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असत् पदार्थोंके आश्रयका त्याग करें

उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुओंके बिना मेरा काम नहीं चलेगा—ऐसा मानना स्वयंकी खास भूल है। स्वयं परमात्माका साक्षात् अंश होनेसे सत् और अपरिवर्तनशील है। संसारकी जितनी वस्तुएँ हैं, वे असत् और परिवर्तनशील हैं।

‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।’
(गीता २।१६)

‘असत् की तो सत्ता नहीं होती और सत् का अभाव नहीं होता।’ बचपनसे लेकर आजतक देखें तो शरीर, शक्ति, योग्यता, खेल आदिका विषय, साथी, देश, काल, परिस्थिति आदि सबका परिवर्तन हो गया, पर मैं वही हूँ। सबका परिवर्तन हो गया—यह (बदलनेवाला) तो हुआ ‘असत्’ और मैं वही हूँ—यह (न बदलनेवाला) हुआ ‘सत्’। स्वयं सत् होकर भी अपनेको असत् के अधीन मानना कि इसके बिना मेरा काम नहीं चलेगा, बड़ी भारी भूल है!

शरीरके बिना मेरा काम नहीं चलेगा, रुपयोंके बिना काम नहीं चलेगा, कुटुम्बके बिना काम नहीं चलेगा, मकानके बिना काम नहीं चलेगा, कपड़ेके बिना काम नहीं चलेगा, अन्न-जलके बिना काम नहीं चलेगा—यह सब असत् का आश्रय है। असत् का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। अगर उसका स्वतन्त्र अस्तित्व होता तो उसको असत् क्यों कहते? असत् नाम ही उसका है, जिसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता, जो किसीके आश्रित रहता है; जो निरन्तर मिटता रहता है, जो निरन्तर अदृश्य होता रहता है, जो निरन्तर अभावमें जाता रहता है। स्वयं सत् होते हुए भी असत् का आश्रय ले लेना, असत् के पराधीन हो जाना और उस पराधीनतामें भी स्वाधीन-बुद्धि कर लेना—यह खास गलती है।

पराधीनतामें भी स्वाधीन-बुद्धि कैसे होती है—इसको आप इस तरह समझें। मान लें कि आपको एक चश्मेकी जरूरत हुई। अब विचार होता है कि ‘एक चश्मा चाहिये, क्या करें? किससे कहें? कौन लाकर दे?’ हमारे पास रुपये नहीं हैं, इसलिये हम पराधीन हो गये। अगर हमारे पास रुपये होते तो हम पराधीन नहीं होते और चट रुपये देकर ले लेते। इस प्रकार पासमें रुपये न होनेसे आप अपनेको पराधीन मानने लगते हैं। अब विचार करें कि आप स्वयं रुपये हो क्या? रुपये भी तो ‘पर’ ही हैं। आप रुपयोंके अधीन होनेपर भी अपनेको स्वाधीन मान लेते हो—यही पराधीनतामें स्वाधीनता-बुद्धि होना है।

पराधीनतामें स्वाधीनताकी बुद्धि होनेके समान दूसरा अनर्थ कोई है ही नहीं। सम्पूर्ण पाप इसके बेटे हैं। पाप, अन्याय, झूठ, कपट, नरक आदि सब इस बुद्धिके होनेसे ही होते हैं। आप विचार करें कि रुपये ‘स्व’ हैं या ‘पर’ हैं? रुपयोंके अधीन होना स्वाधीनता है या पराधीनता है? परन्तु आप पराधीनतामें ही स्वाधीनताकी बुद्धि कर लेते हैं कि हमारे पास रुपये होते तो हम चट रेलपर, हवाई जहाजपर चढ़कर चले जाते; यह ले लेते, वह ले लेते। यह रुपयोंकी पराधीनता है। रुपयेके बिना वस्तु नहीं मिलती, यह प्रत्यक्ष बात है, फिर हम स्वाधीन कब होंगे? हम स्वाधीन तब होंगे जब हमें किसी चीजकी जरूरत ही नहीं रहे; न चश्मेकी जरूरत रहे, न अन्न-जलकी जरूरत रहे, न कपड़ेकी जरूरत रहे। यह कब होगा? यह तब होगा, जब आप स्वयंको शरीरसे अलग अनुभव करोगे।

आप शरीरके साथ मिलकर एक हो जाते हो तो शरीरकी जरूरत आपकी जरूरत हो जाती है। जैसे, कोई पुरुष विवाह कर लेता है तो जब वह स्त्रीके लिये लहँगा, नथ आदि खरीदने जाता है तो दुकानदारसे कहता है कि मेरेको लहँगा चाहिये, नथ चाहिये। दुकानदार उससे पूछे कि क्या तुम लहँगा, नथ पहनते हो तो वह कहेगा मेरेको नहीं, घरमें चाहिये। उसने स्त्रीके साथ सम्बन्ध कर लिया, तो अब स्त्रीकी आवश्यकता उसकी अपनी आवश्यकता हो गयी। ऐसे ही शरीरमें ‘मैं’ और ‘मेरा’ कर लेनेसे शरीरकी आवश्यकता अपनी आवश्यकता दीखने लग जाती है। वास्तवमें यह आपकी आवश्यकता नहीं है, यह शरीरकी आवश्यकता है। आपको किसी वस्तुकी बिलकुल आवश्यकता नहीं है।

श्रोता—शरीरसे मैं अलग हूँ, यह अनुभव नहीं होता, क्या करें?

स्वामीजी—शरीर ही मैं हूँ और शरीर ही मेरा है—यह असत् का संग है। आप सत् हो, शरीर असत् है। आप अविनाशी हो, शरीर विनाशी है। अत: आप और शरीर एक कैसे हुए?

श्रोता—इस बातको जानते हैं, पर यह जानना टिकाऊ नहीं रहता।

स्वामीजी—टिकाऊ नहीं रहता तो इसका दु:ख होता है क्या? टिकाऊ रहनेसे कोई फायदा और टिकाऊ न रहनेसे कोई नुकसान दीखता है क्या? अगर आप ‘मैं शरीरसे अलग हूँ’—इस जानकारीको वास्तवमें टिकाऊ रखना चाहते हैं तो कोई बाधा है ही नहीं। परन्तु आप इसको टिकाऊ रखना चाहते ही नहीं। इसके टिकाऊ न रहनेका आपको दु:ख ही नहीं है। इस समय तो आप ऐसा कहते हो कि यह टिकाऊ नहीं रहता, पर क्या दूसरे समय भी आपको इसकी याद आती है?

आप शरीरकी आवश्यकताएँ पूरी कर ही लेते हो—ऐसा नियम नहीं है। वास्तवमें शरीरकी आवश्यकता स्वत: पूरी होती है।

प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर।
तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्रीरघुवीर॥

शरीर-निर्वाहका आपके ऊपर ठेका नहीं है। आप शरीर-निर्वाहकी चिन्ता करके जान-बूझकर आफत मोल लेते हो। वास्तवमें शरीरका निर्वाह जैसा होना होगा, वैसा ही होगा, चेष्टा करनेपर भी वैसा ही निर्वाह होगा और चेष्टा नहीं करनेपर भी वैसा ही निर्वाह होगा। प्रारब्धमें अगर बिना अन्नके मरना लिखा है तो बिना अन्नके मरना पड़ेगा, चाहे कितनी ही चेष्टा कर लो। अगर मरना नहीं है तो चाहे कुछ भी चेष्टा मत करो, शरीरका निर्वाह होगा।

इस बातपर आप ध्यान देना कि आपके शरीर-निर्वाहके लिये तो परमात्माकी तरफसे प्रबन्ध है, पर आपकी तृष्णाकी पूर्तिके लिये प्रबन्ध नहीं है, नहीं है, नहीं है। आप जो चाहते हो कि इतना मिल जाय, इतना मिल जाय—इसकी पूर्तिके लिये कोई प्रबन्ध नहीं है; परन्तु आपके शरीर-निर्वाहके लिये पूरा प्रबन्ध है। जिसने जन्म दिया है, उसने जीवन-निर्वाहका भी पूरा प्रबन्ध किया है। अपनी माँके स्तनोंमें दूध आपने-हमने पैदा किया था क्या? माँका दूध पैदा करनेके लिये आपने-हमने कोई उद्योग किया था क्या? माँके दूधका प्रबन्ध जिसने किया था, क्या वह बदल गया? क्या वह मर गया? क्या अब कोई नयी बात हो गयी? इसलिये शरीर-निर्वाहके लिये चिन्ता कभी नहीं करनी चाहिये। चेष्टा करनेके लिये मैं मना नहीं करता। निर्वाहमात्रके लिये चेष्टा करो। कारण कि पदार्थोंका कर्मोंके साथ सम्बन्ध है। अत: कर्म तो करो, पर चिन्ता मत करो।

मोटरकी चार अवस्थाएँ होती हैं—१. मोटर गैरजमें खड़ी है। उस समय न तो इंजन चलता है और न पहिये चलते हैं, दोनों बन्द हैं। २. जब मोटर चालू करते हैं, तब इंजन तो चलने लगता है, पर पहिये नहीं चलते। ३. जब मोटरको वहाँसे रवाना कर देते हैं, तब पहिये भी चलते हैं और इंजन भी चलता है। ४. चलते-चलते आगे साफ मैदान आ गया, बहुत दूरतक रास्ता साफ दीखता है, वृक्ष आदिकी कोई आड़ नहीं है और रास्ता ढलवाँ है अर्थात् थोड़ा नीचेकी तरफ जा रहा है, उस समय इंजन बन्द कर दें तो पहिये चलते रहेंगे—मोटर चलती रहेगी और तेल भी खर्च नहीं होगा। इस प्रकार मोटरकी चार अवस्थाएँ हुईं। इन चारों अवस्थाओंमें सबसे बढ़िया अवस्था वह हुई, जिसमें पहिये तो चलें पर इंजन न चले अर्थात् तेल भी खर्च न हो और रास्ता भी तय हो जाय। सबसे घटिया अवस्था वह हुई जिसमें इंजन तो चले, पर पहिया न चलें अर्थात् तेल तो जले, पर रास्ता तय न हो। ऐसे ही आप भीतरसे चिन्ता करते हैं—यह आपकी घटिया अवस्था है। परंतु आप चिन्ता न करके कर्तव्य करते हैं—यह आपकी बढ़िया अवस्था है। इसको गीताने ‘कर्मयोग’ कहा है—

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
(गीता २।४७)

‘तेरा कर्तव्य-कर्म करनेमें ही अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं। अत: तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो।’

अकर्मण्य कभी मत होओ। कर्तव्य-कर्म करते रहो, पर फलकी इच्छा मत करो। चिन्ता मत करो कि क्या मिलेगा, कैसे होगा! इच्छा करनेसे, चिन्ता करनेसे पदार्थ नहीं मिलते। पदार्थ कर्मोंसे मिलते हैं, चाहे वे कर्म पूर्वके (प्रारब्ध) हों अथवा वर्तमानके। इसलिये कर्म करो। भीतरके इंजनको क्यों चलाते हो अर्थात् चिन्ता क्यों करते हो?

चिन्ताके विषयमें एक बात और समझनेकी है। अन्त:करणकी दो वृत्तियाँ हैं—एक विचार है और एक चिन्ता है। विचारसे बुद्धि विकसित होती है और चिन्तासे बुद्धि नष्ट होती है—‘बुद्धि: शोकेन नश्यति’। विचारपूर्वक कोई काम किया जायगा तो वह काम बढ़िया होगा। अगर चिन्ता हो जायगी तो वह काम घटिया होगा, उसमें भूलें होंगी। जिसके भीतर चिन्ता-शोक होते हैं, उस आदमीको होश नहीं रहता, उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। इसलिये चिन्ता न करके सभी काम विचारपूर्वक करो। छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा जो भी काम करो, विचारपूर्वक ठीक तरहसे करो।

अपनी शारीरिक आवश्यकताएँ हम पूरी कर लेंगे—यह अपने हाथकी बात बिलकुल नहीं है। आवश्यकता वास्तवमें है ही नहीं; क्योंकि शरीर भी वास्तविक नहीं है, फिर इसकी आवश्यकता कैसे वास्तविक होगी? आप स्वयं वास्तविक हो, इसलिये आपकी आवश्यकता ही वास्तविक आवश्यकता है। आपकी आवश्यकता है—आत्मतत्त्वको प्राप्त करना। शरीर-निर्वाहकी आवश्यकता पूरी होनेवाली होगी तो पूरी हो जायगी और पूरी नहीं होनेवाली होगी तो पूरी नहीं होगी; परन्तु परमात्मतत्त्वकी आवश्यकता आप चाहोगे तो जरूर पूरी होगी; क्योंकि इसके लिये ही यह मनुष्य-शरीर मिला है। यह मनुष्य-शरीर खाने-पीनेके लिये नहीं मिला है। हमने शास्त्रमें कहीं ऐसी बात नहीं पढ़ी कि यह मनुष्य-शरीर रुपया कमानेके लिये मिला है अथवा भोग भोगनेके लिये मिला है। सदाके लिये कल्याण हो जाय, उद्धार हो जाय—इसके लिये ही मनुष्य-शरीर मिला है। इस विषयमें भी एक बड़े रहस्यकी, छिपी हुई बात है कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति शरीरसे नहीं होती! परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति विवेकशक्तिसे होती है, शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे नहीं। सत्-असत्, नित्य-अनित्य, सार-असार आदिको ठीक-ठीक जाननेके लिये मनुष्यको जो विवेकशक्ति मिली हुई है, उसीसे उद्धार होगा। उस विवेकशक्तिका सदुपयोग करनेसे सांसारिक काम भी बढ़िया होगा और पारमार्थिक काम भी बढ़िया होगा। इसलिये उस विवेकशक्तिका सदुपयोग करें, इसीके लिये मानव-शरीर मिला है।

नारायण! नारायण! नारायण!

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