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नाम-रूपका मोह

दृढ़ निश्चय करो कि मैं शरीर नहीं हूँ, मैं नाम नहीं हूँ। ये नाम-रूप मुझमें आरोपित हैं। इनसे मेरा वस्तुत: कोई सम्बन्ध नहीं है। शरीरके नाशसे मेरा कुछ भी नहीं बिगड़ता, नामकी बदनामीसे मेरी बदनामी नहीं होती। मैं अमर हूँ, अजर हूँ, निष्कलंक हूँ, शुद्ध हूँ, सनातन हूँ, सदा एकरस हूँ, कभी घटने-बढ़नेवाला नहीं हूँ, शरीरके उपजनेसे मैं उपजता नहीं, शरीरके नष्ट होनेपर मैं नष्ट नहीं होता। मैं नित्य हूँ, असंग हूँ, अव्यय हूँ, अज हूँ। मेरे स्वरूपमें कभी कोई अन्तर नहीं पड़ता।

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जो कुछ परिवर्तन होता है, सब नाम-रूपसे होता है। नाम-रूपसे आत्मा सर्वथा पृथक् है। माताके गर्भमें जब जीवात्मा आया, उस समय उसका यह स्थूल शरीर (रूप) नहीं था, परन्तु जीवात्मा था, मरनेके बाद शरीर नष्ट हो जायगा, परन्तु जीवात्मा रहेगा, अतएव यह सिद्ध है कि शरीर जीवात्मा नहीं है। इसी प्रकार माताके गर्भमें जीवका कोई नाम नहीं था। लोग कहते थे बच्चा होनेवाला है। यह भी पता नहीं था कि गर्भमें लड़की है या लड़का। जन्म होनेपर कहा गया लड़का हुआ। कुछ समय बाद एक नाम रखा गया। माता-पिताको वह नाम नहीं रुचा, उन्होंने दूसरा सुन्दर नाम रख लिया। बड़े होनेपर वह नाम भी बदल दिया गया। इससे यह सिद्ध हो गया कि नाम भी जीवात्मा नहीं है।

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नाम-रूप दोनों ही कल्पित हैं आरोपित हैं। परन्तु जीव इन्हींको अपना स्वरूप समझकर इनकी लाभ-हानिमें अपनी लाभ-हानि समझता है और दिन-रात इन्हींकी सेवामें लगा रहता है। शरीरको आराम मिले, नामका नाम (कीर्ति) हो। बस इसीके पीछे छोटे-बड़े सब पागल हैं। यह मोह है, अज्ञान है, उन्माद है, माया है। इससे अपनेको छुड़ाओ! अपने स्वरूपको सँभालो!! याद रखो, जबतक इस नाम-रूपको अपना स्वरूप समझे हुए हो तभीतक जगत‍्के सुख-दु:ख तुम्हें सताते हैं। जिस दिन, जिस क्षण नाम-रूपको मिथ्या प्रकृतिकी चीज मान लोगे और अपनेको उनसे परे समझ लोगे उसी क्षण प्रकृतिजन्य सुख-दु:खसे छूट जाओगे। सारा कार्य प्रकृतिमें हो रहा है, आत्मा निर्लेप है। आत्मा तुम्हारा स्वरूप है।

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याद रखो, शरीरके बीमार होनेपर तुम बीमार नहीं होते, शरीरके स्वस्थ होनेपर तुम स्वस्थ नहीं होते, शरीरके मोटे होनेपर तुम मोटे नहीं होते, शरीरके दुर्बल हो जानेपर तुम दुबले नहीं होते। तुम नि:संग हो, सदा सम हो, तुम्हारे अंदर ये द्वन्द्व हैं ही नहीं। सारे द्वन्द्व प्रकृतिमें हैं। परन्तु हाँ, जबतक तुम प्रकृतिमें स्थित हो तबतक प्रकृतिके सारे विकार तुम्हें अपने अन्दर भासते हैं, तुम प्रकृतिके रोगोंसे भरे हो—महान् रोगी हो, शरीरके मोटे-ताजे और पूर्ण स्वस्थ होते हुए भी सर्वथा अस्वस्थ हो, तुम्हारी असली स्वस्थता—स्व (आत्मा)-में स्थित होनेमें है। जो आत्मामें स्थित है, वही स्वस्थ है और जो प्रकृतिमें स्थित है, वही अस्वस्थ है।

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इसी प्रकार तुम्हारे नामका खूब यश फैलनेमें तुम्हारा कोई यश नहीं होता, नामकी बदनामीमें तुम्हारी कोई बदनामी नहीं होती। नामके अपमानमें तुम्हारा अपमान नहीं और नामके सम्मानमें तुम्हारा सम्मान नहीं। तुम नामसे अलग हो। परन्तु जबतक नामको अपना स्वरूप समझते रहोगे, तबतक नामकी बदनामीमें तुमको महान् दु:ख होगा और नामके नाम होनेमें सुख होगा। यही कारण है कि तुम आज नामका नाम कमानेमें अमूल्य जीवन खो रहे हो। नामका नाम हो भी गया तो वह किस कामका? कितने दिन ठहरेगा और तुम्हें उससे वस्तुत: क्या लाभ हुआ? नामके नामसे बन्धन और भी दृढ़ होगा, तुम आत्मामें स्थिर होकर स्वस्थ होनेकी अवस्थासे और भी दूर हट जाओगे।

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अतएव नाम-रूपका मोह छोड़कर—शरीरके आराम और नामके नामकी परवा छोड़कर अपने स्वरूपको सँभालो। तुम सदा मुक्त हो, बन्धन तुम्हारे समीप भी नहीं आ सकता। सुख-दु:खके द्वन्द्व तुम्हारी कल्पनामें भी नहीं रह सकते। तुम आनन्दरूप हो, तुम सत् हो और तुम चेतन हो। तुम स्वयं शान्तिके खजाने हो, तुम पूर्ण हो, तुम अखण्ड हो, तुम अनन्त हो, तुम कूटस्थ हो, तुम ध्रुव हो और तुम सनातन हो।

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