सच्ची शिक्षा
जो अपनी सारी इन्द्रियोंको और मन-बुद्धिको भगवान्के काममें लगाये रखता है, वही बुद्धिमान् भक्त है। कानसे भगवान्के गुण सुनो, आँखसे संतोंको देखो, जीभसे भगवान्के गुण गाओ, हाथसे भगवान्की सेवा करो, पैरसे भगवान्के स्थानोंमें जाओ, मनसे भगवान्का चिन्तन करो और बुद्धिसे भगवान्का विचार करो। तुम्हारा जीवन पवित्र—भगवन्मय बन जायगा।
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संगसे ही आदमी अच्छा-बुरा बनता है। संग केवल मनुष्यका नहीं, इन्द्रियोंके विषयमात्रका ही अच्छा-बुरा संग होता है। अच्छे संगका सेवन करो, बुरा संग सदा छोड़ो। कानसे बुरी बात मत सुनो, आँखसे बुरी चीजें मत देखो, जीभसे बुरी बात मत कहो, हाथसे बुरा काम मत करो, पैरसे बुरी जगह मत जाओ, मनसे बुरा चिन्तन मत करो और बुद्धिसे बुरे विचार मत करो। तुम सब बुराइयोंसे आप ही छूट जाओगे।
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ऐसी पुस्तक कभी मत पढ़ो जिससे विषयोंका लालच बढ़े और पापमें मन जाय, चाहे उसका नाम शास्त्र ही क्यों न हो। विषयोंसे मनको हटानेवाली और पापसे बचानेकी शिक्षा देनेवाली पुस्तकें पढ़ो; ऐसी ही बातें सुनो और ऐसे ही स्थानमें रहो।
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विषयचिन्तन सर्वनाशकी जड़ है और भगवच्चिन्तन दु:खोंसे छूटनेका मूलमन्त्र है। बड़ी सावधानीसे मनसे विषयोंके चिन्तनको हटाते रहो और निरन्तर भगवान्का चिन्तन करो। ज्यों-ज्यों विषय-चिन्तन कम होकर भगवच्चिन्तन बढ़ेगा, त्यों-ही-त्यों तुम शान्ति और सुखके समीप पहुँचोगे। विषयचिन्तन सदाचारीको भी पापके पंकमें डाल देता है और भगवत्-चिन्तन अत्यन्त दुराचारीको शीघ्र ही साधु—भक्त बना देता है।
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दो केन्द्र हैं—एक दु:खका, दूसरा सुखका। दु:खके केन्द्रमें बैठकर चाहे जितनी सुखकी बातें करो, कभी सुखी नहीं हो सकते और सुखके केन्द्रमें पहुँचनेपर दु:ख ढूँढ़े भी नहीं मिलता। विषयका आश्रय दु:खका केन्द्र है और भगवान्का आश्रय सुखका। चाहे कोई कितनी ही ऊँची-ऊँची बातें करे, जबतक विषयके आश्रयसे सुख पानेकी आशा है तबतक वह वैसे ही सुखी नहीं हो सकता जैसे आगकी लपटोंमें पड़ा हुआ आदमी केवल बातोंसे शीतलता नहीं पाता। अतएव जगत्का आश्रय छोड़कर भगवान्का आश्रय ग्रहण करो; उस सुखके केन्द्रमें स्थित होकर फिर चाहे दु:खालय संसारकी बात भी करो, तुम्हें दु:ख उसी प्रकार नहीं छू सकेगा जिस प्रकार हिमालयकी बर्फमें बैठे हुए पुरुषको गरमी नहीं छू सकती।
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सबमें परमात्माका निवास समझकर सबका सम्मान करो, अपमान तो किसीका भी मत करो। स्वयं मान छोड़कर सबका सम्मान करोगे, दूसरोंके मानपर तुम्हारा कोई भी आचरण किसी प्रकार ठेस पहुँचानेवाला नहीं होगा तो तुम आप ही सबके प्यारे बन जाओगे। फिर तुम्हें सभी हृदयसे चाहेंगे और तुम अपने इच्छानुसार अधिकांशको सन्मार्गपर ला सकोगे।
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दूसरेके साथ ऐसा कोई बुरा बर्ताव कभी न करो, जैसा अपने साथ दूसरोंसे तुम नहीं चाहते। यदि तुम दूसरोंसे सम्मान, सत्कार, उपकार, दया, सेवा, सहायता, मैत्री और प्रेम आदिकी आशा रखते हो तो पहले दूसरोंके प्रति तुम यही सब बर्ताव करो।
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अपनी अच्छी बात दूसरेसे प्रेमपूर्वक कहो, परन्तु यह आग्रह न करो कि वह तुम्हारी बात मान ही ले और न माननेवालेको कभी न तो बुरा कहो तथा न मनमें ही बुरा समझो। उसे अपनी बात मनवानेकी नहीं, परन्तु निवेदन करनेकी चेष्टा करो। कभी अपनी भूल हो तो मानभंगके भयसे अपनी बातपर अड़े मत रहो। भूल स्वीकार करनेमें हानि तो होती ही नहीं, ठीक रास्तेपर आनेसे बड़ा भारी लाभ अवश्य होता है।
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दूसरोंसे अपनी बातके समर्थनकी नीयतसे ही उनकी सम्मति मत चाहो। भूल-चूक बतानेके लिये ही उनकी राय पूछो और यदि कोई भूल बतावे तो बुरा न मानकर उसपर विचार करो तथा उसका उपकार मानो। यदि वह कोई ऐसी भूल बतावे जो अपनेमें न दीखे, तब भी उसकी नीयतपर सन्देह न करो, फिर गौर करके अपने हृदय और आचरणोंको टटोलो, कहीं-न-कहीं भूल लुकी-छिपी मिल जायगी। कदाचित् न भी मिले और भूल बतलानेवाला ही भूला हो, तो भी उसकी कृपा मानो, जिसने तुम्हें सुधारनेके लिये तुम्हारी भूल बतलाने-जैसा छोटा काम स्वीकार किया और इस काममें अपना मन और समय लगाया।
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तुम्हारी रायपर कोई न चले तो बुरा मत मानो; न उससे घृणा करो। बल्कि तुम्हारी रायके अनुसार काम न करनेके कारण उसको कोई नुकसान पहुँचा हो और वह फिर कभी मिले तो उससे यह मत कहो कि मेरी राय न माननेका फल तुम्हें मिला है। उसके साथ प्रेमसे मिलो, उसे समयपर फिर अपनी नेक सलाह दो और अच्छे मार्गपर चलानेकी चेष्टा करो।
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किसीमें कोई दोष देखकर उसके लिये मनमें यह निश्चय न कर बैठो कि वह बुरा ही आदमी है! हो सकता है, दोष देखनेमें तुमने भूल की हो अथवा किसी परिस्थितिमें पड़कर मन न रहनेपर भी उससे वह दोष बन गया हो। अच्छे-बुरे गुण सभीमें हैं; उसके अच्छे गुणोंको देखकर उसपर प्रेम करो।
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सच्चा दोष दीखनेपर भी किसीका अपमान न करो या उसपर क्रोध करके दोष निकालनेकी चेष्टा न करो। कभी-कभी तुम्हारे अपमान या क्रोधसे दोषी मनुष्यकी दूषित वृत्ति दब जायगी, परन्तु उस वृत्तिका नाश नहीं होगा। तुम्हारा किया हुआ अपमान या क्रोध उसके मनमें चुभता रहेगा और यदि वह भूलमें पड़ गया तो अपने दोषके लिये पश्चात्ताप न कर तुमसे अपमान या क्रोधका बदला लेनेकी धुनमें लगा रहेगा। इससे उसमें भी नये दोष पैदा होंगे और उसकी द्वेषयुक्त चेष्टासे भड़ककर तुम भी अधिक क्रोधी और हिंसक बन जाओगे। किसीका दोष जड़से निकालना हो तो उसके प्रिय बनकर उसकी सेवा कर-कर उसके मनपर अधिकार जमाओ और फिर उसे समझाओ। सम्भव है इसमें सफलता कुछ देरसे मिले, परंतु मिलेगी अवश्य और स्थायी मिलेगी। याद रखो—राज, समाज और व्यक्तियोंने दण्ड दे-देकर अपराधियोंकी संख्या बढ़ा दी है। जो खुद दोष करते हैं और राग-द्वेषवश यथार्थ दोषका निर्णय नहीं कर सकते, उन्हें दूसरोंके दोष देखने और उन्हें दण्ड देनेका कोई अधिकार नहीं है।
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एक बातका सदा खयाल रखो। अपने पुत्र, भाई, सेवक या किसी और अपनेसे नीचे पद या स्थितिवालेका भी दूसरोंके सामने कभी अपमान मत करो। कोई भी आदमी अपना अपमान सहना नहीं चाहता। अपमानित मनुष्य चाहे बोल न सके, परंतु उसके दिलमें बड़ा दु:ख होता है और उसके मनमें अपना अपमान करनेवालेके प्रति बुरी भावना जरूर पैदा होती है। इसलिये किसीको सावधान करनेके लिये कुछ कहना ही हो तो एकान्तमें कहो और वह भी जहाँतक बने सहानुभूति और प्रेमकी भाषामें।
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तुम अपने सामने किसीको कोई दोष करते देख लो और वह जान जाय कि तुमने उसके दोषको देख लिया है तो फिर उससे और कुछ भी मत कहो। वह स्वयं लज्जित हो रहा है। कह-सुनकर उसका संकोच भंगकर उसे ढीठ न बनाओ!
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जैसे अपनी लाभ-हानिका खयाल रखते हो वैसे ही दूसरोंके हानि-लाभका भी ध्यान रखो। किसीके यहाँसे माँगकर मँगवायी हुई चीज खराब न होने पावे तथा काम निकलते ही उसके यहाँ सावधानीके साथ पहुँच जाय, इस बातकी विशेष चिन्ता रखो नहीं तो उसको दु:ख होगा और लोग चीजें मँगनी देनी बन्द कर देंगे, जिससे दूसरे गरीबोंका सुभीता जाता रहेगा। और जैसे दूसरोंसे चीजें मँगवा लेते हो, वैसे ही अपनी देनेमें भी कभी संकोच न करो। जहाँतक हो सके किसीसे कोई भी चीज बिना ही माँगे अपना काम चलाओ। माँगकर न तो संकोचमें पड़ो और न किसीको संकोचमें डालो।
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दु:खी-गरीब भाई-बहनोंके साथ विशेष प्रेम और सरलताका बर्ताव करो। उनकी सेवा करनेमें न तो ऐसा खयाल करो और न कभी यह उनपर प्रकट ही होने दो कि तुम बड़े आदमी या समर्थ हो, इससे उनका उपकार कर रहे हो या उनपर एहसान कर रहे हो। गरीब भाई-बहनोंकी कभी कोई सेवा तुमसे बन जाय तो उनको कभी भूलकर भी उसका स्मरण तो कराओ ही मत, बल्कि मन-ही-मन उनका उपकार मानो कि उन्होंने तुम्हारी सेवा स्वीकार की। परंतु इस कृतज्ञताको भी अपने मनमें ही रखो। उनपर प्रकाश न करो। नहीं तो शायद वे समझेंगे कि तुम अपने उपकारकी उन्हें याद दिला रहे हो; इससे उन्हें संकोच होगा और अपनी गरीबीकी याद करके वे दु:खी हो जायँगे। जो गिनानेके लिये किसीकी सहायता करता है वह तो उसे जलानेके लिये आग जलाता है। उसका ताप मिटानेके लिये नहीं।
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गरीब-दु:खी गृहस्थोंकी सहायता या सेवा करना चाहो तो अत्यन्त गुप्तरूपसे करो, हो सके तो उन्हें भी पता न लगने दो। और सेवा करके उसे सदाके लिये भूल जाओ, मानो तुमने कभी कुछ किया ही नहीं।
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जैसे तुम्हें अपने समयका ध्यान रहता है, ऐसे ही दूसरोंके समयका भी ध्यान रखो। किसी भी भले आदमीके पास बिना काम जाकर न बैठो। शिष्टाचारसे या किसी कामसे जाना हो तो उसका सुभीता देखकर जाओ और अपना काम होते ही तुरंत वहाँसे उठ जाओ। अनावश्यक बैठकर उसे संकोचमें मत डालो। यदि वहाँ और आदमी बैठे हों तो अपनी बातचीत जल्दी समाप्त कर लो, जिससे दूसरोंको भी बात करनेका अवसर मिले।
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दो आदमी बात करते हों तो उनकी बात सुननेकी चेष्टा मत करो। वरं तुम्हारे वहाँ रहनेसे उन्हें संकोच होता हो तो वहाँसे अलग हट जाओ और पीछे भी उनसे वह बात खोद-खोदकर मत पूछो। यदि उनकी कोई गुप्त बात है तो या तो तुम्हारे आग्रह करनेपर उन्हें बड़े संकोचमें पड़ना होगा या छिपानेके लिये झूठ बोलना पड़ेगा। जिससे आगे चलकर और भी हानियाँ होंगी।
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विपत्तिके समय किसीसे सहायता लेना नितान्त आवश्यक ही हो और वह खुशीके साथ दे तो कृतज्ञ होकर उसे स्वीकार करो; परन्तु उससे अनुचित लाभ न उठाओ। कोई आदमी दयालु है, उसने तुम्हारी सहायता की है, तो फिर बार-बार उसे अपने दु:ख सुनाकर तंग न करो।
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किसी भी आदमीसे बात करनेके समय पहले उसकी बात सुनो। दु:खकी बात तो विशेष ध्यानसे सुनो। तुम्हारी दृष्टिमें चाहे वह दु:ख छोटा हो; परंतु उसकी दृष्टिमें तो वही महान् है। उसे सान्त्वना दो, समझाओ, हो सके तो सहायता करो; परंतु रूखा बर्ताव न करो। खास करके गरीबकी बात सुननेमें तो कभी भूलकर भी रूखेपनसे काम न लो। उसके साथ ऐसा बर्ताव करो, जिससे वह संकोच और भय छोड़कर कम-से-कम अपना दु:ख तुम्हें आसानीसे सुना सके और तुम्हें अपना स्नेही समझने लगे।
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दूसरेसे बात करते समय अपनी चर्चा न छेड़ो और न अपनी या अपने सम्बन्धी और घरवालोंकी ही बड़ाई करो। तुम्हारे सम्बन्धीकी बात सुननेमें दूसरोंको उतना रस नहीं आता जितना उन्हें अपना सुनानेमें आता है। तुम उनकी सुनो और उनसे उन्हींके सम्बन्धकी वैसी प्रिय बात करो, जिससे उन्हें सुख मिले और उनके हृदयमें तुम्हारे प्रति प्रेम और सौहार्द उपजे। जैसे माताके सामने उसके छोटे बच्चेकी बात करनेसे उसे सुख मिलता है और उसका हृदय खिलता है।
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बात करनेवालोंके बीचमें बोलकर उनकी बातोंका सिलसिला मत तोड़ो और किसीके कुछ कहनेके समय बीचमें उसकी बातका खण्डन भी न करो। बिना बोले काम चल जाय तो बहुत ही अच्छी बात है। यदि खण्डन करना आवश्यक ही हो तो पीछे शान्ति और आदरके साथ नम्रतापूर्वक अपनी बात कहो।
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इन्द्रियोंपर और मनपर विजय पानेकी चेष्टा करो। अपनी कमजोरियोंसे सावधान रहो, धीरजके साथ परमात्मापर भरोसा रखकर इन्द्रियोंको बुरे विषयोंकी ओर जानेसे रोको, मनको प्रभु-चिन्तन या सत्-चिन्तनके कार्यमें रोककर कुविषयोंसे हटाओ।
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उखड़ो मत, झल्ला न उठो, झुँझलाना छोड़ दो, धीरतासे सुनो, अपनी झूठी निन्दा भी चुपचाप सुनो, फिर शान्त चित्तसे विचार करो, क्यों वह तुम्हारी निन्दा करता है? जरूर कोई कारण मिलेगा, अधिकांशमें तो अपनी कोई कमजोरी ही मिलेगी, उसे दूर करो और निन्दकका उपकार मानो।
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फूलो मत, हर्ष-विह्वल न हो उठो, बड़ाई सुनकर अपनी कमजोरियोंको न भूल जाओ और उनसे लापरवाह न बनो। बड़ाईका कारण अपनेको समझकर अभिमान न करो, परमात्माकी कृपा मानो, जिसने तुमसे बड़ाईका काम करवाया। बड़ाई करनेवालोंका उपकार मानो, पर परमात्मामें प्रार्थना करो कि वह बड़ाई न दें। बड़ाईको कभी गले न लगाओ, बड़ी मीठी छुरी है, अजब हलाहलकी मीठी घूँट है; बड़ाईसे सदा दूर भागो। अच्छा कार्य करो, परंतु बड़ाईके लिये नहीं।
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‘शिव’ की इन बातोंपर ध्यान दो, याद रखो, तुमने इनका पालन किया तो तुम सचमुच शिक्षित हो जाओगे, यही सच्ची शिक्षा है।