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शिक्षा और अधिकार

आजकल शिक्षा-प्रचारकी ओर लोगोंका ध्यान लगा है, लगना भी चाहिये। शिक्षासे ही जीवन यथार्थ मनुष्य-जीवन बनता है, परन्तु जितना ध्यान परीक्षामें उत्तीर्ण होने तथा करानेका रहता है, उतना यथार्थ योग्यता बढ़ानेका नहीं। यही कारण है कि आजकल बहुत-से उपाधिधारी सज्जन उक्त विषयकी यथार्थ जानकारीसे शून्य ही पाये जाते हैं। परीक्षाके समय पाठ रटकर उत्तीर्ण होनेसे वास्तविक योग्यता नहीं बढ़ती, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है।

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परन्तु यथार्थ सच्चा जीवन तो कोरी योग्यतासे भी नहीं बनता। आजकल कलाओंपर बड़ा जोर है; लेखनकला, वक्तृत्वकला और काव्यकला आदिमें निपुण होनेकी बड़ी चेष्टा होती है। मेहनत करनेवाले पुरुष सफल भी होते हैं। किसी भी विषयपर लेख लिखकर, वक्तृता सुनाकर या काव्य-रचना कर वे लोगोंको कुछ कालके लिये मुग्ध और प्रभावित कर सकते हैं। परन्तु वास्तविक अनुभव बिना, केवल कला उनके जीवनका केवल बाह्य प्रदर्शनमात्र होती है, निर्जीव शरीरकी भाँति उससे कोई प्रकृत लाभ नहीं होता।

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वेदान्तके परीक्षोत्तीर्ण विद्वान् वेदान्तपर लिखने और बोलनेमें प्रत्येक प्रक्रियाका सूक्ष्मसे भी सूक्ष्मतम विवेचन कर देंगे। परन्तु क्रियारूपमें उनके पास कुछ भी नहीं मिलेगा, वे स्वयं शोकसागरमें डूबे हुए मिलेंगे। उनका वेदान्त केवल अध्ययन, शास्त्रार्थ या लोकप्रदर्शनकी वस्तु होगा। यही हाल भक्तिकी उपाधि धारण करनेवाले वक्तृत्व और लेखनकलामें कुशल भक्त-नामधारियोंका मिलेगा। कार्यक्षेत्रमें भक्ति विषयोंमें ही मिलेगी, परन्तु वक्तृता या लेखमें भक्तिका स्रोत बह जायगा। यह बाह्य जीवन है।

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तुलसी, सूर, दादू, कबीर, मीरा आदिकी रचनाओंमें और केवल कविताके भाव और सौन्दर्यकी दृष्टिसे काव्य-रचना करनेवालोंके महाकाव्योंमें यही बड़ा भारी अन्तर है। सम्भव है, इनकी कविता कलाकी दृष्टिसे तुलसी, सूरके टक्‍करकी हो या दादू, कबीर, मीरा आदि संतोंकी कविताओंसे बहुत बढ़ी-चढ़ी हो; परन्तु दादू, कबीर, मीराका-सा हृदय और अनुभव इनमें कहाँसे मिलेगा?

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ज्ञान, भक्ति, योग, वैराग्य, धर्म और विज्ञान आदि विषयोंमें इसलिये गुरु और शिष्य दोनोंके अधिकारकी प्रधानता है। ये बाजारू चीजें नहीं हैं। इसलिये ये सब विषय गुरुमुखसे पढ़नेके माने जाते हैं। लेख या व्याख्यानबाजीके नहीं! जबसे अनुभवरहित लोगोंने केवल किताबी ज्ञानके आधारपर इधर-उधरसे मसाला एकत्र करके लिखना और उपदेश देना शुरू किया, जबसे ये बाजारकी वस्तुएँ हो गयीं, तभीसे इनका महत्त्व कम हो गया। क्योंकि अनुभवशून्य लेखों और व्याख्यानोंके अनुसार आचरण करनेवालोंको कोई विशेष लाभ नहीं हुआ, इससे उसकी श्रद्धा घट गयी।

वर्षों तपस्या और साधन करके गुरु-कृपा और भगवत्कृपासे जिन्होंने तत्त्वकी उपलब्धि की है, वे ही उस तत्त्वका उपदेश देनेके अधिकारी हैं और जो जप तथा साधनोंके द्वारा उस तत्त्वको पानेका सच्चा अभिलाषी है, वही गुरु और हरिका भक्त मनुष्य सुननेका अधिकारी है। आज प्राय: इन दोनोंका अभाव है, इसीसे असली लाभ नहीं होता।

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सभी बातोंमें दिखावापन आ जानेसे लोग केवल ऊपरकी बातें देखते हैं; क्योंकि वे भी भीतर प्रवेश करना नहीं चाहते। कौन कैसा बोल सकता है, कैसा लिख सकता है, किसकी रचना कैसी होती है, इसी ओर लोगोंका ध्यान है, सच्चे अनुभवी हृदयकी खोज नहीं है। परन्तु यह नियम है कि सच्चे अनुभवी बिना यथार्थ तत्त्वका पता नहीं लग सकता। जो जिस विषयका तत्त्वज्ञ होता है वह चाहे दूसरे विषयोंमें बिलकुल अनभिज्ञ हो, चाहे वह कलाकी दृष्टिसे दूषित भाषामें ही बोलता हो, परन्तु उस तत्त्वका पता उसीसे लग सकता है। चित्रकार या स्वर्णकार अथवा अन्य कोई कलाकार चाहे शुद्ध संस्कृत या अंग्रेजीमें अपने विषयका प्रतिपादन न कर सकते हों, चाहे उन विषयोंपर सुन्दर कविता न लिख सकते हों; परन्तु उनकी विद्या सीखनेके लिये बड़े-बडे़ विद्वानोंको भी उन अनुभवियोंके पास ही जाना पड़ेगा। बड़े-से-बड़े महाराजा और महान् कवि भी रोगकी चिकित्साके लिये अनुभवी वैद्यकी ही शरण लेंगे। वस्तुत: अनुभव ही बड़ा है; विद्या या कला उसके साथ हो तो सोना और सुगन्ध दोनों हैं। तुलसी, सूर आदिमें दोनों बातें थीं।

परन्तु जिसको अनुभव हो और विद्या न हो तो चाहे वह दूसरोंको उतना लाभ न पहुँचा सके, चाहे वह दूसरोंको आकर्षित न कर सके, पर उसको तो उस तत्त्वकी उपलब्धि हो ही गयी। अनुभवहीन विद्या या कला, प्राणहीन शरीरके समान निरर्थक होती है। इसलिये भगवान् श्रीमद्भागवतमें कहते हैं—

शब्दब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात् परे यदि।
श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षत:॥
(११।११।१८)

जो पुरुष वेदको पूरा पढ़ गया—वेदमें पारंगत हो गया, परन्तु जिसने परब्रह्मको नहीं जाना, उसे बाँझ गौको पालनेवालेके समान केवल परिश्रम ही हाथ लगता है। यही हाल अनुभवहीन विद्याका है। विद्या न होकर भी जिसके पास अनुभव हो—वस्तु हो, उसीकी सेवा करके, आदर करके उससे उस वस्तुके प्राप्त करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। कलाहीन समझकर उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये।

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मनुष्यको अनुभवकी प्राप्तिके लिये—तत्त्वकी उपलब्धिके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये और वास्तविक तत्त्वकी उपलब्धिके बाद ही उस तत्त्वके सम्बन्धमें कुछ बोलना या लिखना चाहिये। तभी उस बोलनेवालेका यथार्थ प्रभाव पड़ता है और उससे काम होता है। यदि ऐसा नहीं होगा और केवल कलाके नामपर अनुभवरहित लेखों, उपदेशों, वक्तृताओं और कविताओंकी शब्दाडम्बरभरी बाढ़ यों ही बहती रहेगी तो इसके साथ अनुभवी पुरुषोंके वचनोंकी भी कोई कीमत नहीं रह जायगी और इसलिये उनका प्राप्त होना, पहचानना तथा समझना भी कठिन हो जायगा।

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हर एक विषयपर हर एकके बोलनेका अधिकार इसीलिये नहीं माना जाता था; परन्तु आजकी दशा विपरीत है। आज तो महान् मिथ्यावादी सत्यपर, विषयी वेदान्तपर, कायर शूरतापर, व्यभिचारी ब्रह्मचर्यपर, असती पातिव्रतपर, स्वेच्छाचारी मर्यादापर, भोगी वैराग्यपर, असाधु साधुतापर और नास्तिक भक्तिपर लिखते तथा बोलते हैं। सभी क्षेत्रोंमें यही गड़बड़झाला हो रहा है। इसीलिये आज ‘सब धान बाईस पसेरी’ हो रहा है और अच्छे-बुरेकी पहचान प्राय: नष्ट हो चली है।

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