सुखी होनेके उपाय
मनको आनन्द, प्रकाश, प्रेम, शान्ति और समतासे भर लो। चित्तकी शुद्धिका यही अर्थ है कि उसमें केवल दिव्य आनन्द, प्रकाश, प्रेम, शान्ति और समताकी पूर्णता हो, वह इन्हींसे भरा रहे। आनन्द ही प्रकाश है, प्रकाश ही सत् है, वही चेतन है, वही प्रेम और वही शान्ति है, उसीमें समता भरी है, वही सच्चिदानन्दघन है। बस, उसीसे चित्तके कोने-कोनेको भर लो। उसके सिवा सभी विचार अशुद्ध हैं, चित्तके लिये अस्पृश्य हैं।
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मनको मौन करो। मुँहसे न बोलनेका नाम ही मौन नहीं है, मौन कहते हैं चित्तके मौन हो जानेको। चित्त जगत्का मनन ही न करे, जगत्का कोई चित्र चित्तपटलपर रहे ही नहीं। बस, एकमात्र परमात्मामें ही चित्त रम जाय, वह उसीमें प्रविष्ट हो जाय। विश्वास करो यह स्थिति होती है, तुम्हारी भी यत्न करनेपर हो सकती है। ऐसा ध्यान हो सकता है, ऐसी समाधि सम्भव है, जिसमें जगत्की तो बात ही क्या, तन-मनकी भी सुधि नहीं रहती, अधिक क्या, ध्यान करनेवाला स्वयं ध्येयमें समाकर खो जाता है। इस आनन्दका मजा जबानसे कोई नहीं बता सकता, यह अनिर्वचनीय होता है, जिसको एक बार मिल गया, वह उसे कभी छोड़ना ही नहीं चाहता। परन्तु उल्लूको प्रकाशके सुखका क्या पता? जो ध्यान करता ही नहीं, जिसका चित्त रात-दिन जगत्का चिन्तन किया करता है, उसे क्या पता? विश्वास करो, चेष्टा करो, आठों पहर सावधान रहकर चित्तकी वृत्तियोंसे जगत्के चित्रको हटाकर उनमें आनन्दरूप परमात्माका प्रवेश कराओ, वे स्वयं आनन्दमयी हो उठें।
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स्मरण रखो, सब कुछ मनहीपर अवलम्बित है। तुम्हारा मन शुद्ध है तो तुम्हारे लिये जगत् शुद्ध है। तुम्हारे मनमें काम या क्रोध नहीं है, तुम्हारी मनोवृत्ति उन्हें नहीं पहचानती तो इन्द्रकी उर्वशीके सोलह शृंगारोंसे सजकर आनेपर भी एवं तुम्हारे सामने किसीके द्वारा तुम्हारा महान् अनिष्ट हो जानेपर भी तुमपर काम या क्रोधका असर नहीं हो सकता। शरीरसे तभी पाप होते हैं जब कि पाप तुम्हारे मनमें होते है। छोटे बच्चेके मनमें काम नहीं होता, वह युवतियोंके वक्ष:स्थलपर खेलता है, उसके शरीरमें कोई विकार नहीं होता। पुरुष उन्हीं नेत्रोंसे माताको देखता है और उन्हींसे अपनी स्त्रीको देखता है, उसी हाथसे माताका अंग स्पर्श करता है और उसीसे स्त्रीका अंग स्पर्श करता है, परन्तु पहलेमें कोई शरीर-विकार नहीं होता और दूसरेमें कामवासना जाग्रत् होती है। कारण क्या है—माताके दर्शन या स्पर्शके समय मनमें काम नहीं रहता और स्त्रीके दर्शन-स्पर्शमें रहता है। जो मनमें है वही बाहर आता है, क्रिया वही होती है जिसका संकल्प मनमें होता है।
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मनको निर्विषय करो, परमात्माके सिवा अन्य विषय-चिन्तनको सर्वथा हटाओ, ऐसा न हो सके तो शुभ विषयोंका चिन्तन करो। आनन्द, सुख, ज्ञान, शान्ति, समता, परोपकार, दया, प्रेम, करुणा, अहिंसा, सेवा, दान, मैत्री, ब्रह्मचर्य, संयम आदि भावोंका संग्रह और पोषण करो। तुम्हारे मनके अनुसार तुम्हारा वातावरण बन जायगा। तुम्हें वैसा ही संग मिलेगा और उसीके अनुसार क्रियाएँ होंगी। तुम्हारे मनमें द्वेष न होकर प्रेम होगा तो उसकी झलक तुम्हारी आँखोंपर, तुम्हारे चेहरेपर और तुम्हारी वाणीमें आवेगी। तुम्हें देखते ही, तुम्हारी वाणी सुनते ही, तुम्हारी आँखोंसे आँख मिलते ही लोगोंका तुम्हारी ओर आकर्षण होगा; प्रेमझाँकी होगी। वे भी तुम्हारे प्रेमी बन जायँगे। मनमें प्रेम होगा तो तुमसे क्रिया भी प्रेमकी ही होगी, फल यह होगा कि जगत् तुम्हारा प्रेमी बन जायगा। यही बात दूसरे सद्गुणोंकी समझो। तुम्हारे मनमें जिस भावकी अनन्यता या जिन भावोंकी प्रधानता होगी, तुमको बदलेमें भी वही भाव मिलेंगे। तुम्हारे मनमें आनन्द होगा, तुम्हें आनन्द मिलेगा; प्रेम होगा, प्रेम मिलेगा; दया होगी, दया मिलेगी—यही बात सबमें समझो। स्मरण रखो, तुम्हारे मनका पूर्ण प्रेम, तुम्हारे मनकी पूर्ण शान्ति, तुम्हारे शरीर, नेत्र और वाणीमें प्रकट होकर जगत्को प्रेम और शान्तिका दान दे सकती है। तुम्हारे दर्शन, स्पर्श और भाषणसे लोग प्रेम और शान्तिको पा सकते हैं। श्रीचैतन्यके स्पर्शमात्रसे लोग प्रेमी बन गये, उनके दर्शन, कीर्तन-श्रवणसे हिंसक जन्तु प्रेममत्त हो नाचने लगे। काकभुशुण्डिजीके आश्रमके इर्द-गिर्द चार-चार कोसमें आसुरी सम्पत्ति नहीं घुसने पाती थी। तुम भी ऐसे ही बन सकते हो।
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इसी प्रकार यदि तुम्हारे हृदयमें अज्ञान, द्वेष, दु:ख, विषाद, शोक, स्वार्थ, विषमता, अशान्ति, काम, क्रोध, लोभ, वैर, हिंसा आदि होंगे तो तुम्हारा वैसा ही वातावरण हो जायगा, वैसा ही संग और वैसी ही क्रिया होगी। फलत: तुम वैसे ही बन जाओगे। अपनेसे मिलनेवालोंको और जगत्को भी तुम यही चीजें दोगे। अच्छे-बुरे भाव सिर्फ एक बार मनमें उदय होकर सुख-दु:ख दे जाते हैं, इतना ही नहीं है, वे अपना संस्कार-बीज छोड़ जाते हैं, जो अनुकूल वातावरण पाकर ही बार-बार अंकुरित और फलित होते हैं। आज तुमने किसीसे द्वेष किया, उसका चित्र संस्कार-बीजरूपसे तुम्हारे मनपर अंकित हो गया, तुम द्वेषको पहचान गये, मौका पाकर वह फिर उदय होगा और तुम्हें दु:ख देगा। यही बात अच्छे भावोंके लिये है। अतएव बुरे भावोंका संचय और पोषण कभी न करो, मनमें इनको आने ही न दो। यह नरकाग्नि है, जो तुम्हें जलाती है और जलाती रहेगी। यह नये-नये पाप करवायेगी और उनका तार सहजमें टूटना कठिन हो जायगा। तुम्हें बार-बार नारकी योनियोंमें जा-जाकर असह्य यन्त्रणाएँ भोगनी पड़ेंगी, तब भी सहजमें छुटकारा नहीं मिलेगा।
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मनमें सद्भावनाओंको भरे रखो, सबका भला चाहो, सबका कल्याण चाहो, सबमें परमात्माकी भक्ति फैलने, सबमें सात्त्विक भाव बढ़ने और सबमें प्रेमविस्तार होनेकी भावना करो। विश्वास करो, तुम्हारे दृढ़ भावसे, तुम्हारी प्रबल शुद्ध इच्छाशक्तिसे तुम्हारी भावनाएँ, तुम्हारे संकल्प सत्य हो सकते हैं; तुम अपनी सद्भावनासे अनेकों दु:खियों, रोगियों, अज्ञानियों और पापियोंको दु:खमुक्त, रोगमुक्त, अज्ञानमुक्त और पापमुक्त कर उन्हें सुखी बना सकते हो। विश्वास करो, तुम अपनी सद्भावनाओंसे, सद्विचारोंसे, सात्त्विक संकल्पोंसे अपने आस-पास ही नहीं—सारे भूमण्डलपर सद्भावना, सद्विचार और सात्त्विक संकल्पोंका विस्तार कर सकते हो। स्वयं परम सुखी हो सकते हो और जगत्के लोगोंको सुखी बना सकते हो।
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इनका विस्तार अभी न हो तो कम-से-कम तुम स्वयं तो सुखी हो ही सकते हो यह तुम्हारे हाथकी बात है। तामसी-राजसी कुविचारों और कुसंकल्पोंको पाल-पालकर उसका पोषण कर-कर तुम दु:खमय और पापमय बन सकते हो तथा उनको हटाकर सात्त्विक विचारों और सत्संकल्पोंको हृदयमें रखकर उन्हें भलीभाँति संचितकर पाल-पोसकर तुम आनन्दमय और पुण्यमय बन सकते हो। याद रखो, सत्संकल्प ही स्वर्ग है और व्यर्थ संकल्प तथा पापसंकल्प ही नरक है। सत्संकल्प और सद्विचार ही अमृत है और व्यर्थ तथा बुरा संकल्प और व्यर्थ तथा बुरा विचार ही मृत्यु है, अतिमृत्यु है।
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तुम यदि सत्संकल्पोंके कारण चित्तकी वृत्तियोंको आनन्दमय, पुण्यमय, प्रकाशमय, शान्तिमय और समतामय बना सके तो विश्वास करो, तुम भगवान्के अत्यन्त समीप पहुँच गये। तुम्हारा मनुष्य-जीवन सफल हो गया। यह तुम्हारे हाथकी बात है। सोचो, विचार करो और दृढ़ताके साथ मनको सद्विचारोंसे भरनेके प्रयत्नमें प्राणपणसे लग जाओ।