सफल जीवन
जबतक संसारके भोगोंकी चाह है तबतक मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता। जितनी चाह बढ़ती है उतना ही दु:खोंका विस्तार होता है, परंतु ज्यों-ज्यों चाह पूरी होती है त्यों-त्यों चाह बढ़ती हैं।
••••
दु:खोंसे छूटना हो तो चाह छोड़ो, दु:खोंको कम करना हो तो चाह कम करो और चाह कम करनी हो तो चाहको पूरा करनेकी इच्छाका त्याग कर दो। चाहरूपी आगमें विषयरूपी घीकी आहुति मत दो, उसपर सन्तोषका शीतल जल छोड़कर उसे बिलकुल बुझा दो।
••••
विषय-सुखसे निराश होना सच्चे सुखकी प्राप्तिकी ओर बढ़ना है, विषयोंकी चिन्ता छूटे बिना सच्चे सुखका चिन्तन नहीं हो सकता। वे पुरुष वास्तवमें भाग्यवान् हैं जो विषय-सुखसे वंचित हैं।
••••
जिसके सांसारिक विषय जितने अधिक होते हैं; वह प्राय: भगवान्से उतना ही अधिक दूर रहता है, विषयी पुरुषका वातावरण ही ऐसा बन जाता है कि उसके मनमें भगवान्की ओर झुकनेकी अभिलाषा सहजमें उत्पन्न नहीं होती। भगवत्प्राप्तिकी अभिलाषा सत्संग और सद्ग्रन्थोंके द्वारा भगवान्का प्रभाव जाननेसे पैदा होती है। विषयी पुरुषोंको न तो सत्संगका अवसर मिलता है और न सद्ग्रन्थोंके पढ़ने-सुननेके लिये ही फुरसत मिलती है।
••••
उदाहरण देखना हो तो अधिकांश राजाओं, अफसरों, धनियों और अमीरोंकी दशा देख लो। यदि इनमेंसे आप कोई हों तो अपने हृदयपर हाथ रखकर सोचो। यश कमाना, लोगोंपर प्रभाव बनाये रखना, मौज-शौक करना, खुशामदियोंसे घिरे रहना, चापलूस और चन्दा माँगनेवालोंसे तंग रहना, महल-मकान बनवाना, सैर-सपाटा करना, नाटक-सिनेमा देखना, विनोद करना, परनिन्दा और परचर्चाको कहना-सुनना, भोग-वासना पूर्ण करना, विरोधियोंको दबाना, समान सम्मान और कीर्तिवालोंको नीचा दिखाना आदि कितने ही परम आवश्यक प्रतीत होनेवाले प्रपंच पीछे लगे रहते हैं। सुबह उठनेसे लेकर रातको सोनेतक किसी समय भगवन्नामस्मरण और सद्ग्रन्थके अध्ययनकी कल्पना ही मनमें नहीं आती।
••••
यथार्थ संत-महात्मा लोभहीन होनेके कारण ऐसे लोगोंके दरवाजेपर जाते नहीं। कोई स्वाभाविक दयावश चला भी जाय तो ऐसे लोग उसे किसी कामनासे आया हुआ समझकर उससे लाभ नहीं उठाते, कोई-कोई तो तिरस्कारतक कर बैठते हैं और स्वयं किसी संत-महात्माके पास जाते नहीं, प्रथम तो संत-महात्मासम्बन्धी चर्चा ही उनके कानोंतक नहीं पहुँचने पाती; यदि कहीं चर्चा होती है तो उनपर अपने मान, कल्पित स्वरूप अथवा पोजीशनका ऐसा भूत सवार रहता है जो मान-भंगका भय दिखाकर उन्हें अमीर-गरीबमें समानभाव रखनेवाले और सबके साथ प्रेमसे मिलनेवाले महात्माओंके पास जाने नहीं देता।
••••
परंतु यह बात नहीं है कि सभी ऐसे ही होते हों। खूब धन-दौलत, मान-सम्मान और पद-मर्यादामें रहते हुए भी भगवान्की ओर चित्त लगानेवाले पुरुष सदासे होते आये हैं और अब भी हैं; पर उनकी संख्या बहुत ही थोड़ी होती है और पूर्वजन्मके विशेष साधनाके बलसे ही वे प्रतिकूल वायुमण्डलमें रहकर अपनी स्थितिको सँभाले रहते हैं और लक्ष्यको नहीं भूलते।
••••
सच्चा सुख भगवान् अथवा भगवान्के अनन्य प्रेमकी प्राप्तिमें ही है और वह तभी प्राप्त हो सकता है जब मनुष्यका जीवन उस सुखकी ओर ले जानेवाले साधनोंसे भर जाय। वे साधन विषय-प्रेमके सर्वथा विरोधी होते हैं। इसीलिये संतों और अनुभवी महात्माओंने विषयोंको विषवत् छोड़ देनेकी सलाह दी है। जो मनुष्य विषयोंसे चिपटा रहकर विषय-भोगको सुख-प्राप्तिका साधन समझकर उनमें रचा-पचा रहता है और अपनेको भगवत्-प्राप्तिका अभिलाषी भी बतलाता है, वह या तो धोखेमें है या जान-बूझकर दम्भ करता है। जबतक मनुष्य अकिंचन नहीं बन जाता, तबतक भगवान्को पानेका अधिकारी नहीं होता। अकिंचनता वस्तुत: मानसिक ही होती है, परंतु जो आसक्तिवश बाहरका ही त्याग नहीं कर सकता उसके लिये मानसिक अकिंचनता तो बहुत दूरकी बात है। त्यागका अभ्यास दोनों प्रकारसे करना चाहिये; बाहरसे भी और भीतरसे भी। जो लोग भोगोंको तुच्छ कहकर उन्हें आसक्तिपूर्वक भोगते हुए ही ब्रह्मज्ञानी बननेका दावा करते हैं, वे भी धोखा खाते हैं और जो बाहरसे भोगोंका त्यागकर मनसे उन्हें निकाल देनेकी जरूरत ही नहीं समझते वे भी भ्रममें ही हैं।
••••
जहाँतक बने, विषयोंका संग्रह न करो, विषयोंका चिन्तन न करो, विषयी पुरुषोंका संग न करो, विषयासक्ति बढ़ानेवाले दृश्य न देखो, बात न सुनो और इस तरहके ग्रन्थ न पढ़ो। मानका, धनका, रूपका लोभ उत्पन्न होता हो ऐसे हर एक संगसे भरसक दूर रहो। लोकमें मान न हुआ, धन न बढ़ा तो इससे तुम्हारी कोई हानि नहीं होती। यदि संसारके सारे सुखोंसे वंचित रहकर भी, संसारके दु:ख और कष्टोंसे सर्वदा पीड़ित रहकर भी तुम अपने जीवनको भगवान्की ओर लगाये रख सको तो समझो कि तुम्हारा जीवन सार्थक है; परन्तु यदि तुम सब प्रकारसे धन-सम्पत्ति, मान-यश और लौकिक विद्या-बुद्धिसे भरपूर हुए, लेकिन तुम्हारा हृदय भगवत्प्रेमसे रहित है तो निश्चय समझो कि तुम्हारा जीवन विषयी लोगोंकी दृष्टिमें चाहे जितना ऊँचा हो, बड़े गौरवका हो, परन्तु असलमें सर्वथा व्यर्थ है। व्यर्थ ही नहीं, अगले जन्ममें आनेवाले महान् कष्टोंका कारण भी है। अतएव विषयोंसे मनको हटाकर भगवान्में लगाओ और मानव-जीवनको सफल करो।