गीता गंगा
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दोष स्वभावमें नहीं हैं

काम, क्रोध, लोभ, असत्य, ईर्ष्या, द्वेष, मत्सर, वैर, अभिमान, नास्तिकता आदि दोष तुम्हारे स्वभावमें नहीं हैं। ये बाहरी हैं, इनको भूलसे तुमने अपने अन्त:करणमें स्थान दे रखा है, ये चोर हैं, बटमार हैं, हिंसक हैं, तुम्हारे शत्रु हैं। मित्र बनकर मनमें बैठे हुए तुम्हारा सत्यानाश कर रहे हैं। इन्होंने तुम्हें भ्रममें डालकर तुम्हारी ऐसी समझ कर दी है मानो मन इनका अपना घर ही है। मनमें ये रहेंगे ही। बात ऐसी नहीं है। अतएव सावधान हो जाओ और अपने स्वरूपको सँभालो।

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तुम परमात्माके सजातीय हो, परमात्माके सनातन अंश हो, दोष और विकारोंसे रहित हो, बड़े बलवान् हो। इन शत्रुओंके शत्रुस्वरूपको समझकर, इनपर अपना बलप्रयोग करो और इन्हें सदाके लिये अपने मनसे निकाल दो।

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निश्चय करो—मैं परम शुद्ध हूँ, सर्वथा विकाररहित हूँ, मुझमें काम-क्रोधादि आ ही नहीं सकते। मुझमें ये बिलकुल नहीं हैं। यदि कहीं लुके-छिपे दिखायी दें तो तुरंत मार डालनेकी धमकी दो और अपना बल दिखाकर डराकर भगा दो। निश्चय रखो, ये तभीतक रहते हैं, जबतक तुम इनके सामने अपना शक्तिमान् रूप प्रकट नहीं करते। जहाँ तुम्हारे यथार्थ रूपको इन्होंने देखा, वहीं ये सब भाग जायँगे।

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तुम पूर्णकाम हो, अतएव तुममें कामना नहीं हो सकती। तुम्हारा कोई पराया नहीं है, इससे तुमको किसीपर क्रोध नहीं हो सकता। तुम नित्यतृप्त आनन्दमय हो, इससे तुममें लोभ नहीं रह सकता। तुम सत्यस्वरूप हो, अतएव असत्यकी छाया भी तुम्हें स्पर्श नहीं कर सकती। ईर्ष्या, द्वेष, मत्सर और वैर तो दूसरेसे ही होते हैं। सबमें एक ही आत्मतत्त्व पूर्ण है, तब इनको स्थान ही कहाँ है? अभिमान किसी वस्तुका होता है, तुममें कोई वस्तु है ही नहीं, फिर अभिमान कहाँसे आता? नास्तिकता तो आत्माके नित्य अस्तित्वमें है ही कहाँ? सोचो! विचारो!! और इन दोषोंको जल्दी-से-जल्दी निकालकर अपने शुद्धस्वरूपमें स्थिर हो जाओ।

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