दोषोंसे बचनेके उपाय
बुरे संगसे सदा दूर रहो। बुरा संग बुरे मनुष्यका ही नहीं होता; बुरी जगह, बुरा अन्न, बुरा ग्रन्थ, बुरा दृश्य, बुरी बात, बुरा वातावरण आदि सभी बुरे संग हैं। लगातारके बुरे संगसे बुरे परमाणुओंके द्वारा अंदरके अच्छे परमाणु जब दब जाते हैं, तब बुरी बातें स्वाभाविक ही अच्छी मालूम होने लगती हैं। जैसा मन होता है वैसी ही दृष्टि होती है और जैसी दृष्टि होती है वैसा ही दृश्य दीखता है। सच्चे साधुको प्राय: सभी साधु दिखायी पड़ते हैं, चोरोंको चोर दीखते हैं, कामीको सब कामी और लोभीको सब लोभी दीखते हैं।
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बुरे वातावरणमें रहते-रहते चित्त बुरा हो जाता है, फिर उसमें बुरे संकल्प उठते हैं; जिसके चित्तमें बुरे संकल्प उठते हैं, उसके समान दु:खी तथा अपराधी और कौन होगा? क्योंकि वह अपने चित्तके बुरे संकल्पोंको जगत्में फैलाकर दूसरोंको भी बुरा बनाता है।
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चित्तमें सदा सत्-संकल्प रहने चाहिये। सत् -संकल्पके लिये सत्-संग, सत्-आलोचन, सद्ग्रन्थपाठ, सद्गुरुसेवन आदिकी आवश्यकता है। जिसका चित्त सत्-संकल्पसे भरा है, वही सुखी और परोपकारी है; क्योंकि वह अपने संकल्पोंको जगत्में फैलाकर दूसरोंको भी सन्मार्गपर लाता है।
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यह निश्चय करो कि मेरे चित्तमें कभी बुरी कल्पना नहीं आ सकती, मैं पवित्र हूँ, भगवान्की कृपासे मेरा हृदय शुद्ध हो गया है, सर्वशक्तिमान् भगवान्का अभय हाथ सदा मेरे सिरपर है। मैं उनकी छत्रच्छायामें हूँ। पाप-ताप मेरे पास नहीं आ सकते।
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यह निश्चय करो कि मैं दु:खके संसारसे परे हूँ। मुझमें दु:ख नहीं आ सकता। जगत्में मेरे प्रतिकूल कुछ नहीं हो सकता; सबमें अनुकूल भावना करो और नित्य ही सुखी रहो।
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रोगकी अवस्थामें यह निश्चय करो कि बीमारी शरीरको है, मैं तो नित्य निरामय हूँ; मुझको कभी कोई रोग नहीं हो सकता। मैं सबका द्रष्टा हूँ। शरीर क्षणभंगुर है, नाशवान् है, किसी दिन नाश होगा ही। मैं अज हूँ, अविनाशी हूँ, अमर हूँ।
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शोकके प्रसंगमें यह निश्चय करो कि मेरे लिये कभी शोकका प्रसंग आ ही नहीं सकता, प्रकृति जादूभरी है और परिवर्तनशील है, इसमें उपजने और नष्ट होनेका खेल सदा होता ही रहता है। रूप बदलता है, मूल वस्तु कभी नष्ट नहीं होती, फिर मैं शोक क्यों करूँ? अथवा यह निश्चय करो कि मेरे स्वामी भगवान् जो कुछ विधान करते हैं, उसमें मेरा परम कल्याण है, यह ध्रुव सत्य है। शोक करना स्वामीके विधानपर असन्तोष प्रकट करना है जो सर्वथा अनुचित है। वस्तुत: भगवान् हमारी भलाईके लिये ही सब कुछ करते हैं।
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कामके प्रसंगपर यह विचार करो कि जगत्की सारी सुन्दरता मेरे प्रभुकी सुन्दरताका एक कण है। मैं मोहवश उस परम सुन्दरको छोड़कर हाड़-मांसके थैलेपर आसक्त हो रहा हूँ, यह अज्ञान है। मैं अपने प्रभुकी कृपासे इस अज्ञानके वश नहीं हो सकता। मैं निर्मल हूँ, मैं असंग हूँ, मेरे हृदयमें राम हैं, मैं रामका हूँ, राम मेरे हैं, राम मुझे अपना स्वरूप मानते हैं, अत: मेरे निकट काम नहीं आ सकता। मेरे रामकी सुन्दरताके सामने सारी सुन्दरताएँ तुच्छ हैं, सूर्यके सामने जुगनूके समान भी नहीं हैं।
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क्रोधका अवसर आनेपर चुप रह जाओ और विचार करो जगत्में सब ओर भगवान्का विस्तार है। भगवान् ही विश्वरूपमें प्रकाशित हैं, मैं भगवान्पर क्रोध कैसे करूँ, उनका अपमान कैसे करूँ! और निश्चय करो कि मैं क्रोधसे परे हूँ। मेरा हृदय नित्य क्षमासे पूर्ण है, सारे प्राणियोंके प्रति प्रेम, मैत्री, क्षमा और दया करना ही मेरा स्वभाव है। कठोर-से-कठोर वचन और व्यवहारको मैं सहर्ष सहन करूँगा। मेरे मनमें किसीके प्रति द्वेष नहीं है, इसलिये मैं क्रोधके वश कभी नहीं हो सकता।
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लोभकी बात सामने आनेपर मनमें विचार करो और निश्चय करो कि मैं पूर्ण हूँ, मैं किसीका धन नहीं चाहता। मेरे लिये जगत्में लुभानेवाली वस्तु कोई भी नहीं है। मुझमें कोई कामना, आकांक्षा नहीं है, फिर किसी चीजके लिये मुझको लोभ कैसे हो सकता है?
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कुछ समय प्रतिदिन एकान्तमें बिताओ, मौन रहो। शरीरका एकान्त और वाणीका मौन भी बहुत ही आवश्यक और लाभकारी है। एकान्त और मौन-अवस्थामें भगवान्का ध्यान और भगवन्नामका जप करो। मनके एकान्त और मौनके लिये साधन करो। मनमें किसी भी संकल्पका न उठना ही मनका एकान्त और मौन है। चित्त सर्वथा निर्विषय होकर केवल अचिन्त्य परमात्माके स्वरूपमें लग जाय। संसार और शरीरका कहीं मनमें पता ही न रहे।
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वाणीका इतना संयम तो अवश्य ही कर लो—बिना कार्यके अनावश्यक बातें बिलकुल न करो, किसीकी निन्दा-चुगली न करो, भरसक किसीकी स्तुति भी न करो, अश्लील शब्दोंका उच्चारण न करो, कड़ुए शब्द न बोलो, असत्य और दूसरोंका अहित करनेवाले शब्द तो कभी भी मुँहसे न निकालो।
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मनमें भय, अशान्ति, उद्वेग और विषादको स्थान न दो। भगवान्की दया अथवा आत्माकी पवित्रता और नित्यतापर विश्वास रखकर सदा शान्त, निर्भय और प्रसन्न रहनेका यत्न करो।
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उत्तेजनासे सदा बचे रहो, धीरज कभी न छोड़ो। उत्तेजना और अधैर्यसे शारीरिक और मानसिक रोग होते हैं, जिनसे छूटना मुश्किल हो जाता है।
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किसीका अनादर न करो, किसीसे घृणा न करो, किसीका जी न दुखाओ। स्वयं सह लो, परन्तु स्वार्थवश किसीको कष्ट सहनेके लिये बाध्य कभी न करो। किसी भी अच्छे काममें लगे हुए पुरुषका दिल न तोड़ो, उसे उत्साह दिलाओ और यथासाध्य उसके अच्छे काममें सहायता दो।
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गरीब, दीन, रोगी और आतुरोंमें भगवान्को विशेषरूपसे देखकर उनकी सेवा करो और बड़े आदर और प्रेमके साथ उनसे मिलो, उन्हें अपनाओ और यथासाध्य उनके दु:ख दूर करनेमें सहायता दो और उन्हें अपना बनाकर प्रभुके भजनमें लगा दो।
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हृदयकी सरलतामें देवत्व या ऋषित्व है और कपटमें असुरत्व है। मनको सरल बनाओ। बात न बना सको तो चिन्ता नहीं। सम्भव है कपटी और वाक्-चतुर मनुष्योंकी नजरमें तुम मूर्ख समझे जाओ! अथवा लोगोंकी भ्रमपूर्ण दृष्टिसे तुम ऐहिक उन्नति न कर सको, परन्तु निश्चय रखो कपट-चातुरीसे अपनेको बुद्धिमान् सिद्ध करनेवालोंसे तुम निश्चय ही बहुत ऊँची स्थितिपर हो।
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एक महात्माने कहा था—आजकल प्राय: लोगोंको ऊपरसे सुहावनी बातें कहनी आ गयी हैं, परन्तु हृदयमें दम्भ-कपट भर गया है। पहलेके लोग चाहे बोलना न जानते हों परन्तु उनका हृदय सरल था। वे अपना दोष छिपाना नहीं जानते थे। सावधान, दम्भी बनकर सुहावनी वाणी बोलनेवाले सभ्य बननेकी अपेक्षा सरल ग्रामीण बनना सच्ची उन्नतिका लक्षण है। सरलतामें पवित्रता है और कपटमें अपवित्रता है। कपटी मनुष्य दूसरेको जितना नुकसान पहुँचाता है उससे कहीं अधिक अपनी हानि करता है।
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अपने पापोंको छिपाओ मत और पुण्योंको प्रकट न करो। छिपानेसे पाप बढ़ेंगे और प्रकट करनेसे पुण्य घटेंगे। पुण्यको कपूर समझो, बोतलका मुँह खोलकर रखोगे तो उड़ जायगा। पाप बुरी वस्तु है, छिपाकर रखोगे तो अन्दर-ही-अन्दर जहरीली गैस पैदा करके हृदयके तमाम शुद्ध भावोंको नष्ट कर देगा।
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जीवनके एक-एक क्षणको मूल्यवान् समझो और बड़ी सावधानीके साथ प्रत्येक क्षण भगवत्-चिन्तन या आत्मचिन्तन करते हुए लोकहितके कार्यमें बिताओ। तुम्हारा कोई क्षण ऐसा नहीं जाना चाहिये, जिसमें किसीका तुम्हारे द्वारा अहित हो जाय। अहित वाणी और शरीरसे ही होता हो सो बात नहीं है, यदि तुम्हारे मनमें बुरा विचार आ गया तो मान लो तुम अपना और दूसरोंका अहित करनेवाले हो गये। बुरा विचार कभी मनमें न आने दो। यदि पूर्वसंस्कारवश आ जाय तो उसको तुरन्त निकाल बाहर कर दो। बुरे विचारको आश्रय कभी मत दो, उसकी ओरसे लापरवाह न रहो।