गीता गंगा
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कल्याणके साधन

किसी भी प्राणीको किसी प्रकारसे दु:ख मत दो। दूसरेको दु:खी करके सुखी होनेकी दुराशा छोड़ दो। दूसरेको दरिद्र बनाकर धनी बननेकी लालसा मत रखो। पता नहीं तुम कब मर जाओगे। मरते ही तुम्हारे मनके सारे महल ढह जायँगे। यह मनुष्यका भ्रम है कि वह अधिक कालतक जीकर आगे भोगनेकी आशामें दूसरोंके भोगोंको लूटना या उन्हें मारना चाहता है। मौतको सदा सिरपर सवार देखो और यह निश्चय समझो कि मौत आते ही तुम्हारा कहीं कुछ भी नहीं रहेगा।

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मरनेके एक क्षण पहलेतक मनुष्य न मालूम कितने मनसूबे बाँधता है, घरमें उसका एक स्थान है, वह घरका एक मालिक या हिस्सेदार है; परन्तु जहाँ मौत आयी कि उसके सारे मनसूबे ज्यों-के-त्यों रह जाते हैं, उसका घरमें कहीं भी स्थान नहीं रहता।

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घरकी जिन चीजोंको ‘मेरी-मेरी’ कहते हो, जिन चीजोंको अपनी बनाना चाहते हो, उन सबसे तुम्हें जबरदस्ती अपना सम्बन्ध छोड़ देना पड़ेगा। अच्छी बात इसीमें है कि पहलेसे ही सावधान हो जाओ और जिन वस्तुओंको आखिर छोड़ना ही है उनके लिये अन्याय, अधर्मका आश्रय लेना छोड़ दो। किसी वस्तुको अपनी मत समझो, किसी वस्तुका अहंकार न करो, किसी वस्तुकी कामना न करो, जगत‍्में बेपरवाह रहो और मस्त हो जाओ। मस्तीकी मौत भी मौज ही होती है।

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धन, नाम, कीर्ति, सम्मान कमानेकी चाह छोड़ दो। कमायी करो अच्छे आचरणोंकी, सद‍्गुणोंकी, वैराग्यकी, ज्ञानकी और भगवद्भक्तिकी। तुम्हारे पास बहुत धन है, परिवार भी बड़ा है, जगत‍्में तुम्हारा काफी अच्छा नाम है, लोग तुम्हारे पैर पूजते हैं, परन्तु यदि तुम्हारा अन्त:करण मलिन है, तुम्हारे आचरण अपवित्र हैं, तुम्हारा मन और शरीर क्षणभंगुर भोगोंमें आसक्त है; तुम भोगोंको ही नित्य सुख और सुखका साधन समझते हो और श्रीभगवान‍्के चरणोंमें तुम्हारा किंचित् भी प्रेम नहीं है तो निश्चय समझ लो, तुम्हारा मनुष्य-जीवन बिलकुल व्यर्थ है और तुम्हारे इस जीवनका फल आगे चलकर तुम्हारे लिये बहुत ही कष्टमय होगा।

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सदा अन्त:करणको पवित्र बनानेमें लगे रहो। अपने आचरणोंको शुद्ध करो। सबके प्रति प्रेम करो। सबका सत्कार और आदर करो। सबका हित करो। किसीका भी बुरा न चाहो। संसारके क्षणभंगुर भोगोंसे चित्तको हटाकर भगवान‍्में लगाओ। इस बातकी परवा छोड़ दो कि लोग तुम्हें क्या कहते हैं। लोग तो अपने-अपने मनकी कहेंगे। राग-द्वेषका चश्मा जैसा होगा वैसा कहेंगे। उनकी प्रशंसामें भूलो मत और उनकी निन्दासे घबड़ाकर अपने लक्ष्यसे हटो मत। सब काम भगवान‍्की प्रीतिके लिये करो और इस बातका सदा ध्यान रखो कि जिस कार्यमें किसी भी प्राणीका अहित है, वह कार्य भगवान‍्की प्रीतिके लिये नहीं हो सकता।

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भोगोंकी बातें अधिक न करो, न अधिक सुनो, उनमें जितनी जरूरत हो उतना ही मन लगाओ और उतनी ही उनके बारेकी बात करो। शेष समय अपने मन और वाणीको भगवान‍्की ओर ही लगाये रखो। शरीरसे जो कुछ करो, सब भगवान‍्की सेवा समझकर करो। घरमें अपनेको मालिक मत समझो, वरं एक सेवक समझो और यथासाध्य ईमानदारीके साथ भगवत्सेवाके भावसे घरके काम करो। अपना व्यवहार दूसरेके घरमें कुछ समयके लिये टिके हुए अतिथिका-सा रखो। इस घरको अपना स्थायी घर, घरकी चीजोंको अपनी चीजें, घरके सेवकोंको अपने सेवक और घरकी सम्पत्तिको अपनी सम्पत्ति मत समझ बैठो। सावधान, तुम्हारे व्यवहारसे किसीके दिलपर चोट न पहुँचे।

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चित्तकी धाराका प्रवाह एक भगवान‍्की ओर ही रहे; इस बातके लिये सदा जतन करते रहो, जगत‍्की ओर कहीं मुड़े तो वह भी भगवान‍्की ओर जानेके सीधे रास्तेकी खोजमें ही। कहीं जरा-सी भी गड़बड़ी दीखे तो तुरन्त प्रवाहको उस ओरसे वापस मोड़ लो। याद रखो—धन, जन, परिवार, शरीर, यश, सम्मान कुछ भी तुम्हारे साथ नहीं जायँगे। परलोकमें ये तुम्हारे काम नहीं आवेंगे, तुम्हें विपत्तिसे नहीं बचावेंगे। अतएव इनके लिये जीवन मत गँवाओ। यदि भाग्यवश ये मिल गये तो सावधान रहो, कहीं तुमपर इनका नशा न चढ़ जाय—तुम कहीं भगवान‍्के मार्गसे हट न जाओ। इनसे चिपटो मत; मनको सदा इनसे अलग रखनेकी चेष्टा करो और हो सके तो इनका भी भगवत्प्रीतिमें ही उपयोग करो।

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पता नहीं, शरीरका कब अन्त हो जाय, अतएव सदा तैयार रहो। जिसके आचरण शुद्ध हैं; जिसमें सद‍्गुणोंका विकास है; जिसका मन घरमें, परिवारमें, भोगोंमें नहीं अटकता; जो मनसे कभी भगवान‍्को नहीं भूलता और जो शरीरसे अपनेको सदा अलग, चेतन, नित्य और अविनाशी समझता है, बस वही तैयार है। उसे मृत्युके समय रोना नहीं पड़ता।

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जबतक शरीर स्वस्थ है, भोग भोगनेकी शक्ति है, भोगोंमें मन लगा है, मृत्यु सामने नहीं दिखायी देती तबतक अवश्य ही बहुतोंको ऊपर लिखी बातें अनावश्यक और कड़वी लग सकती हैं; परन्तु एक दिन सभीको इन बातोंपर विचार करना पड़ता है और पहलेकी भूलका पछतावा उस समय बहुत ही भयानक होता है। पहलेसे ही विचार करके चेत जाओ तो अच्छी बात है।

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धन, यौवन, रूप, पद, सम्मान, शक्ति, विद्या, वाग्मिता—याद रखो—मौतका विकराल मुँह दीखते ही ये सब चीजें विध्वंस हो जायँगी। इनसे कुछ भी नहीं होगा। अतएव इनकी प्राप्तिको जीवनका उद्देश्य मत बनाओ और प्राप्ति होनेपर तनिक भी ऐंठो मत। यह चार दिनकी चाँदनी जरूर ही नष्ट हो जायगी।

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शास्त्र, संत, महात्मा और भक्तोंकी वाणीका अनुशीलन और अनुसरण कर भगवान‍्पर विश्वास करो, भगवान‍्के महत्त्वको समझो और भगवान‍्के प्रेमको पानेके लिये भगवान‍्की शरण हो जाओ!

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काम, क्रोध, लोभ, द्वेष, हिंसा, मत्सर, अभिमान, ममत्व आदि दोष बड़े ही प्रबल हैं। इन सबका समूल नाश करनेका जतन करो। सत्संग या साधनाके प्रभावसे कभी-कभी मनुष्यको अपनेमें इन दोषोंका अभाव-सा दीखता है और वह अपनेको पूर्ण मान लेता है, परन्तु इनका सर्वथा नष्ट हो जाना कठिन है। दोष दब जाते हैं, परन्तु संस्काररूपसे मनमें छिपे रहते हैं, जो अनुकूल परिस्थिति और उत्तेजक कारण उपस्थित होनेपर जाग उठते हैं। यही कारण है कि सर्वथा निर्दोष समझे जानेवाले पुरुषोंमें भी कभी-कभी इन दोषोंका प्रकाश देखा जाता है।

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अतएव अभिमानसे अपनेको बचाते हुए बड़ी ही सावधानीसे भगवान‍्के बलका आश्रय लेकर इन दोषोंको समूल नष्ट करनेकी चेष्टा करो। काम, क्रोधादिकी जागृतिका सबल कारण उपस्थित होनेपर भी जब इनकी जागृति न हो, तब समझना चाहिये कि इनका नाश हो रहा है। संस्काररूपसे भी न रह जायँ, इसके लिये बार-बार आत्मपरीक्षा करके देखना चाहिये।

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बहुत बार यह देखा जाता है कि जान-बूझकर की गयी परीक्षामें तो इन दोषोंकी जागृति नहीं होती, परन्तु अकस्मात् कारण उपस्थित होनेपर ये जाग उठते हैं। अतएव वैसी अवस्थामें भी न जागें तभी इनके संस्कारोंका नाश चालू होना समझना चाहिये।

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अपने द्वारा कोई अच्छा काम बन जाय तो उसके लिये भूलकर भी अभिमान मत करो। सफलताके लिये भगवान‍्के कृतज्ञ होओ और उन्हींकी शक्तिको सफलतामें कारण समझो। अभिमान सफलताका बहुत बड़ा बाधक है, अभिमान उत्पन्न होते ही सफलता दूर भागने लगती है और कहीं किसी कारणवश ऐसा होनेमें देर होती है तो उसका परिणाम अभिमानकी अत्यन्त वृद्धि हो जानेके कारण और भी भयानक होता है।

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प्रत्येक सफलतापर भगवान‍्के प्रति कृतज्ञता प्रकाश करके उत्तरोत्तर भगवान‍्का आश्रय लेना और उन्हींपर सब प्रकारसे निर्भर होनेकी स्थिति प्राप्त कर लेना—मनुष्यको उस महान् सफलतापर पहुँचा देता है जहाँ मनुष्य-जीवनकी, नहीं-नहीं, जीव-जीवनकी अनन्त कालकी साध पूरी हो जाती है।

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अपनेको उत्तम समझकर न तो कभी अभिमान करो और न कभी दूसरेको बुरा समझकर उससे घृणा करो। जीवनमें न मालूम कितनी बार उत्थान-पतनकी घड़ियाँ आती हैं। जिसका जीवन अन्तिम श्वासतक उत्तम निभ जाय वही उत्तम है और जो जीवनमें कभी न सुधरे वही बुरा है।

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अपने जीवनकी ओर सदा चौकन्नी नजरसे देखते रहो, एक-एक कदम बड़ी सावधानीसे सँभलकर रखो; गिरनेके लिये जगत‍्में चारों ओर इतने गहरे गड्ढे हैं कि जिनकी गिनती ही नहीं हो सकती। जरा-सी असावधानी तुम्हें न मालूम कितनी गहरी खाईमें गिरा देगी। मनकी प्रत्येक क्रिया और इन्द्रियकी हर एक चेष्टाको प्रभुकी ओर लगी रहनेवाली अव्यभिचारिणी बुद्धिके अधीन रखो। सावधान, एक क्रिया भी ऐसी न होने पावे जो प्रभुसे विमुख ले जानेवाली और दुष्कर्मके गड्ढेमें गिरानेवाली हो।

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बुरी वासना और पापबुद्धिपर कभी दया न करो, जरा-सी बुरी वासना और पापबुद्धिको भी कभी हृदयमें आश्रय मत दो। आश्रय पाकर इनको बढ़ते देर नहीं लगती। बढ़ जानेपर फिर ये बेकाबू हो जाती हैं और सारी इन्द्रियोंपर अपना प्रभुत्व फैलाकर मनमानी करती-कराती हैं।

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अपनेको भगवान‍्के बलसे बलवान् समझकर कुवासना, कुचिन्ता और कुबुद्धिको नजदीक भी न आने दो; जो करें तो लड़कर इनपर विजय प्राप्त करो। स्मरण रखो—तुम बड़े बलवान् हो। आत्माके समान शक्तिशाली कोई नहीं है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि सभी आत्माके गुलाम हैं। तुम आत्मा हो, परमात्माके सनातन अंश हो। मन, बुद्धि और उनमें निवास करनेवाले कामकी ताकत तुम्हारी ताकतके सामने तुच्छ है बल्कि तुम्हारी शक्तिसे उनमें शक्ति आती है। अपनेको परमात्माके सामने दीन समझो; परन्तु विषयबुद्धिके नाश करनेके लिये कभी दुर्बल मत समझो। वास्तवमें ही तुम दुर्बल नहीं हो। तुम्हारे दुर्बलताके निश्चयने ही तुम्हें दुर्बल बना रखा है। अपने स्वरूपको सँभालो और निर्भय हो जाओ।

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अपनी निन्दा सुनकर न घबड़ाओ, न उत्तेजित होओ, न शोक करो और न धैर्य ही छोड़ो। अहंकारको अलग करके अपनेको देखोगे तो निन्दाका तुमपर कोई असर नहीं दीखेगा। आत्माकी कोई निन्दा नहीं कर सकता, नाम-रूपकी निन्दा-स्तुतिमें कुछ हानि-लाभ नहीं है। जगत‍्में न सबकी सब समय सब निन्दा करते हैं और न स्तुति ही करते हैं। जगत‍्की निन्दा-स्तुतिकी कुछ भी परवा न करके सदा निष्कामभावसे प्रेमपूर्वक निरन्तर ईश्वरकी आज्ञा पालन करनेमें लगे रहो।

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तुम परमेश्वरकी आज्ञा समझकर किसी सत्कार्यको करते रहो और वर्तमान जगत‍्के अधिकांश विद्वान् कहानेवाले लोग भी यदि तुम्हारे उस सत्कार्यके विरुद्ध मन रखते हैं तो कोई चिन्ता नहीं। अपना सत्कार्य कभी मत छोड़ो, परमेश्वरपर भरोसा रखकर अपने कर्तव्यपर डटे रहो। सच्ची बात आखिर सच्ची ही रहेगी। एक दिन दुनिया सत्यको मान लेगी और यदि न माने तब भी तुम्हारी कोई हानि नहीं है।

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दुनियाकी प्रशंसा पानेके लिये, नेतृत्वके लिये, मान या धनके लिये अपना धर्म कभी मत छोड़ो। दुनियाकी प्रशंसासे कुछ भी नहीं बनता। धर्मत्यागका फल बहुत बुरा होगा। आज धर्मत्याग करनेवालोंकी प्रशंसा सुनकर भविष्यके फलसे बेखबर मत होओ।

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त्याग करो, परन्तु त्यागका अभिमान न करो। त्यागकी स्मृतिको भी भूल जाओ। दान करो, परन्तु अहसान न करो, बदला न चाहो, उसे भूल जाओ। सेवा करो, परन्तु सेवक मत कहलाओ। जो सेवा करता है और सेवक नहीं कहलाता वही असली सेवा करता है।

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सफलतापर कभी गर्व न करो; यह न समझो कि हमारी बुद्धि और शक्तिसे सफलता मिली है। ईश्वरका उपकार मानो और उसीकी शक्तिका प्रभाव समझो एवं दीन होकर ईश्वरसे प्रार्थना करो—‘प्रभो! तुम्हारी इच्छासे होनेवाली सफलताका अभिमान मेरे हृदयमें कभी न उत्पन्न हो, मैं तुम्हारी शक्तिके प्रभावको कभी न भूलूँ।’

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विफलतापर कभी शोक न करो, यह न समझो कि प्रभुने बहुत बुरा किया। अपनी भूलोंको ढूँढ़ो, कहीं अभिमान या गर्व-वश प्रभुकी शक्तिका अपमान या तिरस्कार तो नहीं कर बैठे हो, यदि ऐसा हुआ हो तो (जरूर हुआ ही होगा) विफलतामें प्रभुकी परम कृपाके दर्शनकर उनसे दीन प्रार्थना करो—‘प्रभो! तुमने बहुत अच्छा किया जो मुझे विफलता दी। यदि मैं सफल हो जाता तो मेरा अभिमान और भी बढ़ता एवं मैं तुम्हारी शक्तिका और भी अधिक तिरस्कार करता। अब कृपा करके ऐसी बुद्धि दो जिससे मैं फिर कभी ऐसी भूल न करूँ।’

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प्राणिमात्रके प्रति प्रेम करो, दीन जीवोंपर दया करो, सबके साथ मित्रता और शान्तिपूर्ण बर्ताव करो। सबका आदर करो। अपमान किसीका भी कभी न करो, मनुष्यके लिये अपमानसे बढ़कर अप्रिय वस्तु और कोई नहीं है एवं अमानी बनकर दूसरोंका सम्मान करो।

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बदला लेनेकी भावना कभी मनमें मत आने दो। अपना बुरा करनेपर, गाली देनेपर, निन्दा करनेपर, मारनेपर भी किसीका कभी न बुरा करो, न बुरा चाहो, न बुरा होते देखकर प्रसन्न होओ, उसको हृदयसे क्षमा कर दो। सबमें अपने आत्माको समझकर जैसे अपने अपराधपर आप दण्ड नहीं देना चाहता—क्षमा चाहता है—इसी प्रकार सबपर क्षमा करो। बदला लेनेकी भावना बहुत बुरी है। बदला लेनेकी भावना मनमें रखनेवाला मनुष्य इस जीवनमें भी शान्ति, सुख और प्रेम नहीं पाता तथा मरनेपर पिशाच होता है। वह स्वयं डूबता है और वैरभावके बुरे परमाणु वायुमण्डलमें फैलाकर दूसरोंका भी अनिष्ट करता है।

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मनमें सदा पवित्र भाव रखो, सबका हित चाहो, सबको उत्तम परामर्श दो, न कभी वाणीसे बुरी सम्मति दो, न अपनी करनीसे बुरी बात सिखाओ और न मनमें बुरी बात रखकर उसे वायुमण्डलमें जाने दो। जो दूसरोंमें बुरे भाव फैलानेमें सहायक होता है, वह बहुत बड़ा पाप करता है। उसका कभी हित नहीं हो सकता।

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स्मरण रखो—जिस कार्यसे परिणाममें अपना और दूसरोंका हित हो वही धर्म है और जिससे परिणाममें अपना और दूसरोंका अहित हो वही पाप है।

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