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मनुष्यका वास्तविक सम्बन्ध

संसारसे हमारा सम्बन्ध निरन्तर नहीं रहता—इस वास्तविकताको हम सब जानते हैं। परंतु इस जानकारीपर हम कायम नहीं रहते—इतनी गलती है। अगर इस जानकारीपर हम कायम रह जायँ अर्थात् संसारसे अपना सम्बन्ध न मानें तो आज, अभी बेड़ा पार है! हम संसारसे जो अपना सम्बन्ध मानते हैं, उसको छोड़े बिना हम रह ही नहीं सकते। संसारके सम्बन्धके बिना तो हम रह सकते हैं, पर वियोगके बिना हम रह ही नहीं सकते, जी ही नहीं सकते। इस बातपर आप खूब ध्यान देकर विचार करें। संसारकी जिन वस्तुओं, व्यक्तियों, पदार्थोंके साथ हम अपना सम्बन्ध मानते हैं, उनके सम्बन्धसे हमें उतना सुख नहीं मिलता, जितना उनके वियोगसे सुख मिलता है। जैसे हमारेको गाढ़ नींद आती है तो उस समय हमारा किसी व्यक्ति या वस्तुसे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता। गाढ़ नींदमें हम सम्पूर्ण वस्तु-व्यक्तियोंको भूल जाते हैं। उनको भूलनेसे जितना सुख मिलता है, उतना सुख उनको याद रखनेसे, उनके साथ रहनेसे नहीं मिलता—यह हम सबका अनुभव है।

अब ध्यान देकर इस बातको आप ठीक तरहसे समझें। नींद लेनेकी प्रवृत्ति हमारी जन्मसे ही है। आप याद करें तो बचपनसे लेकर आज-दिनतक हम नींद लेते ही रहे हैं अर्थात् संसारको भूलते ही रहे हैं। नींद लिये बिना अर्थात् संसारसे विमुख हुए बिना हम आठ पहर भी जी नहीं सकते। अगर कई दिनतक नींद न आये तो मनुष्य पागल हो जाय। जितनी खुराक नींदसे हमें मिलती है, उतनी खुराक पदार्थों, व्यक्तियोंके सम्बन्धसे नहीं मिलती। पदार्थों, व्यक्तियोंका सम्बन्ध रखनेसे तो थकावट होती है। नींदसे वह थकावट मिटती है और शरीर, इन्द्रियाँ, अन्त:करणमें नयी शक्ति, स्फूर्ति, ताजगी आती है। पदार्थों और व्यक्तियोंके सम्बन्धसे ताजगी नष्ट होती है।

बचपनमें खिलौने जितने अच्छे लगते थे, उतने पदार्थ और व्यक्ति अच्छे नहीं लगते थे। खेल जितना अच्छा लगता था, उतना घर अच्छा नहीं लगता था। अब युवावस्थामें रुपये अच्छे लगने लग गये। अब खिलौने अच्छे नहीं लगते, पर नींद अब भी वैसी-की-वैसी प्रिय लगती है। जब खिलौने प्रिय लगते थे, तब भी नींद अच्छी लगती थी और नींदसे सुख मिलता था। अब रुपये अच्छे लगने लगे तो भी नींद अच्छी लगती है। परन्तु रुपयोंको भुला करके जो नींद आती है, वह नींद रुपयोंसे भी ज्यादा अच्छी लगती है। जब विवाह हुआ तब स्त्री, पुत्र, परिवार बड़ा अच्छा लगने लगा, जिनके लिये रुपये भी खर्च कर देते हैं। परन्तु जब गहरी नींद आने लगती है, तब स्त्रीको, पुत्रको, मित्रोंको, कुटुम्बियोंको भी छोड़ देते हैं। जिनके मोहमें फँसकर झूठ, कपट, बेईमानी, चोरी, ठगी, धोखेबाजी आदि कर लेते हैं, उन सबका भी गाढ़ नींदमें त्याग कर देते हैं। जब वृद्धावस्था आती है, तब परिवारमें, पोता-पोती, दोहता-दोहतीमें मोह बढ़ जाता है; परन्तु गाढ़ नींद आनेपर इनको भी छोड़ देते हैं। अगर वैराग्य हो जाता है तो धन, मकान, स्त्री, पुत्र, परिवार आदिको छोड़कर साधु हो जाते हैं, विरक्त-त्यागी बन जाते हैं, तब भी नींद लेते हैं। नींदमें साधुपनेका भी वियोग होता है, विरक्त-त्यागीपनेका भी वियोग होता है। इस प्रकार प्रत्येक परिस्थितिमें नींद अच्छी लगती है। नींद नहीं आये तो अच्छा है—ऐसा भाव कभी नहीं होता, प्रत्युत नींद आ जाय तो अच्छा है—यह भाव रहता है। नींद लेनेकी पूरी तैयारी करते हैं। अच्छा बिछौना बिछाते हैं। खूब बढ़िया तकिया लगाते हैं, गद्दा लगाते हैं, पंखा लगाते हैं, जिससे आरामसे नींद आ जाय। हल्ला-गुल्ला न हो, ऐसी व्यवस्था करते हैं। जब नींद आने लगती है, तब तरह-तरहके भोग, मनोहर दृश्य, सिनेमा आदि नहीं सुहाते। तब यही कहते हैं कि भाई, अब तो हमें नींद लेने दो; अब हम सोयेंगे। इससे सिद्ध हुआ कि नींद सब वस्तु-व्यक्तियोंसे बढ़कर प्यारी है। नींदके लिये सबका त्याग किया जा सकता है, पर नींदका त्याग नहीं किया जा सकता। परंतु कहीं भगवान् के भजनमें प्रेम हो जाय, भजनमें रस आने लग जाय, तो फिर नींद भी अच्छी नहीं लगती। संतोंका पद आता है—‘बैरिन हो गई निंदरिया’ अर्थात् यह नींद तो हमारी वैरिन हो गयी; नींद नहीं आये तो अच्छा है। इससे सिद्ध होता है कि जिसके लिये प्यारी-सी-प्यारी नींदका भी त्याग हो जाता है, उस परमात्माके साथ ही हमारा वास्तविक सम्बन्ध है। संसारके साथ हमारा सम्बन्ध बनावटी है, भूलसे माना हुआ है। इसलिये संसारके संयोगके बिना तो हम रह सकते हैं, पर वियोगके बिना हम रह ही नहीं सकते। संसारके वियोगसे सुख होता है—यह हम सबका अनुभव है।

कितनी विलक्षण बात है कि संसारके वियोगका अनुभव जीवमात्रको है! मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सब नींद लेते हैं। तात्पर्य है कि संसारसे वियोग हरेक प्राणी चाहता है। संसारके संयोगमें तो कमीसे भी काम चल सकता है; जैसे—किसीको भोजन अच्छा मिलता है, किसीको भोजन अच्छा नहीं मिलता; किसीको मकान मिलता है, किसीको मकान नहीं मिलता, इसमें सबकी विषमता है। दो मनुष्योंकी भी आराम-सामग्री एक समान नहीं होती। परन्तु नींद सबकी एक समान होती है। यहाँ एक बात सोचनेकी है कि नींदकी तरफ हमारी जो प्रवृत्ति होती है, उसमें हमें न कुछ उद्योग करना पड़ता है, न कुछ चिन्तन करना पड़ता है, न कुछ काम करना पड़ता है, न कुछ याद करना पड़ता है। तात्पर्य है कि कुछ न करनेसे नींद आ जाती है। नींदके लिये ऐसा नहीं है कि इतना उद्योग करो, तब नींद आयेगी!

नींदमें सबसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है। परन्तु संसारके साथ माने हुए सम्बन्धको पकड़े हुए ही नींद लेते हैं, इसलिये जगनेपर फिर उसीमें (संसारमें) लग जाते हैं। फिर भी संसारके साथ माना हुआ सम्बन्ध स्थिर नहीं रहता। अवस्था बदल जाती है, परिस्थिति बदल जाती है, घटना बदल जाती है, व्यक्ति बदल जाते हैं, देश बदल जाता है, काल बदल जाता है—ये सब तो बदल जाते हैं, पर संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद कभी नहीं बदलता। कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध तो हमारा माना हुआ है, अवास्तविक है, पर संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद माना हुआ नहीं है, प्रत्युत वास्तविक है। इसलिये संसारसे निरन्तर सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है। बालकपनसे सम्बन्ध-विच्छेद हुआ, जवानीसे हुआ, वृद्धावस्थासे हुआ, नीरोगतासे हुआ, रोगीपनसे हुआ, धनवत्तासे हुआ, निर्धनतासे हुआ और कई व्यक्तियोंसे संयोग होकर वियोग हुआ। इस प्रकार संसारका सम्बन्ध तो छिन्न-भिन्न होता ही रहता है; क्योंकि यह सम्बन्ध नकली है, माना हुआ है। हमने बड़ी भारी भूल यह की कि माने हुए सम्बन्धको तो सच्चा मान लिया, पर संसारसे जो सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है, उसकी तरफ खयाल ही नहीं किया कि यह भी तो हमारा अनुभव है। संसारके सम्बन्ध-विच्छेदसे जितना सुख मिलता है, उतना पदार्थोंसे नहीं मिलता। अगर पदार्थोंसे सुख मिलता, तो नींद छूट जाती।

जब भगवान् के भजनमें रस आने लगता है, तब नींद, भूख और प्यास भी छूट जाती है, इनकी भी परवाह नहीं रहती। नींद, भूख और प्यास शरीर-निर्वाहकी खास चीजें हैं, पर भजनमें इनको भी भूल जाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा असली सम्बन्ध भगवान् के साथ है। असली सम्बन्ध जाग्रत् हो जाय तो फिर नकली सम्बन्धको कौन रखना चाहेगा? शरीर-संसारके साथ माने हुए नकली सम्बन्धोंको हम छोड़ दें तो आज ही निहाल हो जायँ! सम्बन्धको छोड़कर जाना कहीं नहीं है, न जंगलमें जाना है, न साधु बनना है। केवल यह मान लेना है कि यह संसार वास्तवमें हमारा नहीं है। हमारे तो केवल भगवान् ही हैं। व्यक्तियोंसे हमारा जो सम्बन्ध दीखता है, वह उनकी सेवा करनेके लिये है। वस्तुओंसे हमारा जो सम्बन्ध दीखता है, वह उनको दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये है। न तो हमारे लिये कोई व्यक्ति है और न हमारे लिये कोई वस्तु है। जो हमारे कहलाते हैं, उन माता, पिता, स्त्री, पुत्र, भाई, भौजाई आदिकी सेवा कर दो, बस। वस्तुएँ तो उनकी सेवाके लिये हैं और वे सेवनीय हैं। शरीर उनका ही है, इसलिये शरीरको उनकी सेवामें लगा दो। हमें उनसे कुछ लेना ही नहीं है। उनकी वस्तुओंको उन्हींकी सेवामें लगा देना है। इसीको कर्मयोग कहते हैं—

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
(गीता २।४७)

‘कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं। अत: तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो।’

खूब तत्परतासे, अच्छी तरहसे कर्म करना है; क्योंकि मनुष्य-शरीर सेवा करनेके लिये ही मिला है, भोग भोगनेके लिये नहीं। हमें जो विवेक मिला है, वह शरीरके साथ माने हुए सम्बन्धका विच्छेद करनेके लिये मिला है, शरीरके साथ चिपकनेके लिये नहीं।

संसारके साथ हमारा सम्बन्ध केवल सेवा करनेके लिये ही है। सेवाके सिवाय संसारसे और कोई मतलब नहीं। माता-पिताकी सेवा करनी है, स्त्री-पुत्रका पालन-पोषण करना है। सेवा करनी है। उनके साथ सम्बन्ध माननेसे वास्तविक शान्ति नहीं मिलती। शान्ति तो उनकी सेवा करके सम्बन्ध-विच्छेद करनेसे मिलती है। संसारके साथ माना हुआ ऐसा कोई भी सम्बन्ध नहीं है, जिसके लिये मनुष्य नींद, भूख और प्यास भी छोड़ दे। परंतु भगवान् के साथ सम्बन्ध जुड़नेपर नींद अच्छी नहीं लगती, खाना-पीना अच्छा नहीं लगता, यहाँतक कि शरीरका मोह भी नहीं रहता; क्योंकि भगवान् के साथ हमारा सम्बन्ध असली है।

नारदजीके पूर्वजन्मके वर्णनमें आता है कि जब उनकी माताकी मृत्यु हो गयी, तब वे जंगलकी ओर चल दिये। उनको यह खयाल ही नहीं आया कि जंगलमें क्या खायेंगे-पीयेंगे? कहाँ रहेंगे? वहाँ एक वृक्षके नीचे बैठे। उनका मन भगवान् में लग गया, समाधि लग गयी। उनको अपने हृदयमें भगवान् का रूप दीखने लगा। कुछ देर बाद सहसा समाधि खुल गयी तो वे बड़े व्याकुल हुए। तब आकाशवाणी हुई कि इस शरीरके छूटनेके बाद जब ब्रह्माजीके पुत्ररूपसे तुम्हारा जन्म होगा, तब मेरे दर्शन होंगे। ऐसी आकाशवाणी सुनकर नारदजी प्रतीक्षा करने लगे कि कब यह शरीर छूटेगा, कब मैं मरूँगा! दुनिया चाहती है कि हम सदा जीते ही रहें और वे चाहते हैं कि मैं मर जाऊँ!

संसारमें अपने शरीरके जीनेकी जितनी इच्छा होती है, उतनी कुटुम्बके जीनेकी इच्छा नहीं होती। गाय अपने बछड़ेपर बहुत स्नेह रखती है। वह बछड़ेको छोड़कर जंगलमें चरनेको भी नहीं जाती। परन्तु जब उसको लाठी मारने लगते हैं, तब वह जंगलमें चली जाती है। जंगलमें घास चरते-चरते जब उसको बछड़ा याद आ जाता है, तब वह ‘हुम्’—ऐसे हुंकार करती है और उसके मुँहसे घास गिर जाता है। शामके समय जब वह वापस लौटती है, तब वह सब गायोंसे आगे भागती है और हुंकार करती हुई बछड़ेके पास जाती है, उसको प्यार करती है, दूध पिलाती है। इस प्रकार उसका बछड़ेपर भी प्रेम है और घासपर भी प्रेम है, पर अपने शरीरपर सबसे ज्यादा प्रेम है। जब शरीरपर लाठी पड़ती है, तब वह बछड़ेको, घासको, सबको छोड़ देती है। जब शरीरपर आफत आती है, तब किसीकी परवाह नहीं करती। तात्पर्य है कि शरीरमें उसका एक नम्बरका प्रेम है, बछड़ेमें दो नम्बरका प्रेम है और घासमें तीन नम्बरका प्रेम है। अत: शरीरसे मोह तो पशुका भी होता है। परंतु मनुष्य शरीरसे मोह छोड़कर भगवान् से प्रेम कर सकता है।

शरीर तो हरदम बदलता है; अत: यह तो हरदम रहता नहीं, पर भगवान् हरदम रहते हैं। हम तो भगवान् के ही हैं—यह जब पहचान हो जाती है, तब मनुष्य शरीरकी आसक्ति-कामना छोड़कर भगवान् में ही लग जाता है। अत: भगवान् के साथ हमारा सम्बन्ध असली है और शरीर-संसारके साथ हमारा सम्बन्ध नकली है—इस वास्तविकताको जानकर सब प्रकारसे भगवान् में ही लग जाना चाहिये।

नारायण! नारायण! नारायण!

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