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निर्दोषता

प्रतिदिन सुबह उठते ही यह दृढ़ निश्चय करो कि आज मैं किसीपर क्रोध नहीं करूँगा। तुम्हारा निश्चय सच्चा होगा तो उस दिन क्रोध तुमपर अपना कोई प्रभाव नहीं डाल सकेगा। यही बात सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदिके सम्बन्धमें समझो।

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तुम्हारा निश्चय आत्मविश्वासके बलपर अडिग होगा तो अपने निश्चयके अनुसार ही तुम्हें सफलता मिलेगी, दृढ़ निश्चयमें परमात्माकी शक्ति निहित रहती है। निश्चय करो और उसी निश्चयसे सबके साथ प्यार करो।

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चुभनेवाली बात किसीको न कहो, न किसीके दोषोंका प्रचार करो, बुरा न चाहो, इससे प्रेममें दोष आता है, वैर-विरोधकी नींव पड़ती है। तुम्हारा हृदय साधुतापूर्ण तो उस दिन समझा जायगा, जब तुम्हारे हृदयमें किसीके दोषोंकी स्फुरणा ही नहीं होगी, उस समय तुम स्वयं तो निर्दोष बन ही जाओगे।

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असली निर्दोषता शरीरमें या वाणीमें नहीं होती, वह तो मनमें होती है। बहुत मीठे बोलनेवाले ठग सरल मनुष्योंको मीठी-मीठी बातोंमें फुसलाकर उनका सर्वस्व लूट लिया करते हैं। वही शारीरिक विनय और मधुर वचन निर्दोष हैं, जो निष्कपट हों और हितकी शुद्ध इच्छासे प्रेरित होकर किये और बोले गये हों। पर जबतक विषय-चिन्तन होता है, तबतक ऐसी निर्दोषता नहीं आ सकती।

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विषयोंके चिन्तनसे चित्तको सदा हटाते रहो, विषयोंको महात्माओंने विष बतलाया है, वस्तुत: वह विषसे भी भयंकर है। विष तो एक ही बार प्राण लेता है पर विषय-विष तो जीवको पापोंके गहरे गर्तमें डालकर बार-बार मृत्युके चक्‍करमें डालता है।

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विषयसे यहाँ संसारके भोग्य विषयोंसे अभिप्राय है, जो आसक्तिवश केवल इन्द्रियोंकी तृप्तिके लिये व्यवहारमें आते हैं। उन विषयोंसे तात्पर्य नहीं जो मनुष्यकी सारी इन्द्रियोंको भगवत् की ओर लगाकर उसके मनको पवित्र बना देते हैं। ऐसे विषय तो अमृत हैं।

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ऐसे विषय भी वे पाँच ही हैं—शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। वैराग्य उत्पन्न करनेवाले, जगत‍्के मोहको दूर करनेवाले, अज्ञानका नाश करनेवाले, भगवत् के प्रति अहैतुक प्रेम पैदा करनेवाले, सन्त और शास्त्रोंके ‘शब्द’; वैराग्यको बढ़ानेवाले, विषयवासनाको मिटानेवाले, तितिक्षा बढ़ानेवाले, भगवत्-चरणोंमें मन खींचनेवाले, वनस्थली, आश्रमभूमि, गंगातटरेणु, वल्कलवस्त्र, महात्मा और परमात्माकी चरणधूलि आदिके ‘स्पर्श’; वैराग्य-वृद्धि करनेवाले, भगवान‍्में मन लगानेवाले, टूटे-फूटे महल, मृत मनुष्यकी भयानक मूर्ति, श्मशान और भगवान‍्की विभूतिसे पूर्ण सात्त्विक सुन्दरतासे युक्त ‘रूप’; स्वादसे प्रीति हटानेवाले, योगमें सहायक, सात्त्विकताकी वृद्धि करनेवाले, भगवत्प्रेम उत्पन्न करनेवाले, सात्त्विक भगवत्प्रसाद और रूखे-सूखे सादे ‘रस’ और वैराग्य बढ़ानेवाला रोगी शरीर और मुर्दोंकी ‘गन्ध’ तथा भगवान‍्में रुचि बढ़ानेवाली भगवद्विग्रहकी दिव्य ‘सुगन्धि’—ये विषय सात्त्विक बुद्धिसे सेवनीय हैं। इनके सेवनसे अन्त:करण पवित्र होता है और भगवान‍्में प्रीति बढ़ती है।

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भगवत्प्रीतिका यह अर्थ नहीं कि भगवत्प्रेमी जगत‍्का द्वेषी होता है। हाँ, संसार उसकी दृष्टिमें इस रूपमें नहीं रहता, जैसा साधारण लोगोंकी दृष्टिमें है; भगवान् अपनी योगमायाका पर्दा हटाकर उसके सामने प्रकट हो जाते हैं, इससे सारा संसार उसे एक भगवान‍्के रूपमें ही परिवर्तित दीखता है। अतएव वह और भी अधिक उत्साहसे सब कुछ अर्पण करके विश्वरूप परमात्माकी सेवा करता है।

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जबतक स्वार्थ है, तभीतक सेवामें त्रुटि रहती है, भगवत्प्रेमीको अपना कोई स्वार्थ नहीं रहता, इसलिये उसकी जान-अनजानमें की हुई प्रत्येक क्रिया स्वाभाविक ही लोकका उपकार करनेवाली होती है और वस्तुत: ऐसा पुरुष ही सच्चा स्वार्थी है; क्योंकि उसका प्रत्येक कार्य अपने आत्मा—परमात्माके लिये ही होता है, अपने लिये कोई अहितकर कार्य कर ही नहीं सकता और उसके मनमें अपने अतिरिक्त कोई दूसरा रहता नहीं।

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विषयप्रेमी मनुष्य ही स्वार्थी कहलाता है, पर वस्तुत: वह स्वार्थी नहीं होता। जो अपने ऊपर विपत्ति बुलाता है, वह स्वार्थका—अपने हितका साधक कैसे समझा जा सकता है? वह तो इन्द्रियोंके भोगोंको बटोरनेमें ही—धन, स्त्री, स्वादिष्ठ भोजन, यश, मान आदिके संग्रह करनेमें ही लगा रहता है, इसीको वह अपना स्वार्थ समझता है। परन्तु इस बातको भूल जाता है कि इन्द्रिय और विषयोंके संयोगसे मिलनेवाला सुख अन्तमें विषवत् दु:खदायी होता है। स्वादवश कुपथ्यसेवनसे और अतिरिक्त स्त्री-पुरुष-संगसे बीमारी होती है, धनके लोभसे नाना प्रकारकी विपत्तियाँ आती हैं, यश-मानके बटोरनेमें, दम्भ-छल करनेमें और उनके फलभोगोंमें बड़े-बड़े कष्ट झेलने पड़ते हैं। परिणाममें नरक तो है ही। भला इसको स्वार्थ कैसे कहा जा सकता है? इसमें तो स्वार्थका—अपने हितका नाश ही होता है; परंतु जबतक यह स्वार्थ रहता है, तबतक यथार्थ स्थायी सुख कभी नहीं मिल सकता।

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भगवत्प्रेमी पुरुष तो मुक्तिके स्वार्थका भी त्यागी होता है, ऐसा सुना जाता है। फिर जगत‍्के मामूली पदार्थोंकी तो बात ही क्या है; इसलिये जहाँतक बने विषयसुखजनित स्वार्थका त्याग करो, अपने शरीर, मन, बुद्धि और अपने कहे जानेवाले सब पदार्थ परमात्माके चरणोंमें अर्पण कर दो।

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सच्चा समर्पण वही है, जिसमें कुछ भी न बच रहे। जहाँतक मनुष्य कुछ बचा रखता है, छिपा रखता है, वहाँतक समर्पण पूर्ण नहीं होता—पूर्ण समर्पण करो, अन्तरमें खोज-खोजकर एक-एक चीज उन्हें दे डालो; फिर देखो, उनकी प्रेम-दृष्टिसे तुम किस प्रकार दिव्य आनन्दमें सराबोर हो जाते हो।

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उस दिव्य आनन्दको पाना ही तुम्हारे जीवनका उद्देश्य है, वही तुम्हारा स्वरूप है। तुम विकारी नहीं हो, तुममें दु:खका लेश नहीं है, सारा जगत् बदल जाय, सृष्टि या प्रलय हो जाय, तुममें कोई परिवर्तन नहीं होता। रोज-रोज सृष्टि-प्रलय होता है, सोना ही प्रलय है और फिर जागना ही सृष्टि है; परंतु तुम सोनेकी दोनों अवस्थाओं—स्वप्न और सुषुप्तिमें तथा जाग्रत् में एक ही हो, वह-के-वह हो, सब देखते हो, सबका अनुभव करते हो, तुम्हारे देखनेके स्वभावमें कोई फर्क नहीं पड़ता। हाँ, तुम देखते हुए भी अपनेको देखनेवाला न समझकर जो भोगने और करनेवाला समझ लेते हो, यह तुम्हारी भूल है, यही दोष है—माया है, इसे हटा दो, फिर तुम्हारा दिव्यानन्दस्वरूप तत्काल प्रकाशित हो जायगा।

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माया तबतक नहीं हटती, जबतक कि तुम उसे हटाना नहीं चाहते। मायाने तुम्हें नहीं बाँध रखा है, तुम्हींने मायाको पकड़ रखा है; छोड़ दो—जिसकी है उसे दे दो; बस, उसी क्षण तुम मुक्त हो जाओगे।

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परन्तु तुम्हारी यह मायाकी पकड़ है बड़ी अद‍्भुत! तुम्हारी पकड़में आते ही मायाका जाल बिछ जाता है और तुम उसमें फँस जाते हो। तुम पकड़ते हो, जाल नहीं बिछाते, पर तुम्हारी पकड़में आते ही उसमें जाल बिछानेकी शक्ति आ जाती है, जिससे तुम उसे छोड़ना भूल जाते हो, चारों ओर तुम्हें बन्धन-ही-बन्धन दिखायी देते हैं।

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इन बन्धनोंसे घबराकर जब उस जालसे निकलना चाहते हो, मायाको छोड़ना चाहते हो, तब अनायास ही तुम्हें मायापति भगवान‍्का स्मरण होता है, तुम उन्हें पुकारते हो, व्याकुल होकर टेर लगाते हो, वे तत्काल आकर जाल काट डालते हैं और तब तुम मायाको छोड़—उनकी माया उन्हें सौंपकर परम शुद्ध आनन्दमय हो जाते हो।

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मायाको छोड़ते ही भगवान‍्की गोदमें तुम्हें स्थान मिल जाता है, फिर तुम उनके और वह तुम्हारे हो जाते हैं, अन्तमें तुम और वह दोनों मिलकर एक हो जाते हो। उसके बाद जो कुछ होता है, उसे कोई न जान सकता है न कह सकता है। ‘नेति-नेति!’

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