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निष्काम कर्म

सारे संसारकी उत्पत्ति भगवान‍्से हुई है और भगवान् ही सारे जगत‍्में परिपूर्ण हैं, मनुष्य अपने कर्मोंद्वारा इन भगवान‍्की पूजा करके परम सिद्धिरूप भगवान‍्को सहज ही प्राप्त कर सकता है। जो जिस कार्यको करता हो, जिसका जो स्वाभाविक कर्म हो, उसीको करे; न तो सबके कर्म एक-से हो सकते हैं और न एक-सा बनानेकी व्यर्थ चेष्टा ही करनी चाहिये। नाटकमें सभी पात्र एक ही पात्रका पार्ट करना चाहें तो खेल बिगड़ जाय। अपनी-अपनी जगह सभीकी जरूरत है और सभीका महत्त्व है। राजा और मजदूर दोनोंकी ही आवश्यकता है तथा दोनों ही अपना-अपना महत्त्व रखते हैं। इसलिये कर्म न बदलो, मनके भावको बदल डालो। कर्मका छोटा-बड़ापन बाहरी है, महत्त्व तो हृदयके भावका है। ऊँच-नीचका भाव रखकर राग-द्वेषपूर्वक पराये अहितके लिये लोकदृष्टिमें शुभ कर्म करनेवाला नरकगामी हो सकता है, शास्त्रविधिके अनुसार किसी फलकी इच्छासे यज्ञ, दान, तप आदि सत्कर्म करनेवाला ऐश्वर्य और स्वर्गादि विनाशी फलों और भोगोंको प्राप्त कर सकता है। और स्वार्थको सर्वथा छोड़कर निष्काम भावसे श्रीभगवान‍्की प्राप्तिके लिये भगवदाज्ञानुसार साधारण स्वकर्म करता हुआ ही मनुष्य परम सिद्धिरूप परमात्माको पा सकता है। मनुष्य इस प्रकार अपने प्रत्येक कर्मको मुक्ति या भगवत्प्राप्तिका साधन बना सकता है।

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अतएव मनसे दम्भ, दर्प, अभिमान, मान, बड़ाई, काम, क्रोध, वैर, लोभ, असत्य, हिंसा आदि दोषों और दुर्गुणोंको निकालकर अथवा यथाशक्ति इन दोषोंका दमन करते हुए केवल भगवत्प्रीत्यर्थ भगवान‍्की आज्ञा समझकर और भगवान‍्की सेवाके भावसे अपने-अपने कार्योंको करो। हर एक कर्मसे सदा सर्वत्र स्थित भगवान‍्की पूजा करो; याद रखो, जिस कर्ममें काम, क्रोध, लोभ आदि नहीं हैं, जिसमें भगवान‍्को छोड़कर अन्य किसी भी फलकी आकांक्षा नहीं है, जो कर्म कर्मकी अथवा फलकी आसक्तिसे नहीं, किन्तु भगवान‍्के दिये हुए स्वाँगका खेल अच्छी तरह खेलनेकी इच्छासे निरन्तर भगवत्स्मरण करते हुए भगवत्प्रीत्यर्थ सात्त्विक उत्साहपूर्वक किया जाता है, उसी विशुद्ध कर्मसे भगवान‍्की पूजा होती है। यह पूजा अपने किसी भी उपर्युक्त दोषोंसे रहित विहित स्वकर्मके द्वारा प्रत्येक स्त्री-पुरुष सहज ही अपने-अपने स्थानमें रहते हुए ही कर सकता है। केवल मनके भावको बदलकर कर्मका प्रवाह भगवान‍्की ओर मोड़ देनेकी जरूरत है। फिर प्रत्येक कर्म तुम्हारी मुक्तिका साधन बन जायगा और अपने सहज कर्मोंको करते हुए भी तुम भगवान‍्को प्राप्तकर जीवनको सफल कर सकोगे।

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यदि तुम व्यापारी या दूकानदार हो तो यह समझो कि मेरा यह व्यापार धन कमानेके लिये नहीं है, श्रीभगवान‍्की पूजा करनेके लिये है। लोभवृत्तिसे नहीं, जिन-जिनके साथ तुम्हारा व्यवहार हो उन्हें लाभ पहुँचाते हुए अपनी आजीविका चलानेमात्रके लिये व्यापार करो। याद रखो—व्यापारमें पाप लोभसे ही होता है। लोभ छोड़ दोगे तो किसी प्रकारसे दूसरेका हक मारनेकी चेष्टा नहीं होगी। वस्तुओंका तौल-माप या गिनतीमें ज्यादा लेना और कम देना, बढ़ियाके बदले घटिया देना और घटियाके बदले बढ़िया लेना, आढ़त-दलाली वगैरहमें शर्तसे ज्यादा लेना आदि व्यापारिक चोरियाँ लोभसे ही होती हैं। परन्तु केवल लोभ ही नहीं छोड़ना है, दूसरोंके हितकी भी चेष्टा करनी है। जैसे लोभी मनुष्य अपनी दूकानपर किसी ग्राहकके आनेपर उसका बनावटी आदर-सत्कार करके उसे ठगनेकी चेष्टा करते हैं, वैसे ही तुम्हें कपट छोड़कर ग्राहकको प्रेमके साथ सरल भाषामें सच्ची बात समझाकर उसका हित देखना चाहिये। यह समझना चाहिये कि इस ग्राहकके रूपमें साक्षात् परमात्मा ही आ गये हैं, इनकी जो कुछ सेवा मुझसे बन पड़े वही थोड़ी है। यों समझकर व्यापार करोगे तो तुम श्रीभगवान‍्के कृपापात्र बन जाओगे और वह व्यापार ही तुम्हारे लिये भगवत्प्राप्तिका साधन बन जायगा।

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यदि तुम दलाल हो तो दो व्यापारियोंको झूठी-सच्ची बातें समझाकर अपनी दलालीके लोभसे किसीको ठगाओ मत। दोनोंके रूपमें ईश्वरके दर्शनकर सत्य और सरल वाणीसे दोनोंकी सेवा करनेकी चेष्टा करो। याद रखो, अभी नहीं तो आगे चलकर तुम्हारी इस वृत्तिका लोगोंपर बहुत प्रभाव पड़ेगा। यदि न भी पड़े, कोई हर्ज नहीं, तुम्हारी मुक्तिका साधन तो बन ही जायगा।

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यदि तुम राजा या जमींदार हो तो जिस-किसी प्रकारसे कर या लगान आदि वसूल करके उसे मौज-शौकमें या अपनेसे ऊँचे शासकोंको खुश करनेमें खर्च करना छोड़ दो। अपनी प्रजाको—किसानोंको अपने ही परिवारके लोग समझकर उनके सुख-दु:खका खयाल करो, दु:खमें उन्हें न सताओ, अपने खर्चमें कमी करके भी अनुचित लगान माफ कर दो। याद रखो, तुम्हारे या तुम्हारे किसी कर्मचारीके द्वारा गरीब प्रजाके किसी आदमीपर कोई जुल्म न होने पावे। गरीबोंका, स्त्रियोंका सम्मान और आदर करो तथा उनके बच्चोंपर अपने बच्चों-जैसा ही प्यार करो, उनके आशीर्वादसे तुम फलो-फूलोगे। तुम्हें भगवत्प्राप्ति करनी हो तो जमींदारीके द्वारा ही उसे भी कर सकते हो। उसका तरीका यह है कि प्रजाके स्त्री-पुरुषोंको अपने अन्नदाता श्रीभगवान‍्का स्वरूप समझो और अपने राजा या जमींदारके स्वाँगके अनुसार—जो भगवान‍्का ही दिया हुआ है—उनसे न्याय तथा सहजमें ही प्राप्त होनेयोग्य ‘कर’ उन्हें सुख पहुँचानेकी नीयतसे—उन्हींके पूजार्थ वसूल करो, तदनन्तर मेहनतानेके रूपमें उसमेंसे कुछ अंश अपने खर्चके लिये रखकर शेष सब सुन्दर तरीकेसे उन्हींकी सेवामें लगा दो। तुम्हें राजा या जमींदारका स्वाँग इसलिये दिया गया है कि तुम प्रजाका धन उनसे लेकर व्यवस्थापूर्वक उन्हींके हितके लिये खर्च करो। उनकी सँभाल, रक्षा और सेवाका काम तुम्हारे जिम्मे है। उन्हें सताकर मौज उड़ानेका तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। इससे तो उनके साथ ही तुम्हारा दु:ख भी बढ़ेगा ही। यदि उन्हें भगवान‍्का स्वरूप समझकर अपनी योग्यताके अनुसार भगवान‍्की प्रीतिके लिये ही भगवदाज्ञानुसार उनपर शासन करोगे तो उसीके द्वारा तुम्हें भगवत्प्राप्ति हो जायगी।

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तुम हाकिम हो तो अपने स्वाँगके अनुसार दयापूर्ण न्याय करो, तुम्हारे इजलासमें कोई भी मुकदमा आवे तो उसे ध्यानसे सुनो, रिश्वत खाकर या अन्य किसी भी कारणसे पक्षपात और अन्याय न करो। प्रत्येक न्याय चाहनेवालेको भगवान‍्का स्वरूप समझकर न्यायरूप सामग्रीसे उसकी पूजा करो, उसे न्यायप्राप्तिमें जहाँतक हो सहूलियत कर दो और सेवाके भावसे ही अपनेको मैजिस्ट्रेट या जज समझो, अफसर नहीं। तुम्हारी इसी निष्काम सेवासे भगवान‍्की कृपा होगी और तुम भगवत्प्राप्ति कर सकोगे। तुम वकील हो तो पैसेके लोभसे कभी अन्यायका पैसा मत लो, झूठी गवाहियाँ न बनाओ, किसीको तंग करनेकी नीयत न रखो। प्रत्येक मुवक्‍किलको भगवान‍्का स्वरूप समझकर भगवत्सेवाके भावसे उचित मेहनताना लेकर उसका न्याय-पक्ष ग्रहण करो, तुम चाहो तो भगवान‍्की बड़ी सेवा कर सकते हो और उस सेवासे तुम्हें भगवत्प्राप्ति हो सकती है।

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तुम डॉक्टर या वैद्य हो तो रोगीको भगवान‍्का स्वरूप समझकर उसके लिये सेवाके भावसे ही उचित पारिश्रमिक लेकर ओषधिकी व्यवस्था करो; लोभवश रोगीको सताओ नहीं। गरीबोंका सदा ध्यान रखो। तुम अपनी नि:स्वार्थ सेवासे भगवान‍्के बड़े प्यारे बन सकते हो और भगवान‍्की प्राप्ति कर सकते हो।

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तुम पुलिस-अफसर हो तो अपनेको जनतारूप भगवान‍्का सेवक समझो, किसीको न गाली दो, न सताओ; लोभ, घमण्ड, अभिमान या द्वेषवश किसीको कभी भूलकर भी व्यर्थ तंग न करो, सेवाके भावसे ही सारे कार्य करो।

तुम अपना सुधार करके इस प्रकार भगवत्सेवामें लग जाओ तो अपनी इसी पुलिसके कामसे तुम्हें भगवत्प्राप्ति हो सकती है।

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तुम नेता या उपदेशक हो तो अपनी पूजा-प्रतिष्ठा न चाहो—सच्चे अनुभवयुक्त मार्गपर लोगोंको लगाओ, दलबन्दी न करो, सम्प्रदाय न बनाओ। सबका हित हो वही कार्य अभिमान, लोभ और मान-बड़ाईकी इच्छा छोड़कर करो—तुम्हारी इसी सेवासे भगवान् प्रसन्न होकर तुम्हें अपना पद दे देंगे।

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तुम मालिक हो तो नौकरोंको सताओ मत, अभिमानवश अपनेको बड़ा न समझो, अपने स्वाँगके अनुसार नौकरोंसे काम लो, परंतु मन-ही-मन उन्हें भगवान‍्का स्वरूप समझकर उनके हितरूपी सेवा करनेकी चेष्टा करते रहो। मनसे किसीका तिरस्कार न करो। लोभवश किसीकी न्याय्य आजीविकाको न काटो। उनके भलेमें लगे रहो। इसीसे तुमपर भगवान् कृपा करेंगे और तुम्हें अपना परमपद प्रदान करेंगे।

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इसी प्रकार और भी सब लोगोंको अपने-अपने कर्मोंद्वारा भगवान‍्की निष्काम पूजा करनी चाहिये।

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