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अपने अनुभवका आदर

एक बहुत सीधी-सरल और सबके अनुभवकी बात है। केवल उसका आदर करना है, उसको महत्त्व देना है, उसको कीमती समझना है। जिस तरह आपने रुपया, सोना, चाँदी, हीरा, पन्ना आदिको कीमती समझ रखा है, इस तरह इस बातको कीमती समझो, इसको महत्त्व दो तो अभी इसी क्षण उद्धार हो जाय। इसको महत्त्व नहीं देते, इसी कारणसे बन्धन हो रहा है; और कोई कारण नहीं है। रुपये तो किसीके पास हैं और किसीके पास नहीं, पर यह बात सबके पास है। कोई भी इससे रहित नहीं है। परंतु इस बातको महत्त्व न देनेसे इसका अनुभव नहीं हो रहा है—

लाली लाली सब कहे, सबके पल्ले लाल।
गाँठ खोल देखे नहीं, ताते फिरे कंगाल॥

वह गाँठ खुलनेकी बात बताता हूँ। जो सन्त-महात्माओंसे सुनी है, पुस्तकोंमें पढ़ी है, वही बात कहता हूँ। एकदम सच्ची बात है। श्रुति, युक्ति और अनुभूति—ये तीन प्रमाण मुख्य माने गये हैं। अभी मैं जो बात कहने जा रहा हूँ, वह श्रुति-(शास्त्र-) सम्मत, युक्तिसंगत और अनुभवसिद्ध है।

आप अपनेको मानते हैं कि ‘मैं वही हूँ, जो बचपनमें था अर्थात् बालकपनमें जो था वही आज हूँ और मरनेतक मैं वही रहूँगा।’ शास्त्र, सन्त अपनी संस्कृतिके अनुसार आप ऐसा भी मानते हैं कि पहले जन्मोंमें भी मैं था और इसके बाद भी अगर मेरे जन्म होंगे तो मैं रहूँगा। बालकपन भी अभी नहीं है और मृत्युका समय भी अभी नहीं है; पहलेके जन्म भी अभी नहीं हैं और आगेके जन्म भी नहीं हैं; परन्तु ‘मैं अभी हूँ।’ तात्पर्य यह हुआ कि मैं नित्य-निरन्तर हूँ और शरीर बदलते हैं। शरीरोंके बदलनेपर भी मैं किंचिन्मात्र भी नहीं बदलता। शरीर तो प्रतिक्षण बदलते रहते हैं। एक क्षण भी ऐसा नहीं, जिसमें ये न बदलते हों। परन्तु इनमें रहनेवाला मैं (स्वरूप) अनन्त युग, अनन्त ब्रह्मा बीतनेपर भी कभी बदलता नहीं। अत: बदलनेवाले शरीर और न बदलनेवाले अपने-आपको मिलायें नहीं, प्रत्युत अलग-अलग कर लें। बस, इतना ही काम है। जब इन दोनोंको मिलाकर देखते हैं, तब अज्ञान हो जाता है; और जब इनको अलग-अलग देखते हैं तब ज्ञान हो जाता है।

आप जानते हैं कि बचपनमें मैं जो था, वही मैं आज हूँ। इस ज्ञानको शास्त्रीय भाषामें ‘प्रत्यभिज्ञा’ कहते हैं। इसी ज्ञानको ‘तत्त्वमसि’—‘वही (परमात्मा) तू है’ कहते हैं। ऊँचा-से-ऊँचा महावाक्य भी यही है और साधारण-से-साधारणका अनुभव भी यही है। केवल इसपर दृढ़ रहना है कि जो बदलता है, वह मेरा स्वरूप नहीं है। वृत्तियाँ बदलती हैं, अवस्थाएँ बदलती हैं, घटनाएँ बदलती हैं, परिस्थितियाँ बदलती हैं, व्यक्ति बदलते हैं, वस्तुएँ बदलती हैं, पर मैं बदलनेवाला नहीं हूँ। मैं बदलनेवालेको देखनेवाला हूँ। बदलनेवाला वही देखता है, जो स्वयं न बदलनेवाला होता है। इसलिये मैं सदा रहता हूँ। मेरा स्वरूप कभी बदलता नहीं और शरीर कभी स्थिर रहता नहीं। मैं वही हूँ, पर शरीर वही नहीं है। ऐसे ही परमात्मा वही हैं, पर संसार वही नहीं है। जो सत्ययुग, त्रेता, द्वापर आदि अनन्त युगोंसे पहले थे, वे ही परमात्मा आज हैं। अनन्त युग बदल जायँगे, तो भी परमात्मा वे ही रहेंगे। अत: मैं और परमात्मा एक हैं तथा शरीर और संसार एक हैं।

छिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम सरीरा॥
(मानस ४। ११। २)

भूल यह हुई है कि शरीरको तो संसारसे अलग मान लिया कि ‘यह तो मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ’ और अपनेको परमात्मासे अलग मान लिया कि मैं तो यहाँ हूँ और ‘परमात्मा न जाने कहाँ हैं!’ शरीर संसारसे कभी अलग हो ही नहीं सकता। ब्रह्माजीकी भी ताकत नहीं कि शरीरको संसारसे अलग कर दें। जिस धातुका संसार है, उसी धातुका शरीर है। स्थूल-शरीरकी स्थूल-संसारके साथ एकता है, सूक्ष्म-शरीरकी सूक्ष्म-संसारके साथ एकता है, कारण-शरीरकी कारण-संसारके साथ एकता है। परंतु हमारी परमात्माके साथ एकता है। हम परमात्माके अंश हैं—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५। ७)। परमात्मा और परमात्माका अंश दो नहीं हैं।

शरीरके साथ हमारी एकता नहीं है, पर उसके साथ एकता मान ली और परमात्माके साथ हमारी एकता है, पर उसके साथ एकता नहीं मानी—यह केवल मान्यताका फर्क है और कुछ फर्क नहीं। हमने मान्यता गलत कर रखी है। शरीर बदलता है, पर आप नहीं बदलते। संसार बदलता है, पर परमात्मा नहीं बदलते। अत: न बदलनेवाले हम परमात्माके साथ एक हैं और बदलनेवाला शरीर संसारके साथ एक है—यह विवेक मनुष्यमात्रमें स्वत:सिद्ध है। यह कभी मिट नहीं सकता।

संसार और परमात्माका, हमारे शरीरका और हमारे स्वरूपका जो दो-पना (अलगाव) है, यह कभी मिटेगा नहीं। यह नित्य-निरन्तर रहनेवाला है। परंतु मनुष्य इस बातका आदर नहीं करता, इसको महत्त्व नहीं देता । ‘मैं शरीरसे अलग हूँ’—इस बातको उसने रद्दी कर रखा है और ‘यह शरीर मैं हूँ’—‘इस बातको पकड़ रखा है। परंतु शरीरके साथ एकताको अभीतक कोई पकड़कर रख सका नहीं और रख सकेगा नहीं। अत: शरीर और संसार एक हैं तथा मैं और परमात्मा एक हैं। मैं और परमात्मा एक हैं—इस विषयमें मतभेद है। द्वैत-मतवाले परमात्माके साथ जातिसे एकता मानते हैं और अद्वैत-मतवाले स्वरूपसे एकता मानते हैं। परन्तु मैं और शरीर एक नहीं हैं—इस विषयमें कोई मतभेद नहीं है। श्रीशंकराचार्य, श्रीवल्लभाचार्य, श्रीरामानुजाचार्य, श्रीनिम्बार्काचार्य, श्रीविष्णुस्वामी, श्रीचैतन्य महाप्रभु आदि जितने महापुरुष हुए हैं, उन्होंने द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद आदि नामोंसे अपने-अपने दर्शनोंमें परमात्माके साथ जीवका घनिष्ठ सम्बन्ध माना है। परंतु शरीरके साथ अपना सम्बन्ध किसीने भी नहीं माना है। शरीर-संसारके साथ हमारी एकता नहीं है—इस विषयमें सभी आचार्य, दार्शनिक, विद्वान् एकमत हैं। जिस विषयमें सभी एकमत हैं, उस बातको आप मान लो। हम शरीर-संसारके साथ एक नहीं हैं, हम तो परमात्माके साथ एक हैं—यही ज्ञान है। इस ज्ञानको दृढ़तासे पकड़ लें; इसमें बाधा क्या है?

शरीरके साथ अपना सम्बन्ध माननेके कारण हम शरीरके सुखसे अपनेको सुखी मानते हैं। शरीरका मान होनेसे हम अपना मान मानते हैं। शरीरकी बड़ाई होनेसे हम अपनी बड़ाई मानते हैं। शरीरके निरादरसे हम अपना निरादर मानते हैं। शरीरके अपमानसे हम अपना अपमान मानते हैं। वास्तवमें शरीरको कोई पीस डाले, तो भी हमारा कुछ नहीं बिगड़ता। एक दिन इस शरीरको लोग जला ही देंगे, पर हमारा बाल भी बाँका नहीं होगा। हमारे स्वरूपका किंचिन्मात्र भी हिस्सा नहीं जलेगा, नष्ट नहीं होगा। अत: संसार हमारा निरादर कर दे, अपमान कर दे, निन्दा कर दे, दु:ख दे दे, शरीरका टुकड़ा-टुकड़ा कर दे तो क्या हो जायगा? गीताने कहा है—‘यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते’ (६।२२) अर्थात् परमात्मस्वरूप आत्यन्तिक सुखमें स्थित मनुष्य बड़े भारी दु:खसे भी विचलित नहीं किया जा सकता। किसी कारणसे शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर दिये जायँ, तो भी वह अपने स्वरूपसे विचलित नहीं होता, महान् आनन्दसे इधर-उधर नहीं होता। हाँ, शरीरको पीड़ा हो सकती है, मूर्च्छा आ सकती है, पर दु:ख नहीं हो सकता। इतना आनन्द सांसारिक वस्तुओंसे कभी नहीं हो सकता। परंतु आपने मैं और शरीर दो हैं—इस बातका अनादर कर दिया और शरीरके साथ एक होकर उसके दु:खमें दु:ख और सुखमें सुख मान लिया; इसको कृपा करके न मानें।

श्रोता—शरीर तो प्रत्यक्ष दीखता है; इसको कैसे नहीं मानें?

स्वामीजी—दीखता है तो दीखता रहे, इसको मानो मत। दर्पणमें अपना मुख दीखता है तो उस मुखको आप दर्पणमें मानते हो क्या? नहीं मानते। दर्पणमें दीखनेवाले मुखको आप पकड़ सकते हो क्या? नहीं पकड़ सकते। अत: जो दीखता है, उसको आप मत मानो। मैं शरीर हूँ—यह दर्पणमें दीखनेवाले मुखकी तरह दीखता है, वास्तवमें है नहीं। अगर आप और शरीर एक होते तो शरीर आपसे छूट नहीं सकता और आप शरीरको छोड़ नहीं सकते। परन्तु मरनेपर शरीर छूट जाता है और आप शरीरको छोड़ देते हो; आप और शरीर एक नहीं हुए। जैसे, मैं मकानमें बैठा हूँ तो मेरे बिना भी यह मकान रहता है और इस मकानके बिना भी मैं रहता हूँ; अत: मैं मकान नहीं हूँ। हम मरे हुए मनुष्योंको, पशुओंको देखते हैं कि उनके शरीर तो यहीं पड़े हैं, पर उनमें रहनेवाला जीवात्मा चला गया है। वे दोनों अभी अलग हुए हों, ऐसी बात नहीं है। वे तो पहलेसे ही अलग थे। अगर जीवात्मा और शरीर एक होते तो जीवात्माके साथ शरीर भी चला जाता अथवा शरीरके साथ जीवात्मा भी यहीं रहता। परंतु न तो जीवात्माके साथ शरीर रहता है और न शरीरके साथ जीवात्मा रहता है। अत: शरीर और जीवात्मा दो हैं—इसमें कोई सन्देह नहीं। इन दोनोंको अलग-अलग जानना ही ज्ञान है, जिसका वर्णन भगवान् ने गीताके आरम्भमें किया है (२। ११—३०)। अपने उपदेशके आरम्भमें ही भगवान् ने बताया कि शरीर और शरीरी, देह और देही—ये दोनों अलग-अलग हैं। शरीर सदा बदलनेवाला है, पर शरीरी कभी बदलनेवाला, नष्ट होनेवाला नहीं है। इस प्रकार जान लेनेपर शोक हो ही नहीं सकता; क्योंकि नाश होनेवालेका नाश होगा ही, इसमें शोककी क्या बात? और अविनाशी सदा अविनाशी ही रहेगा, इसमें शोक किस बातका?

जैसे आप अपनेको शरीरमें मानते हैं, ऐसे ही परमात्मतत्त्व सम्पूर्ण संसारमें है। सम्पूर्ण संसारमें होते हुए भी परमात्माका संसारसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। सब-का-सब संसार उथल-पुथल हो जाय, तो भी परमात्माका कुछ नहीं बिगड़ता। ऐसे ही आपका शरीर उथल-पुथल हो जाय, तो भी आपका कुछ नहीं बिगड़ता। आप जैसे हो, वैसे ही रहते हो। आपने गुणोंका संग माना है, शरीरके साथ अपना सम्बन्ध माना है, इसलिये जन्म-मरण होते हैं—‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३। २१)। गुणोंका संग छोड़नेपर जन्म-मरण हैं ही नहीं। गुणोंका संग आपने माना है; अत: उसको न माननेपर वह सम्बन्ध मिट जायगा।

यह एक सीधी, सच्ची बात है कि आप नित्य-निरन्तर रहते हैं और शरीर एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, नित्य-निरन्तर बदलता है। यह बात सुननेपर अच्छी लगती है, ठीक (सही) लगती है, फिर भी यह बात रहती नहीं—ऐसा आप मत मानो। यह बात कभी जा नहीं सकती। अनन्त युगोंसे यह बात वही रही, तो अब कैसे चली जायगी? पहले इस बातकी तरफ लक्ष्य नहीं था, अब लक्ष्य हो गया—इतना फर्क पड़ गया, बस। यह बात न तो पहले गयी थी, न अब जायगी। यह तो सदा ऐसी ही रहेगी। याद न रहे तो भी यह ऐसी ही रहेगी। इसका अनुभव न हो तो भी यह बात ऐसी ही रहेगी। जैसे, अभी यह खम्भा दीखता है। बाहर चले जाओ तो यह खम्भा नहीं दीखेगा, तो यह खम्भा मिट गया क्या? जो बात सही है, वह तो ज्यों-की-त्यों ही रहेगी।

श्रोता—फिर बाधा क्या लग रही है?

स्वामीजी—दूसरोंसे सुख लेते हैं—यही खास बाधा है। अब दूसरोंको सुख देना शुरू कर दो। इतने दिन तो सुख लिया है, अब सुख देना शुरू कर दो, बस। निहाल हो जाओगे!

रुपया-पैसा मेरेको मिल जाय, आराम मेरेको मिल जाय, सुख मेरेको मिल जाय, मान मेरा हो जाय, बड़ाई मेरी हो जाय—यही महान् बाधा है और इससे मिलेगा कुछ भी नहीं। रुपया-पैसा, मान-बड़ाई आदि मिल भी जायँ तो टिकेंगे नहीं और टिक भी जायँ तो आपका शरीर नहीं टिकेगा। शुद्ध हानिके सिवाय केश-जितना भी लाभ नहीं होगा। इतने नुकसानकी बातको भी नहीं छोड़ोगे तो क्या छोड़ोगे?

संसारसे सुख लेनेकी जो कामना है, यही बाधा है। धन, मान, भोग, जमीन, मकान आदिकी कई तरहकी कामनाएँ हैं, पर मूलमें कामना यही है कि मेरे मनकी बात पूरी हो जाय, मैं जैसा चाहूँ वैसा हो जाय। अगर इसकी जगह यह भाव हो जाय कि मेरे मनकी न होकर भगवान् के मनकी हो जाय अथवा संसारके मनकी हो जाय तो निहाल हो जाओगे, इसमें सन्देह नहीं। भगवान् के मनकी बात पूरी हो जाय—यह भक्तियोग हो गया। संसारके मनकी बात पूरी हो जाय—यह कर्मयोग हो गया। मेरे मनकी बात है ही नहीं, मन मेरा है ही नहीं, यह तो प्रकृतिका है—यह ज्ञानयोग हो गया।

नारायण! नारायण! नारायण!

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