Hindu text bookगीता गंगा
होम > कल्याण कुंज > हमारा मोह

॥ श्रीहरि:॥

हमारा मोह

पुराने इतिहासों, पुराणों और अन्य ग्रन्थोंसे पता लगता है कि किसी जमानेमें मनुष्य प्राप्त भोगसुखोंको छोड़कर परमात्मसुखके लिये लालायित था। उसने अपने जीवनका उद्देश्य ही मान रखा था आत्माको जानना—परमात्माको प्राप्त करना। गर्भाधानकालसे इसीके लिये तैयारी होती थी और जीवनभर इसीकी शिक्षा दी जाती थी। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास—ये चार आश्रम और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र—ये चार वर्ण मनुष्यके इस अन्तिम ध्येयकी प्राप्तिके लिये ही बनाये गये थे और इनकी सुव्यवस्थापूर्ण पद्धति मनुष्यको क्रमश: परमात्माकी ओर ले जाती थी। शिक्षाका उद्देश्य ही था मनुष्यको पूर्ण सुखकी प्राप्तिके साधन बतला देना!

••••

समयने पलटा खाया, मनुष्यकी दृष्टि नीचे उतरी, ध्येय पदार्थ नीची श्रेणीका हो गया, अब तो यहाँतक हुआ कि भोगसुख हीे जीवनका लक्ष्य समझा जाने लगा। अपना सुख या देशका सुख जो छोटे दायरेमें है, वह अपने सुखके लिये यत्नवान् है, जो बड़े दायरेमें है वह देशके सुखके लिये चेष्टा कर रहा है, इसके अन्दर भी निज सुखकी इच्छा तो छिपी है ही। फिर उस सुखका स्वरूप क्या है? खूब धन हो, सम्मान हो, सत्ता हो, अधिकार हो, प्रभुत्व हो। इनकी प्राप्तिके लिये चाहे जिस साधनका प्रयोग करना पड़े, चाहे जिस उपायसे काम लिया जाय, झूठ, कपट, छल, द्रोह, हिंसा, किसीके लिये रुकावट नहीं, काम होना चाहिये, सफलता मिलनी चाहिये। आश्चर्य तो इसी बातका है कि मरणधर्मा मनुष्य दूसरेको लूटकर, मारकर स्वयं सुख-शान्तिसे (!) जीना चाहता है।

••••

परन्तु क्या किया जाय? विद्यालय, विश्वविद्यालय, आश्रम, मठ, मन्दिर सभी जगह यही शिक्षा मिल रही है, बस, धनवान् बनो, अधिकार प्राप्त करो, सत्ता-लाभ करो, इस लोकका सुख ही सुख है, यहाँका अधिकार ही जीवनका लक्ष्य है; यह न हुआ तो जीवन वृथा गया। परिणाम प्रत्यक्ष है। आज चारों ओर अधिकारकी लड़ाई शुरू हो रही है, लोगोंके जीवन दु:खमय बन गये हैं; कोई अधिकार-प्राप्तिके लिये व्याकुल है तो कोई अधिकार-रक्षाके लिये। क्या कहा जाय? हमारा तमाम जीवन ही बाह्य हो गया, बाह्य वस्तुओंके लिये—इन्द्रिय-भोगोंके लिये बिक गया। मांसके टुकड़ोंके लिये चील-कौओंकी-सी लड़ाई होने लगी।

••••

किसी जमानेमें परमात्माकी प्राप्तिके लिये तप होते थे। आज भोगोंकी प्राप्तिके लिये होते हैं! कभी भगवान‍्के प्रति आत्मसमर्पण होता था, आज भोगोंकी प्रतिमा पूजी जाती है! कभी देहात्मबोध छोड़कर ब्रह्मात्मबोध किया जाता था, अब ब्रह्मात्मबोधकी अनावश्यकता समझी जाकर उस मार्गके पथिकोंको भी देहात्मबोधकी शिक्षा दी जाती है। बड़े-बड़े मनीषी, तपस्वी, संयमी पुरुष भी आज भोगोंकी प्राप्ति करने-करानेके लिये जीवनकी और धर्मकी बाजी लगाये बैठे हैं और इसीको धर्म समझा जा रहा है। इस भोगपरायणता—इन्द्रियसुखपरताका परिणाम क्या होता है? मनुष्योंमें राक्षसी भावोंका उदय, द्वेष-हिंसा-प्रतिहिंसाका प्राबल्य, घोर अशान्ति और सुखके नामपर दु:खपूर्ण जीवन-यापन!

••••

इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भोगसुख और भौतिक सत्तासामर्थ्यसे सम्पन्न समुन्नत कहानेवाले देशोंकी भीतरी दशा है। परन्तु इस दशाको भी देखना होगा ईश्वराभिमुखी ज्ञानसम्पन्न ऋषि-नेत्रोंसे, हमने ये नेत्र खो दिये, कम-से-कम हमारे इन नेत्रोंपर जाले छा गये, इसीसे हम विपरीतदर्शी हो रहे हैं। वहाँकी सभी बातें हमें अच्छी लगती हैं, चाहे वह बुरी-से-बुरी हों, ऐसा जादू छाया है कि उसने हृदयको ही ‘पराया’ बना दिया। इसीके परिणामस्वरूप आज हम वहाँके अनाचारमें सदाचार, पापमें पुण्य, स्वार्थान्धतामें देशभक्ति, अवनतिमें उन्नति, अधर्ममें धर्म और पतनमें उत्थानका विपरीत दृश्य देख रहे हैं और सब ओर उसीके प्रवर्तनकी अन्धचेष्टामें तत्पर हैं।

••••

जहाँ सुख है ही नहीं, वहाँ सुखको खोजना वैसा ही है जैसा तप्त मरुभूमिमें जल समझकर भटकना। भगवान् श्रीकृष्णने तो इस जगत‍्को ‘अनित्य’ और ‘असुख’ अथवा ‘दु:खालय’ और ‘अशाश्वत’ बतलाया है और इसके प्रत्येक पदार्थमें जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधिरूप दु:ख-दोष देखकर इससे वैराग्य करनेकी आज्ञा दी है और वैसा बनकर ही जगन्नाटकके सूत्रधार भगवान‍्के आज्ञानुसार अपने-अपने स्वाँगके अनुकूल अभिनय करनेको निष्काम-कर्म बतलाया है। आज हम भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञा मानकर लड़ने-मरनेको तो प्रस्तुत हैं; परन्तु भोगेच्छा छोड़कर वैराग्य ग्रहण करनेके लिये जरा भी तैयार नहीं। फलस्वरूप निष्काम-कर्मयोगके स्थानपर विकर्म—पापकर्म होते हैं—भोगसुखेच्छासे प्रेरित होकर राग-द्वेषवश किये जानेवाले असत्य, कपट और हिंसायुक्त कर्म पाप न होंगे तो क्या होंगे? पापका फल दु:ख होता ही है, उसीका भोग भी हम खूब भोग रहे हैं। आश्चर्य और खेद तो यह है कि गीताकी दुहाई देकर आज मनमाने आचरण किये जा रहे हैं।

••••

आज जो कुछ हो रहा है इसके अधिकांशमें न ज्ञान है, न निष्काम-कर्म है और न भक्ति है! ज्ञानमें प्रधान बाधा है देहाभिमानकी, सो उसको खूब बढ़ाया जा रहा है। निष्काम-कर्मयोगमें प्रधान बाधक है स्वार्थबुद्धि, जिसकी वृद्धिके लिये प्रत्येक सम्प्रदाय और दल जोरोंके साथ संगठित हो रहे हैं और भक्तिमें प्रधान प्रतिबन्धक है शरणागतिमें कमी—भगवान‍्पर पूर्ण निर्भर न होना, सो यह भी प्रत्यक्ष ही है। सच्चा ज्ञानी, सच्चा निष्काम-कर्मी और सच्चा भक्त कभी छल, कपट, दम्भ, असत्य, अन्याय और हिंसा आदिका अवलम्बन नहीं कर सकता।

••••

क्योंकि ज्ञानके साधनमें देहात्मबुद्धिका—शरीर ‘मैं’ बुद्धिका त्याग करना पड़ता है, उसके लिये आत्मा शरीरसे उसी प्रकार अलग है, जिस प्रकार दूसरे शरीरसे हमारा शरीर! यह स्थिति प्राप्त होनेपर अर्थात् देहात्मबुद्धिके छूट जानेपर पापकर्म नहीं बन सकते। इसी प्रकार स्वार्थबुद्धिके परित्याग हो जानेपर ईश्वरार्थ किये जानेवाले निष्काम-कर्म भी पापयुक्त नहीं हो सकते और भगवद्भक्तिमें तो मनुष्य भगवान‍्के शरण ही हो जाता है, उस अवस्थामें उसके दूषित भावोंका त्याग स्वाभाविक ही होता है। जहाँ दुष्कर्म होते हैं, सफलताके लिये शास्त्रविरुद्ध कर्मोंका, पापोंका आश्रय लिया जाता है, वहाँ ज्ञान, निष्काम-कर्म और भक्तिका स्वप्न देखना मोहमात्र है।

••••

इस मोहका भंग होना आवश्यक है, परन्तु हो कैसे? अज्ञानजनित भोगलोलुपताके अन्धकारने हमारे ज्ञानको ढक लिया है और चारों ओरसे इस अन्धकारको और भी घन करनेका अथक प्रयत्न हो रहा है। इस अन्धकारकी घनताको ही ज्ञानका प्रकाश कहा जाता है। मनुष्यकी बुद्धि आज उल्लू और चमगादड़की दृष्टि-जैसी हो गयी है, जैसे इन पक्षियोंको दिनमें अँधेरा और रातको प्रकाश दीखता है, वैसे ही हमें भी आज अन्धकारमें ही प्रकाशका भ्रम हो रहा है, इसीसे हम ‘कामोपभोगपरायण’ होकर सैकड़ों आशाकी फाँसियोंमें बँधे हुए काम-क्रोधादि साधनोंसे ‘कामभोगार्थ’ ‘अन्यायपूर्वक अर्थप्राप्ति’ के उपायोंमें लग रहे हैं। मोहने हमें घेर लिया है। अभिमानने हमें अन्धा कर दिया है। लोभने हमारी वृत्तिको बिगाड़ दिया है। मदने हमें उन्मत्त बना दिया है। इसीसे आज हम अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोधका आश्रय लेकर सर्वभूतस्थित भगवान‍्के साथ द्वेष करने लगे हैं। इन आसुरी भावोंका परिणाम नरककी यन्त्रणाएँ और अधम गतिके सिवा और क्या हो सकता है?

••••

उपाय क्या है? उपाय है—भगवदाराधन! जिन लोगोंको भगवान‍्में कुछ भी विश्वास है, वे सबकी ऐसी बुद्धि होनेके लिये भगवान‍्से सरल—श्रद्धायुक्त अकृत्रिम प्रार्थना करें। उठते हुए भगवद्विश्वासको अपने शुभ आचरण और सच्ची भक्तिके द्वारा फिर जमावें। भगवत्-श्रद्धाके सूखते हुए वृक्षकी जड़को सच्ची निर्भरताकी अश्रुजल-धारासे सींचें। आप्त वचनोंपर श्रद्धा करें। ऋषि-मुनियोंको भ्रान्त मानना छोड़ दें। जीवनको तप-संयमसे पूर्ण बनाकर भगवत्कृपाका आश्रय ग्रहण करें। अटल विश्वास तथा परम श्रद्धाके साथ भगवान‍्के चरणोंकी सेवा करें और उनके पवित्र नामका जप करें।

••••

मनुष्यको सावधान होकर यह सोचना चाहिये कि यहाँ सभी भोग-सुख अनित्य हैं, बिजलीकी भाँति चंचल हैं। शरीर कच्चे घड़ेके समान अचानक जरा-सी ठेस लगते ही नष्ट हो जानेवाला है, इसलिये भोगोंसे मन हटाकर भगवान‍्में प्रेम करें। भगवान‍्के लिये ही जगत‍्के सारे कार्य करें। जगत‍्के लिये भगवान‍्को कभी नहीं भुलाया जाय। भगवान‍्के लिये जगत‍्को छोड़ना पड़े तो आपत्ति नहीं; परन्तु जगत‍्के लिये भगवान् कभी न छूटें, यदि मनुष्य इस प्रकार निश्चय कर ले तो फिर जगत‍्के छोड़नेकी भी जरूरत नहीं पड़ती, सारा जगत् भगवन्मय ही तो है!

‘हरिरेव जगत्, जगदेव हरि:’

अगला लेख  > कंचन, कामिनी और कीर्ति