन्दको मिलाता है, सद्गुरु ही शिष्यके दु:खोंको अशेष हरण करता है, इसीलिये शिष्यकी दृष्टिमें सद्गुरु ईश्वरसे बढ़कर सेव्य है। इसीसे शास्त्रों और संतोंने सद्गुरुकी अपार महिमा गायी है और गुरु शरणागतिके बिना भगवान्की प्राप्तिको अति दुर्लभ—असम्भव कहा है। बात भी बिलकुल ठीक है, अनुभवी मार्गप्रदर्शक गुरु ही शिष्यको मायाके दुर्गम पथसे पार कर लक्ष्य-स्थानपर ले जानेमें समर्थ है। ऐसे समर्थ गुरुकी जितनी ही पूजा हो, जितना सम्मान हो, जितनी भक्ति की जाय, उतनी ही थोड़ी है; क्योंकि ऐसे गुरुका बदला तो कभी चुकाया ही नहीं जा सकता। ऐसे गुरुका द्रोही नरकगामी न हो तो दूसरा कौन होगा? और ऐसे सद्गुरुकी शरण न लेनेवालेसे बढ़कर मूर्ख तथा मन्दभागी भी और कौन होगा?
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तत्त्वज्ञानी गुरुके बिना परमात्माका तत्त्व कौन बतलावे? इसीलिये गुरुकी आवश्यकता है और गुरुसेवाका महत्त्व है। यही गुरुभक्तिका रहस्य है। परंतु ऐसे सद्गुरु सभी नहीं बन सकते। लोगोंके जीवनको लेकर खेलना साधारण बात नहीं है। यह बहुत ऊँचे अधिकारकी बात है। वस्तुत: परमात्माके रहस्यको सम्यक् प्रकार जाननेवाले महापुरुष ही सद्गुरु-पदपर प्रतिष्ठित हो सकते हैं, इसीसे श्रुतिने ‘श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ’ गुरुके समीप जाकर उनसे ज्ञान सीखनेकी आज्ञा दी है। जो स्वयं अन्धा है, वह दूसरे अन्धेको मार्ग कैसे दिखला सकता है? वह तो खुद गड्ढेमें गिरेगा और जिन्होंने अपनी लाठी उसे पकड़ा रखी है, उनको भी गिरावेगा। आज भारतवर्षमें यही हो रहा है। भोग-विलासमें लगे हुए लोग, इन्द्रियविषयोंमें आसक्त मनुष्य, परमार्थपथके प्रदर्शक गुरु बन गये हैं। इसका परिणाम घोर नरकाग्निमें आहुति पड़ने और उसके अधिकाधिक प्रज्वलित होनेके अतिरिक्त और क्या हो सकता है?
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निष्काम कर्म, भक्ति और ज्ञान—ये तीन ही भगवत्प्राप्तिके प्रधान मार्ग हैं। योग तीनोंमें साथ है, इसीसे ये कर्मयोग, भक्तियोग, और ज्ञानयोग कहलाते हैं। भक्तिको भगवत्-कर्ममें सम्मिलित करनेपर कर्मयोग और ज्ञानयोग—ये दो ही निष्ठाएँ रह जाती हैं। इन मार्गोंसे चलकर परमात्माका साक्षात्कार किये हुए पुरुष यथार्थ कर्मयोगी, भक्त और ज्ञानी हैं। इसी प्रकारके तरे हुए महापुरुष संसार-सागरमें गोता खाते हुए जीवोंको तारनेमें समर्थ होते हैं। जबतक विषयोंमें राग रहता है, तबतक मनुष्य वस्तुत: न तो निष्काम कर्मका आचरण कर सकता है, न भक्त हो सकता है और न ज्ञानमार्गपर ही चल सकता है। राग या आसक्तिसे ही कामना उत्पन्न होती है, कामनावाला मनुष्य निष्काम नहीं हो सकता। विषयोंका प्रेमी या विषयासक्त मनुष्य ईश्वरमें अनन्य प्रेम कभी नहीं कर सकता। इसी प्रकार विषयासक्त पुरुष अद्वैत परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार नहीं कर सकता। तीनों ही मार्गोंके लिये सबसे पहले विषय-वैराग्यकी अत्यन्त आवश्यकता है। वैराग्यकी भित्तिपर ही निष्काम कर्म, भक्ति और ज्ञानकी सुन्दर-सुदृढ़ इमारत खड़ी हो सकती है। दिखलानेके लिये किये जानेवाले विषय-वैराग्यहीन कर्मयोग, भक्ति और ज्ञानसे तो प्राय: पतन ही होता है। वैराग्य ही परमार्थ-साधनका प्राण है।
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स्वरूपसे विषयोंको छोड़कर कठिन संयम और नियमोंका पालन करते हुए भी मनुष्य जब विषयोंके वशमें हो जाता है, बड़े-बड़े साधु-महात्माओंको भी जब कामिनी-कंचनसे और मान-बड़ाईसे सर्वथा पिण्ड छुड़ानेमें बड़ी-बड़ी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ता है, तब उन लोगोंके पतन होनेमें क्या आश्चर्य है—जो रात-दिन भोगोंमें रचे-पचे रहते हैं, धन कमाते हैं, संचय करते हैं, भेंट लेते हैं, परिवारके झमेलोंमें बुरी तरह उलझे रहते हैं, राजाओंका-सा ठाट-बाट रखते हैं, माल-मलीदा खाते हैं, इत्र-फुलेल लगाते हैं, गहनों-कपड़ोंसे दिन-रात शरीर सजानेमें लगे रहते हैं, नाटक-सिनेमा देखते हैं, वेश्याओंके नाच-मुजरे सुनते हैं, शृंगारके ग्रन्थ और गंदे उपन्यास पढ़ते हैं, राजसी ठाटसे कश्मीर और नैनीतालका सफर करते हैं, स्वयं भगवान् बनकर सेवक-सेविकाओंसे पैर पुजवाते हैं, खुशामदियोंसे घिरे रहते हैं और अभिमानके नशेमें चूर रहते हैं!
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परमात्माको प्राप्त करनेकी आशासे ऐसा मोहजालसमावृत, विलासविभ्रमरत, अनेकचित्तविभ्रान्त, स्वेच्छाचारी, कामभोगपरायण लोगोंको गुरु मानना या गुरु बनाना और श्रीगोविन्दको छोड़कर गोविन्दकी प्राप्तिके लिये इनकी पूजा करना वस्तुत: मोह ही है। ऐसे लोगोंसे परमार्थकी आशा ही क्योंकर की जा सकती है? जो भगवान्के नामपर भोगोंकी सेवामें लगे हुए हैं, जिनके हृदयमें नन्दनन्दनकी जगह धन और पार्थिव रूप बसा हुआ है, वे मायामोहित प्राणी लोगोंको मायासे मुक्त कैसे कर सकते हैं? ईश्वरके नाते तो प्राणिमात्रको प्रणाम करना धर्म है, परन्तु सद्गुरु समझकर परमात्माको प्राप्त करनेकी आशासे ऐसे लोगोंके पैर पूजने और इनसे कानोंमें मन्त्र फुँकवानेमें सिवा हानिके तनिक भी लाभ नहीं है।
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कानमें मन्त्र फूँकनेसे ही उद्धार नहीं हो जाता। उद्धार होता है दो उपायोंसे—सद्गुरु-प्रदत्त मन्त्रके सम्यक् विधिवत् अनुष्ठानसे अथवा भगवत्कृपा-प्राप्त शक्तिसम्पन्न सद्गुरुकी तप:शक्तिसे। सम्भवत: इन्हीं दोनों कारणोंसे ईश्वरस्वरूप तत्त्वज्ञानी महात्मा पुरुषोंसे मन्त्र ग्रहण करनेकी प्रथा चली होगी, जो इस दृष्टिसे वस्तुत: बहुत ही लाभकारी थी; परन्तु आज ऐसे सद्गुरुओंका प्राय: अभाव है। आज गली-गलीमें डोलनेवाले लाखों गुरुओंमें बहुत ही थोड़े ऐसे सच्चे सद्गुरु होंगे। ऐसी स्थितिमें कान फुँकवाने और केवल जिस किसीको गुरु माननेसे ही उद्धार हो जायगा, ऐसी धारणा रखनेवाले मनुष्य बहुत अंशमें ठगे ही जाते हैं। क्योंकि न तो मन्त्रदान करनेवाले लोग स्वयं मन्त्रमें या मन्त्रके देवतामें श्रद्धा रखते हैं (रखते होते तो वे उसीके परायण होकर रहते), न शिष्यगण साधन करनेका श्रम उठाना चाहते हैं और न मन्त्रदाताओंमें ही वह शक्ति है कि जिसके प्रभावसे मन्त्र देते ही अपने-आप शिष्यका उद्धार हो जाय।
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एक बातसे तो बहुत ही सावधान रहना चाहिये। हिंदू-स्त्रियोंके लिये पुरुष-जातिमें दो ही ऐसे गुरु हो सकते हैं, जिनके चरण-स्पर्श करनेका उन्हें अधिकार है, एक विवाहित पति और दूसरे समस्त विश्वके पति ईश्वरोंके भी ईश्वर—परमेश्वर। इन दोको छोड़कर वे सन्मार्गकी शिक्षा तो किसी भी योग्यतम चरित्रवान् वैराग्यसम्पन्न पुरुषसे ले सकती हैं; परन्तु किसीके चरण-स्पर्श करने या किसीसे कानमें मन्त्र फुँकवानेकी उन्हें आवश्यकता नहीं है, चाहे कोई वास्तविक महात्मा या महापुरुष ही क्यों न हो। चरण-स्पर्श करने या मन्त्र ग्रहण करनेसे बढ़कर लाभ सच्चे महापुरुषकी शास्त्रसम्मत निर्दोष आज्ञाके पालनसे ही हो जायगा। इसमें किंचित् भी सन्देह नहीं। सच्चे महापुरुषकी आज्ञा निर्दोष ही होगी और सच्चा महापुरुष भी उसीको समझना चाहिये जिसकी आज्ञा विषयोंमें फँसानेवाली और पापमयी न हो। मन्त्रदानका अर्थ मार्ग बतलाना ही है, कान फूँकना नहीं।
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गुरु या मार्गदर्शककी जरूरत तो सबको रहती ही है, इससे अपने मनमें किसीको गुरु माननेमें आपत्ति नहीं; परन्तु आजके बिगड़े जमानेमें किसीके साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध जोड़नेके पहले आत्मसमर्पण करनेके पूर्व कुछ समयतक परीक्षाके भावसे नहीं, किन्तु साधनाके भावसे उसके बताये हुए साधनको और उसके संगको करके देखे। यदि दैवी सम्पत्तिमें वृद्धि हो या कम-से-कम आसुरी सम्पत्तिके भाव न बढ़ें तो ठीक है, यदि उसके संगसे आसुरी सम्पत्ति बढ़े, काम या लोभकी जागृति हो तो सावधान हो जाय। जो गुरु प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रीतिसे अपने आरामके लिये धन या स्त्रीकी माँग करे, उससे तो जरूर ही सावधान हो जाय।
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भारतवर्षमें आज भी सच्चे साधुओंका और ईश्वरप्राप्त महापुरुषोंका अभाव नहीं है। तीव्र उत्कण्ठाके साथ सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापी भगवान्से ऐसे सद्गुरुकी प्राप्तिके लिये प्रार्थना करनी चाहिये। यदि आपकी अभिलाषा सच्ची और तीव्र होगी तो सच्चे संत अवश्य ही मिलेंगे। अधिक क्या, स्वयं भगवान्को संत बनकर आपको उपदेश प्रदान करनेके लिये आना पड़ेगा।
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ईश्वरका सतत स्मरण, अपने अंदर सद्गुणोंकी वृद्धि और भोगोंसे वैराग्य—इन तीन बातोंको बढ़ाते रहिये। ईश्वरके राज्यमें अन्याय नहीं होता। यदि आपकी सच्ची साधना होगी तो आपकी स्थितिके अनुसार आपको सद्गुरु अवश्य मिल जायँगे।
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गुरुमें भक्ति और श्रद्धा अवश्य करनी चाहिये। जो गुरुका भक्त नहीं होगा, वह भगवान्का भक्त कैसे होगा? परन्तु इस गुरुभक्तिका आरम्भ गुरुजनोंकी—माता-पिताकी भक्तिसे करना चाहिये। जो माता-पिताको नहीं मानता वह गुरु और भगवान्को सहजमें नहीं मानेगा। प्रह्लादका उदाहरण देकर माता-पिताकी आज्ञा न माननेका समर्थन करना सहज है; परन्तु प्रह्लाद बनना बड़ा ही कठिन है। प्रह्लाद या भरतके लिये माता-पिताकी आज्ञाका उल्लंघन करना धर्म था, परन्तु विषयानुरागी, स्वार्थी, जिद्दी, लोभी और क्रोधी मनुष्यका वैसा करने जाना पतनके स्रोतमें ही बहना है।
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जो मनुष्य सदाचारी है, दैवी सम्पदाको बढ़ानेमें सदा तत्पर है, माता-पिता-गुरुजनोंका आज्ञाकारी है, सदा सत्य बोलता है, क्रोध नहीं करता, ब्रह्मचर्यका पालन करता है, संयमी है, तपस्वी है, स्वधर्मपरायण है, दु:खी-दीन प्राणियोंकी सेवामें तन, मन, धनसे लगा रहता है; दया और प्रेमसे जिसका हृदय छलकता है, जो दूसरोंकी भलाईके लिये स्वार्थका त्याग प्रसन्नतासे करता है, परमार्थमें ही स्वार्थ समझता है, परायी स्त्रीको माता समझता है, भोग-विषयोंसे अनासक्त है और आठों पहर यथासाध्य भगवान्का स्मरण करता है तथा प्राणिमात्रमें परमात्माको देखकर सबका सम्मान करता है, वही पुरुष यथार्थ आत्मोन्नति कर रहा है। ऐसे पुरुषका संग सदा ही मंगलकारक है, चाहे वह मुक्त न हो। ऐसे पुरुषको गुरु माननेमें या उससे सत्-शिक्षा और सत्परामर्श लेनेमें सदा ही लाभ है। वह मुक्त होगा तो मुक्तिधामतक पहुँचा देगा। अन्यथा जहाँतक पहुँचा है वहाँतक तो आगे बढ़ाकर ले ही जायगा।