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शुद्ध वायुमण्डल

शरीर, वाणी और मनसे न तो स्वयं ऐसा कोई कार्य करो, जिससे वायुमण्डलमें दूषित भाव फैले और न ऐसे दूषित वायुमण्डलमें रहो, जिसका प्रभाव तुम्हारे शरीर, वाणी और मनपर हो। मनुष्य जो कुछ भी शरीरसे कर्म करता है, वाणीसे शब्दोच्चारण करता है और मनसे चिन्तन करता है, उसका प्रभाव वहाँके वायुमण्डलपर पड़ता है, उसके परमाणु वहाँके वायुमण्डलमें न्यूनाधिकरूपसे फैल जाते हैं, जो उस वायुमण्डलमें रहनेवाली प्रत्येक वस्तुपर अपना प्रभाव डालते हैं।

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समस्त आकाशमें सर्वत्र वायु व्याप्त है। वायु ही शरीरके अंदर प्राणरूपसे रहता है। श्वासका अंदर जाना और बाहर निकलना वायुका ही कार्य है। यह अंदर जाने-आनेवाला वायु अंदर जाते समय बाहरके परमाणुओंको अंदर ले जाता है और बाहर निकलते समय भीतरके परमाणुओंको बाहर लाकर वहाँके वायुमण्डलमें छोड़ देता है।

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भीतर गये हुए परमाणु जितनी अधिक या कम शक्तिके होते हैं, उतना ही अधिक या कम प्रभाव वे उस मनुष्यके मनपर डाल सकते हैं। परन्तु उन परमाणुओंको ग्रहण करनेवाला मन यदि उनसे प्रतिकूल भावोंके शक्तिशाली परमाणुओंसे भरा होता है तो उसपर उनका असर बहुत ही कम होता है, वे टकराकर वापस बाहर निकल जाते हैं, तथापि मनको स्पर्श कर आनेका कुछ-न-कुछ असर होता ही है, चाहे उस समय उसका पता न लगे। बार-बार यदि वैसे ही परमाणु अंदर जाते रहेंगे तो कालान्तरमें मनके अंदर रहे हुए प्रतिकूल परमाणुओंको दबाकर या नष्ट करके वे अपना पूरा अधिकार विस्तृत कर लेंगे।

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बाहरसे जानेवाले परमाणुओंके अनुकूल परमाणु यदि अंदर भी होते हैं तो उनका शीघ्र और अधिक असर होता है। जैसे किसीके मनमें धन या स्त्रीको प्राप्त करनेकी वासना है और इसी प्रकारकी वासनाको बढ़ानेवाले परमाणु श्वासके साथ वायुके सहारेसे अंदर आवें तो इनका असर बहुत शीघ्र होता है और अधिक होता है।

श्वासके साथ अंदरसे बाहर जानेवाले परमाणु भी अपने न्यूनाधिक बलके अनुसार ही वायुमण्डलमें अधिक या कम दूरीतक फैलते हैं। जिनके मनकी संकल्पशक्ति बहुत बढ़ी हुई होती है, वे अपने मानसिक भावोंको बहुत दूरतक भेज सकते हैं और अपनेसे कम संकल्पशक्तिवाले अधिकसंख्यक मनुष्योंके मनपर प्रभाव डाल सकते हैं। जिनकी मानसिक शक्ति कमजोर है, उनके विचार बाहर जाकर न तो बहुत दूरतक फैल सकते हैं और न अधिकसंख्यक लोगोंके मनोंपर प्रभाव ही डाल सकते हैं। यहाँ एक बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि संकल्पशक्ति प्राय: उन्हींकी अधिक बढ़ती है जिनके संकल्प संयमपूर्ण, सत् या सात्त्विक होते हैं।

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परन्तु बुरे संकल्पोंका भी कम प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि आजकल तो वायुमण्डलमें प्राय: वैसे ही संकल्प अधिक फैले हुए रहते हैं और लोगोंके मन भी उन्हींके अनुकूल परमाणुओंसे भरे हुए हैं। यह सिद्धान्त है कि ग्रहण करनेवाला अपने सजातीय या अनुकूल पदार्थोंको ही शीघ्र और अधिकतासे ग्रहण करता है।

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जिन लोगोंके मनोंमें विषाद, शोक, हिंसा, द्वेष, वैर, अभिमान, लोभ, दम्भ, क्रोध, काम, कायरता, नास्तिकता, ईर्ष्या और भय आदि दूषित संकल्प भरे होते हैं, वे स्वयं अपना ही अनिष्ट नहीं करते, प्रत्युत अपने संकल्पोंको वायुके द्वारा बाहर भेजकर—आस-पासके सारे वायुमण्डलको दूषित कर देते हैं, जिससे वहाँ रहनेवाले सभी मनुष्योंके मनपर उन दूषित संकल्पोंका किसी-न-किसी अंशमें असर होता है और होते-होते वहाँका बाहरी और भीतरी वायुमण्डल इतना अधिक दूषित हो जाता है कि निर्दोष सरल मनके नये मनुष्योंको वहाँ आकर प्राय: उसी प्रकारका बननेके लिये बाध्य होना पड़ता है। कई खास-खास स्थानों या महकमोंमें ऐसी बातें प्राय: प्रत्यक्ष देखी जाती हैं।

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जिस स्थानमें सच्चे साधु लोग अधिक बसते हैं, चाहे वे वाणीसे कोई भी उपदेश न देते हों या किसीसे मिलते-जुलते भी न हों, उस स्थानका वायुमण्डल शुद्ध और साधु भावोंसे भरा रहता है। जहाँ इसके विपरीत चोर-डाकू, व्यभिचारी, कपटी, कामी और क्रोधी मनुष्य रहते हैं, वहाँका वायुमण्डल उन लोगोंके ऊपरसे अच्छे-अच्छे उपदेशकी बातें कहनेपर भी दूषित रहता है। इसका पता समझदार मनुष्यको भलीभाँति लग जाता है, इसीलिये ऐसे महात्माओंके निवासमात्रमें परम लाभ माना गया है। जो सर्वथा लोकसमाजसे अलग और मौन रहते हैं, परन्तु जिनका अन्त:करण केवल भगवद्भावोंसे भरा होता है, उनके अंदरसे निकली हुई भगवद्भावोंकी किरणें सारे वायुमण्डलमें फैलकर वहाँ सर्वत्र सदाचार, साधुशील और भगवत्प्रेमकी ज्योति छिटका देती हैं और उसके प्रकाशको पाकर पामर प्राणी भी कृतार्थ हो जाते हैं।

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वायुमें दो गुण हैं—शब्द और स्पर्श। वायु स्वयं अन्य किसी गुणवाला न होनेपर भी जहाँ स्पर्श करता है, वहींके परमाणुओंको लेकर उनको इधर-उधर बिखेर देता है। सुगन्धके स्थानसे सुगन्ध और दुर्गन्धके स्थानसे दुर्गन्ध लेकर उसे चारों ओर फैला देता है। इसी प्रकार सुन्दर संगीत-ध्वनि अथवा कर्कश कठोर शब्दको भी पकड़कर दूर-दूरतक उनका विस्तार कर देता है। इन बाहरी चीजोंके फैलानेमें ही इसका कार्य समाप्त नहीं हो जाता, यह मनके अंदरके भावोंको भी स्पर्श करता है और उन्हें ग्रहणकर बाहर लाकर इधर-उधर फैलाता है। यह अच्छे-बुरे भावोंके परमाणुओंको बाहरसे भीतर और भीतरसे बाहर ले जाया करता है।

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यह क्रिया वायुमें सदा-सर्वदा होती ही रहती है, इसलिये जहाँ संत बसते हैं वहाँका वायुमण्डल शुद्ध तथा असंतोंके निवासस्थलका अशुद्ध माना गया है। तीर्थोंमें ऐसे संतजन ही रहा करते थे, इसीसे उनको स्वयं शुद्ध तथा दूसरोंको शुद्ध करनेवाला माना गया है।

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श्रीरामचरितमानसमें कहा है कि काकभुशुण्डिजीके आश्रमके चारों ओर चार-चार कोसतक काम-क्रोधादि विकार नहीं आ सकते थे। अब भी कई महात्माओंकी सन्निधिमें पापके विचारोंका रुक जाना या मनमें बिलकुल ही न उठना देखा-सुना गया है। जब मनके अंदर रहनेवाले अच्छे-बुरे विचारोंसे भी वायुमण्डल प्रभावित हो सकता है; तब वाणी और शरीरकी क्रियाओंका वायुमण्डलपर असर होना तो आसान बात है। अतएव काकभुशुण्डिजीके आश्रममें जहाँ मनके सर्वथा भगवद्भक्त होनेके साथ ही नित्य हरि-कथा हुआ करती थी, वैसा होनेमें कोई आश्चर्य या अनहोनी बात नहीं माननी चाहिये।

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जिस प्रकार मनमें कभी बुरे विचार नहीं लाने चाहिये उसी प्रकार वाणीसे भी किसी बुरे शब्दका उच्चारण नहीं करना चाहिये। अश्लील, असत्य, अहितकर, व्यर्थ, अप्रिय, अपमानजनक, क्रोधभरी, दर्पपूर्ण, नास्तिकताका समर्थन करनेवाली, भय और अभिमानसे भरी वाणी कभी नहीं बोलनी चाहिये। ऐसी वाणीका उच्चारण करनेसे वहाँका वायुमण्डल दूषित होता है। जिसको लक्ष्य करके ऐसी वाणी बोली जाती है, उसपर तो बुरा असर होता ही है, परन्तु जहाँतक वह ध्वनि जाती है वहाँतकके प्राणियोंके मनोंपर वह बहुत बुरा असर डालती है। जैसे शूरताकी वाणीसे मनुष्यमें शूरता आती है, वैसे ही कायरोंकी भयभरी वाणी लोगोंको कायर बना देती है। रणवाद्य और चारणोंकी जोशीली कविताओं और संतोंकी वैराग्यकी बानियोंका अद‍्भुत प्रभाव प्रत्यक्ष देखा जाता है।

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इसी प्रकार शरीरसे—किसी भी इन्द्रियसे ऐसी कोई चेष्टा नहीं करनी चाहिये जो वायुमण्डल दूषित करनेवाली हो। सारांश यह कि मनको सदा शुद्ध संकल्पों और सत्-विचारोंसे भरे रखो, वाणीके द्वारा सदा सत्य, हितकर, मधुर और उत्तम वचन बोलो और शरीरसे सर्वदा-सर्वथा उत्तम क्रिया करो। इसीमें अपना और जगत‍्का हित है। इसी प्रकार जहाँ ऐसे शुद्ध मन, वाणी और शरीरवाले सज्जन महानुभाव रहते हों, उन्हींके समीप रहो और उन्हींका संग करो। न स्वयं बुरा वायुमण्डल पैदा करो और न बुरे वायुमण्डलमें निवास ही करो।

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जो अपने मनमें वैरकी भावना रखता है वह जगत‍्में अपने वैरी उत्पन्न करता है; जो प्रेमके संकल्प करता है वह प्रेमियोंकी संख्या बढ़ाता है; जो भोगोंमें मन लगाता है, भोगोंमें रचा-पचा रहता है वह लोगोंमें भोगासक्ति बढ़ाता है; जिसके मनमें शूरता है वह शूरताका वातावरण पैदा करता है; जो कायर है वह कायरता फैलाता है; जो भक्त है वह भक्ति पैदा करता है; जो अभक्त है वह नास्तिकता फैलाता है; जो भयसे काँपता है वह आस-पास भयका विस्तार करता है; जो निर्भय रहता है वह सबको निर्भय बनाता है; जो सुखी है वह जगत‍्को सुखी करता है; जो रात-दिन शोक, दु:ख और विषादमें डूबा रहता है वह सबको यही चीजें देता है तथा जो भगवान‍्में प्रेम करता है वह भगवत्-प्रेमियोंकी संख्या बढ़ाता है। अतएव सब विषयोंको सर्वदा दूरकर केवल भगवत्प्रेमसे ही हृदयको सर्वथा भर दो। कदाचित् ऐसा न कर सको तो मनमें सदा सात्त्विक शुद्ध आदर्श विचारोंका पोषण करो और उन्हींको बढ़ाओ। ऐसा करनेसे तुम्हारे आस-पासका वायुमण्डल सात्त्विक बन जायगा। सात्त्विक विचारोंकी क्रमश: वृद्धि होते रहनेसे तुम्हारी संकल्पशक्ति बढ़ जायगी, फिर तुम अपने सद्विचारोंको बहुत दूर-दूरतक लोगोंके हृदयकी गहराईतक पहुँचाकर सबको सात्त्विक बना सकोगे। तुम सुखी बनोगे और बिना ही किसी उपदेश-आदेशके स्वभावत: ही जगत‍्के बहुत बड़े भागको भी सुखी बना सकोगे।

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वे सात्त्विक और शुद्ध विचार ये हैं—अहिंसा, सत्य, शौच, दया, प्रेम, दान, क्षमा, संयम, त्याग, वैराग्य, निरभिमानता, एकान्तप्रियता, कोमलता, सरलता, नम्रता, सेवाभाव, सहिष्णुता, परधर्मके प्रति सम्मान, द्वेषहीनता, समता, सन्तोष, गुणग्राहकता, दोषदृष्टिका अभाव, सुहृद्पन, ममता तथा अहंकारका अभाव, मान-बड़ाईकी सर्वथा अनिच्छा, सर्वभूतहित और भगवत्परायणता आदि।

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बस, मन-वाणी-शरीरसे निरन्तर सावधानी और लगनके साथ इन्हीं सब सद‍्गुणों और सत्यसंकल्पोंको बढ़ाते रहो। स्वयं तर जाओगे और असंख्य प्राणियोंको तारनेमें सहायक होओगे।

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