वैराग्य और अभ्यास
जबतक भोगोंमें वैराग्य नहीं होगा, तबतक यथार्थ निष्काम कर्म, भक्ति और ज्ञान—इनमेंसे किसीकी प्राप्ति नहीं हो सकेगी! वैराग्यके आधारपर ही ये साधन टिकते हैं और बढ़ते हैं। इसीलिये अभ्यासके साथ वैराग्यकी आवश्यकता बतलायी गयी है। बिना वैराग्यका अभ्यास प्राय: आडम्बर उत्पन्न करता है।
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जिनके मनमें वैराग्य नहीं है, जो भोगोंमें रचे-पचे हैं तथा भोग-वासनासे ही कर्म, भक्ति, ज्ञानका आचरण करते हैं, वे लोग पापाचरण करनेवाले तथा कुछ भी न करनेवालोंसे हजारों दर्जे अच्छे अवश्य हैं, परन्तु वास्तविक निष्काम कर्म, भक्ति, ज्ञानका साधन उनसे नहीं हो रहा है और वे जो कुछ करते हैं, उसके छूटनेकी भी आशंका बनी ही है।
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स्वार्थत्याग बिना निष्कामता नहीं आती, दूसरे सब पदार्थोंसे प्रीति हटाये बिना भगवान्से एकान्त-प्रीति नहीं होती और जगत्के रागसे छूटे बिना अभेद-ज्ञान नहीं होता। आज निष्काम कर्म, भक्ति और ज्ञानके अधिकांश साधक स्वार्थ, विषय-प्रेम और आसक्तिका त्याग करनेकी चेष्टा बिना किये ही निष्कामकर्मी, भक्त और ज्ञानी बनना चाहते हैं। इसीसे वे सफल नहीं हो सकते।
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साधारणत: वैराग्यके क्रमसे होनेवाले सात लक्षण हैं—(१) श्रीभगवान्को छोड़कर लोक-परलोकके सभी भोगोंमें फीकापन मालूम होना, (२) विषयोंमें महान् भय और सर्वथा दु:ख दिखायी देना, (३) भगवान्को छोड़कर विषयोंका बिलकुल ही न सुहाना, (४) विषयोंके त्यागकी प्रबल इच्छा होना और विषयनाशमें सुखकी प्रतीति होनी, (५) विषयोंका त्याग हो जाना, (६) विषयोंमें भगवद्भाव होना और (७) एक भगवान्की ही सत्ता भासना।
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सबसे पहले विषयोंमें बार-बार दु:ख देख-देखकर इनसे मन हटाने और भगवान्में परम और पूर्ण सुख समझकर उनमें मन लगानेका प्रयत्न करना चाहिये। यही वैराग्य और अभ्यास है। ज्यों-ज्यों विषयोंसे मन हटेगा, त्यों-ही-त्यों श्रीभगवान्में आप ही लगता जायगा। जब भगवान्के ध्यानका कुछ असली आनन्द मिल जायगा, तब तो मन उस आनन्दको छोड़ना ही नहीं चाहेगा। फिर लोक-परलोकके सभी भोग फीके मालूम होने लगेंगे। क्रमश: वैराग्य बढ़ता जायगा और अन्तमें जगत्की भगवान्से अलग कोई सत्ता ही नहीं रह जायगी। यही असली वैराग्य है। वैराग्यवान् महानुभाव ही कल्याणको प्राप्त करते हैं।
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वैराग्य और अभ्यास एक-दूसरेके आश्रय और सहायक हैं। मनको विषयोंसे हटानेकी चेष्टा की, क्षणभरको मन हटा भी परन्तु भगवान्में उसे न लगाया तो वह तुरन्त लौटकर विषयोंमें आ जायगा। इसी प्रकार विषयोंसे हटानेकी चेष्टा नहीं करनेसे विषयोंमें लगा हुआ मन उनसे हटकर भगवान्में अपने-आप लगेगा ही क्यों? अतएव दोनोंका साथ-साथ रहना ही आवश्यक है, इन दोनोंमें भी वैराग्यकी पहले जरूरत है; क्योंकि उसके बिना तो एक विषयसे मन हटे बिना दूसरी ओर लग ही नहीं सकता।