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अनुभव और विश्वास

बहुत सरल और सुगम दो बातें हैं—एक बात तो अनुभवकी है और एक बात विश्वासकी है। अनुभवकी बात यह है कि संसार प्रतिक्षण बदल रहा है, कभी एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता। विश्वासकी बात यह है कि परमात्मा सब जगह हैं। वे सदा ज्यों-के-त्यों ही रहते हैं, कभी बदलते नहीं। कई युग बदल जाते हैं, कई ब्रह्मा बदल जाते हैं, पर वह परमात्मतत्त्व ज्यों-का-त्यों ही रहता है। ऐसे ही उसके अंश जीवात्माका भी कभी अभाव नहीं होता।

जो अपरिवर्तनशील है, वह परमात्मतत्त्व सब देशमें, सब कालमें, सम्पूर्ण वस्तुओंमें, सम्पूर्ण प्राणियोंमें परिपूर्ण है। वह सबको प्राप्त है। उसकी तरफ दृष्टि न हो—यह अलग बात है, पर वह तत्त्व अप्राप्त नहीं है; क्योंकि वह सबमें परिपूर्ण है और सबको मिला हुआ है। उसका कभी अभाव नहीं होता; क्योंकि वह भावरूप है। केवल उधर दृष्टि नहीं है, वह तो है ही। दृष्टि करो तो वही है; दृष्टि न करो तो वही है। आप उसको मानें तो भी वही है, न मानें तो भी वही है। आप जानें तो वही है, न जानें तो वही है। अब इसमें आप यह विश्वास कर लें कि वह परमात्मतत्त्व प्राप्त है। फिर उसका अनुभव हो जायगा।

आपको अनुभवकी यह बात बतायी कि सब संसार बदलनेवाला है और विश्वासकी यह बात बतायी कि परमात्मतत्त्व नहीं बदलनेवाला है और सबको प्राप्त है। जो बदलनेवाला और अनित्य है, वह ‘प्रतीत’ हो रहा है। जो नहीं बदलनेवाला और नित्य है, वह ‘प्राप्त’ है। इस प्रकार दो भेद हुए—एक प्रतीत है और एक प्राप्त है।

हम कहते हैं कि धन मिल गया, मान मिल गया, आदर मिल गया आदि-आदि, पर वास्तवमें मिला कुछ नहीं। यह तो प्रतीति है। यदि वास्तवमें मिल जाता, तो फिर और मिलनेकी इच्छा नहीं रहती। जबतक मिलनेकी, पानेकी इच्छा है, तबतक वास्तविक चीज मिली नहीं। गीता साफ कहती है—यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:। (६। २२) जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे बढ़कर कोई दूसरा लाभ है—ऐसा वह मान ही नहीं सकता। जबतक भीतर यह इच्छा रहेगी कि और लाभ मिले, चाहे धन मिले, चाहे मान मिले, चाहे स्वास्थ्य मिले, तबतक वास्तवमें आपकी वस्तु आपको मिली नहीं—यह पक्की बात है। अपनी वास्तविक वस्तु मिल जानेपर ‘और मिले’— यह इच्छा सदाके लिये शान्त हो जाती है। फिर कोई इच्छा बाकी नहीं रहती।

जो दीखता तो है, पर मिलता नहीं—इसका नाम ‘प्रतीति’ है। मनुष्यके भीतर ‘प्रतीति’ का जितना आदर है, उतना ‘प्राप्त’ का आदर नहीं है—यह है समस्या! अत: जो ‘प्राप्त’ है, उसपर दृढ़तासे विश्वास करना है कि बालकपनमें मैं जो था, वही मैं आज हूँ। शरीर बदला, मन बदला, भाव बदले, इन्द्रियाँ बदलीं, देश बदला, काल बदला, परिस्थिति बदली, घटनाएँ बदलीं, क्रियाएँ बदलीं—यह सब कुछ बदला, पर मैं नहीं बदला; मैं तो वही हूँ। वेदान्तमें आत्माकी नित्यताके लिये यह प्रबल युक्ति है कि ‘मैं वही हूँ।’

कोई दो आदमी आठ-दस वर्षोंके बाद मिले। उनमें एक बड़ी अवस्थामें था और एक छोटी अवस्थामें था। छोटी अवस्थावालेने पूछा—‘बाबाजी, आप मेरेको जानते हो?’ बड़ी अवस्थावालेने उत्तर दिया—‘भैया, मैं तो नहीं जानता, तुम मेरेको जानते हो क्या?’ छोटी अवस्थावालेने कहा—‘हाँ, मैं तो आपको जानता हूँ। देखो, अमुक समयमें मैं आपसे मिला था और हम दोनोंमें अमुक-अमुक बातें हुई थीं। मुझमें ज्यादा परिवर्तन होनेसे आप पहचान नहीं सके।’ बड़ी अवस्थावाला बोला—‘अच्छा वही हो तुम।’ छोटी अवस्थावालेने पूछा—‘आजकल कैसा चल रहा है!’ बड़ी अवस्थावालेने उत्तर दिया—‘आजकल तो बड़ी तकलीफमें हूँ। पैदा है नहीं और आफत आ रही है। तुम कैसे हो?’ छोटी अवस्थावालेने कहा—‘हमारा काम तो बहुत अच्छा चल रहा है।’ अब इसमें विचार यह करना है कि मैं भी वही हूँ और तू भी वही है—इसमें सन्देह नहीं, पर परिस्थितिमें बहुत बड़ा अन्तर है। दोनोंकी अवस्था बदल गयी, परिस्थिति बदल गयी, पर वे दोनों वही हैं। अत: आपके साथ न अवस्था रहती है, न परिस्थिति रहती है, आप स्वयं इनसे अलग हैं। ये सब बदलने-वाले हैं, प्रतीतिमात्र हैं। इनको सच्चा माननेसे ही अनर्थ होते हैं। जितने भी अनर्थ होते हैं, इनको स्थायी माननेसे ही होते हैं।

अब प्रश्न होता है कि प्रतीति तो दीखती है, पर प्राप्त नहीं दीखता; अत: हम प्राप्तको कैसे मानें? उपनिषदोंमें एक वाक्य आता है—‘विज्ञातारमरे केन विजानीयात्’ (बृहदारण्यक २।४।१४) ‘जो सबको जाननेवाला है, उसको किससे जानें?’ जैसे आँखसे सब कुछ दीखता है, पर आँख नहीं दीखती। दर्पणमें आँखकी आकृतिको भले ही देख लो, पर आँख (नेत्रेन्द्रिय) नहीं दीखती अर्थात् जो देखनेकी शक्ति है, वह नहीं दीखती। उस देखनेकी शक्तिसे ही सब कुछ दीखता है। ऐसे ही यह प्रतीति जिससे प्रतीत होती है, जो इस प्रतीतिको जाननेवाला है, वह प्राप्त है। अगर वह न होता तो प्रतीति किसको होती? जो इस परिवर्तनशील प्रतीतिको देखनेवाला है उसको ईश्वर कह दो, जीवात्मा कह दो, सत् कह दो, ब्रह्म कह दो—ये उसको कहनेके कई नाम हैं, वास्तवमें वह एक ही तत्त्व है।

अब एक शंका होती है कि परमात्मतत्त्व तो प्राप्त है ही, चाहे उसको प्राप्त बताओ अथवा न बताओ, फिर उसपर विश्वास करनेकी क्या आवश्यकता है? इसका समाधान यह है कि जबतक परमात्मापर हमारा विश्वास नहीं होगा, तबतक परमात्मा प्राप्त होते हुए भी हमारे काम नहीं आयेंगे। विश्वास करो तो लाभ होगा, नहीं तो कुछ नहीं मिलेगा, केश भी नहीं मिलेगा। इसलिये परमात्मापर श्रद्धा-विश्वास तो करने ही पड़ेंगे। अभी मैंने उस परमात्मतत्त्वकी ‘है’ की प्रबल युक्ति बतायी कि जिससे प्रतीति होती है, वह ‘है’ है। पर लाभ उस ‘है’ को माननेसे, उसपर विश्वास करनेसे ही होगा।

एक आदमीकी गाय बीमार हो गयी। वह वैद्यके पास गया। वैद्यने कहा कि आप गायको आध पाव काली मिर्च पीसकर दे देना और उसके ऊपर पावभर घी दे देना। उसने बाजारसे आध पाव काली मिर्च खरीदी और पीसकर गायको खिला दी। दूसरे दिन वह वैद्यके पास आकर बोला—‘साहब, गाय तो और ज्यादा बीमार हो गयी!’ वैद्यने कहा—‘कैसे हो गयी? उसको काली मिर्च दी थी क्या?’ वह बोला—‘हाँ, दी थी’। वैद्यने पूछा— ‘घी दिया था क्या?’ वह बोला—‘घी तो नहीं दिया साहब! क्योंकि घी तो गायमें था ही, देनेकी क्या जरूरत?’ ‘मेरी गायके रोजाना पावभर घी निकलता ही है। कल मैंने गायको दुहा ही नहीं, तो वह पावभर घी उसके भीतर ही रहा; और काली मिर्च उसको दे ही दी।’ गायको न दुहनेसे, काली मिर्च देनेसे और घी न देनेसे गरमी ज्यादा बढ़ गयी, जिससे गाय ज्यादा बीमार हो गयी। गायमें घी होते हुए वह काममें नहीं आया। अगर घीको निकालकर उसे देते तो वह काम आ जाता। इसी तरह वह परमात्मतत्त्व प्राप्त होते हुए भी श्रद्धा-विश्वासके बिना हमारे कुछ काम नहीं आयेगा। प्राप्त होते हुए भी वह हमारे लिये अप्राप्तकी तरह ही रहेगा। उस प्राप्त-तत्त्वकी प्राप्ति-(अनुभूति) के लिये ही तो हम सब यहाँ इकट्ठे हुए हैं। वह प्राप्त है तो फिर दीखता क्यों नहीं—ऐसी चटपटी लगेगी, तब उसका अनुभव होगा। केवल बातें बनाते रहोगे तो कुछ हाथ नहीं लगेगा। मेरी तरह आप भी व्याख्यान दे दोगे, पर मिलेगा कुछ नहीं। इसलिये कहता हूँ कि आप उस तत्त्वसे वंचित क्यों रहते हो? बच्चेको मालूम हो जाय कि माँ यहाँ है तो वह रोने लग जायगा कि माँ है तो मुझे गोदमें क्यों नहीं लेती! ‘परमात्मतत्त्व प्राप्त है’—ऐसा इसलिये कहा है कि उसको जाननेके लिये आपमें चटपटी लग जाय। ‘वह तो प्राप्त ही है, अब उसको जाननेकी, उसपर विश्वास करनेकी क्या जरूरत’—यह तो महान् मूर्खता है। प्राप्तकी ही प्राप्ति (अनुभूति) करनी है। उसकी प्राप्ति प्रतीतिको सच्चा न माननेसे ही होगी—यह है चाभी। प्रतीतिको सच्चा माननेसे उसकी प्राप्ति कभी नहीं होगी, भले ही कितना पढ़ जाओ, चारों वेद पढ़ जाओ, छहों शास्त्र पढ़ जाओ। प्रतीतिको सच्चा मानते रहोगे कि धन भी है, सम्पत्ति भी है, उससे हम ऐसे हो जायँगे, नीरोग हो जायँगे, इतने मकान बना लेंगे आदि-आदि, तो सीधे नरकोंमें जाओगे, कोई रोकनेवाला नहीं। नरकोंमें जानेसे न धन रोकेगा, न मकान रोकेगा, न कुटुम्बी रोकेंगे।

श्रोता—महाराजजी! यह तो पता चलता है कि प्रतीति रहनेवाली नहीं है, फिर भी वह हमें आकृष्ट करती है।

स्वामीजी—आप प्रतीतिको प्रतीति न मानकर नित्य मानते हैं, तभी वह खींचती है। सिनेमामें बढ़िया भोजन दीखनेपर उसको खानेकी प्रवृत्ति होती है क्या? नहीं होती; क्योंकि जानते हैं कि मिलेगा कुछ नहीं। ऐसे ही संसारसे भी कुछ मिलनेवाला नहीं है। आज दिनतक संसारसे किसीको कुछ नहीं मिला। आप चाहे मिला हुआ मान लो, पर है यह कोरा वहम! संसार कहते ही उसको हैं, जो जा रहा है—‘सम्यक् प्रकारेण सरतीति संसार:’। जो प्रतिक्षण जा रहा है, वह मिला कहाँ? इस संसारसे विमुख होनेपर ही उस परमात्मतत्त्वका अनुभव होगा।

नारायण! नारायण! नारायण!

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