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भगवान् से नित्ययोग

श्रोता—भगवान् तो प्रत्यक्ष नहीं दीखते, पर धन प्रत्यक्ष दीखता है; तो फिर धनका आश्रय कैसे छोड़ें?

स्वामीजी—वास्तवमें धन है ही नहीं, दीखे कहाँसे? अभी आपको धन कहाँ दीखता है? धनका आश्रय हरदम दीखता है, धन हरदम नहीं दीखता। इस बातपर खूब विचार करो। धन आता हुआ दीखता है अथवा जाता हुआ दीखता है, रहता हुआ नहीं दीखता। धन पहले था नहीं और बादमें रहेगा नहीं, पर भगवान् पहले भी थे अब भी हैं और बादमें भी रहेंगे। भगवान् आते-जाते हैं ही नहीं। अत: यह कैसे कहा जाय कि भगवान् नहीं दीखते और धन दीखता है? हाँ, भगवान् नेत्रोंसे नहीं दीखते। वे तो बुद्धिरूपी नेत्रोंसे दीखते हैं, आस्तिक-भावसे दीखते हैं।

धनका आश्रय पहले नहीं था, पहले (छोटी अवस्थामें) माँका आश्रय था। धनका आश्रय बादमें पकड़ा है। परन्तु भगवान् का आश्रय पहलेसे है। उनके आश्रयसे अनन्त ब्रह्माण्ड चल रहे हैं। उनका आश्रय पहले भी था, अब भी है और आगे भी रहेगा। उनके आश्रयका कभी अभाव नहीं होता। परन्तु धनका आश्रय सदा रहेगा—यह बात है ही नहीं।

धन सदा साथमें नहीं रहेगा। हम धनके साथ नहीं रहेंगे और धन हमारे साथ नहीं रहेगा। परन्तु भगवान् सदा हमारे साथ रहेंगे। हम भगवान् के बिना नहीं रह सकते और भगवान् हमारे बिना नहीं रह सकते। हमारी ताकत नहीं है कि हम भगवान् से अलग हो सकें। इतना ही नहीं, भगवान् की भी ताकत नहीं है कि वे हमारेको छोड़कर अलग रह सकें। जिस दिन भगवान् हमारेको छोड़कर अलग रहेंगे, उस दिन हम एक अलग भगवान् हो जायँगे। इस प्रकार दो भगवान् हो जायँगे, जो कि सम्भव नहीं है। अत: भगवान् हमारा साथ छोड़ ही नहीं सकते, इसलिये भगवान् का ही आश्रय लेना चाहिये।

आश्रय उसीका लेना चाहिये, जिसकी स्वतन्त्र सत्ता हो। जिसकी परतन्त्र सत्ता हो, उसका आश्रय हमें लेना ही नहीं है। भगवान् की स्वतन्त्र सत्ता है; अत: हमें भगवान् का ही आश्रय लेना चाहिये। वे भगवान् कभी हमारेसे अलग नहीं होते। हमारेसे अलग होनेकी उनमें सामर्थ्य ही नहीं है। भगवान् सर्वव्यापक हैं, सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें परिपूर्ण हैं, अत: वे हमें कैसे छोड़ देंगे? अगर छोड़ देंगे तो वे सर्वव्यापक कैसे हुए? भगवान् को छोड़कर हम रह ही नहीं सकते। हम रहेंगे तो उसीमें रहेंगे, नहीं रहेंगे तो उसीमें रहेंगे, जन्मेंगे तो उसीमें रहेंगे, मरेंगे तो उसीमें रहेंगे और जन्म-मरणसे रहित (मुक्त) हो जायँगे तो उसीमें रहेंगे। हम भगवान् को छोड़कर नहीं रह सकते और भगवान् हमें छोड़कर नहीं रह सकते। हम दूसरेका आश्रय लेते हैं, यही बाधा है।

एक विशेष बात है, आपलोग ध्यान देकर सुनें। बात गहरी है, पर बड़ी सरलतासे बताता हूँ। ‘मैं हूँ’—इसका अनुभव सबको है। मैं हूँ कि नहीं हूँ—इसमें कभी सन्देह होता है क्या? इसमें क्या किसीकी गवाही लेनी पड़ती है? किसीको पूछना पड़ता है कि बताओ मैं हूँ कि नहीं हूँ? ‘मैं हूँ’—यह अनुभव स्वाभाविक तथा स्वतन्त्रतासे है। मैं कैसा हूँ, क्या हूँ—यह चाहे हम न जानें, पर ‘मैं हूँ’—इस अपने होनेपनमें कभी हमें संदेह नहीं होता। इससे सिद्ध हुआ कि मैं अनेक जन्मोंमें था, इस जन्ममें भी हूँ और आगे भी रहूँगा। अभी जागनेमें, सोनेमें, स्वप्नमें भी मैं निरन्तर हूँ। बचपनसे लेकर अभीतक बीचमें कभी मैं नहीं रहा, किसी समय मैं नहीं था—ऐसी बात हुई है क्या? अपनी सत्ता नित्य-निरन्तर अनुभवमें आती है कि ‘मैं हूँ’। यह एकदम सबके अनुभवकी बात है। इस नित्य-निरन्तर रहनेवाली हमारी सत्तामें कभी कमी नहीं आती। कमी आये बिना हमारे भीतर कामना कैसे हो सकती है? हमारे भीतर कामना तभी होती है, जब हम उत्पत्ति-विनाशवाले शरीरको अपने साथ मान लेते हैं। जब शरीर, पदार्थ, परिवार आदिको अपने साथ मान लेते हैं; तब उनमें कमी आनेसे हमारे भीतर कामना होती है। अत: शरीर, परिवार, धन-सम्पत्ति, वैभव आदिको अपने साथ न मानें; क्योंकि ये सब तो बदलनेवाले हैं और मैं निरन्तर रहनेवाला हूँ! बालकपन, जवानी, बुढ़ापा, रोग-अवस्था, नीरोग-अवस्था—ये सब अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, पर मैं सदा ज्यों-का-त्यों रहता हूँ।

शरीर बदलनेके साथ आप अपना बदलना भी मान लेते हैं, पर वास्तवमें आप बदलते नहीं हैं। आपके बचपनका अभाव हो गया; तो आपका अभाव भी हो गया क्या? जैसे ‘मैं हूँ’— इसका कभी अभाव नहीं होता, ऐसे ही भगवान् का कभी अभाव नहीं होता। वे सदासे हैं और सदा रहेंगे। सन्तोंके, शास्त्रोंके कहनेसे पता लगता है कि ‘सदा’ तो मिट जायगा, पर भगवान् रहेंगे। कारण कि ‘सदा’ नाम कालका है और भगवान् कालको भी खा जाते हैं—

ब्रह्म-अगनि तन बीचमें, मथकर काढ़े कोय।
उलट कालको खात है, हरिया गुरुगन होय॥
नवग्रह चौंसठ जोगनी, बावन वीर पर्जन्त।
काल भक्ष सबको करे, हरि शरणे डरपन्त॥

तात्पर्य है कि काल भी नष्ट हो जाता है और परमात्मा रहते हैं।

‘मैं हूँ’—इसमें ‘हूँ’-पना शरीरको लेकर है। यदि शरीरसे सम्बन्ध न रहे तो ‘है’-पना ही रहेगा ‘तू है’, ‘यह है’, ‘वह है’ और ‘मैं हूँ’—इन चारोंके सिवाय कुछ है ही नहीं। इनके सिवाय पाँचवाँ कोई हो तो बताओ? इन चारोंमें केवल ‘मैं’ के साथ ही ‘हूँ’, आया है, बाकी तीनोंके साथ ‘है’ आया है। ‘मैं’ लगानेसे ही ‘हूँ’ हुआ है—‘अस्मद्युत्तम:’। यदि ‘मैं’ को साथमें नहीं लगायें तो ‘है’ ही रहेगा। इस ‘है’ में कभी कमी नहीं आती। कारण कि सत् में कभी अभाव नहीं होता—‘नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २। १६) वह नित्य-निरन्तर रहता है। उस नित्य-निरन्तर रहनेवाले परमात्मतत्त्वमें ही मैं हूँ—केवल इतनी बात आप मान लो। इसके सिवाय और आपको कुछ नहीं करना है।

यह एक बड़ा भारी वहम है कि करनेसे ही परमात्मप्राप्ति होगी। अत: भजन करो, जप करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो, ध्यान करो, समाधि लगाओ। इस प्रकार करनेपर ही बड़ा भारी जोर है। बातोंसे कुछ नहीं होगा, करनेसे होगा—यह धारणा रोम-रोममें बैठी हुई है। परंतु मैं इससे विलक्षण बात कहता हूँ कि ‘है’ रूपसे जो सर्वत्र परिपूर्ण सत्ता है, जिसमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता, उसीमें ही मैं हूँ। ‘मैं’ और वह ‘है’ एक ही है। जब ऐसा ठीक तरहसे जान लिया तो फिर क्या करना रहा? क्या जानना रहा? क्या पाना रहा? मैं नित्य-निरन्तर परमात्मामें हूँ—यह असली शरण है। उस सर्वत्र परिपूर्ण ‘है’-(परमात्मतत्त्व) से अलग कोई हो ही नहीं सकता। उस ‘है’ की ही प्राप्ति करनी है, ‘नहीं’ की प्राप्ति नहीं करनी है। ‘नहीं’ की प्राप्ति होगी, तो अन्तमें ‘नहीं’ ही रहेगा। जो नहीं है वह प्राप्त होनेपर भी रहेगा कैसे? इसलिये ‘है’ की ही प्राप्ति करनी है, और उस ‘है’ की प्राप्ति नित्य-निरन्तर है। हम उसमें हैं और वह हमारेमें है।

यह सबका अनुभव है कि ‘मैं हूँ’ और मैं वही हूँ, जो बचपनमें था। अवस्था बदल गयी, समय बदल गया, संयोग बदल गया, साथी बदल गये, भाव बदल गये; परंतु आप बदले हो क्या? आप नहीं बदले। ऐसे ही सब संसार बदलता है, पर परमात्मा नहीं बदलते। हम उस परमात्माके अंश हैं, संसारके अंश नहीं हैं। संसारके अंश शरीरको तो हमने (‘मैं’ और ‘मेरा’ मानकर) पकड़ा है। वास्तवमें वह हमारा नहीं है, प्रत्युत संसारका है।

‘हूँ’ तो ‘है’ से कमजोर ही है। कारण कि ‘हूँ’ शरीरको लेकर (एकदेशीय) है और शरीर कमजोर है ही। शरीर तो नहीं रहेगा, पर ‘है’ तो रहेगा ही। ‘है’ (परमात्मा) समुद्र है और ‘हूँ’ उसकी तरंग है। तरंग शान्त होनेपर भी समुद्र तो रहता ही है। अत: हमारा स्वरूप ‘है’ से अभिन्न है—इस बातको आप मान लो। समझमें न आये, तो भी मान लो। इतनी बात मान लो कि मैं उसका हूँ। ऐसा मानकर जप करो, कीर्तन करो, स्वाध्याय करो, सत्संग करो। ‘हूँ’ का ‘है’ ही है।

‘हूँ’ बदलता है और ‘है’ नहीं बदलता—यही बात मैं कहना चाहता हूँ। यह सार बात है। सनकादि ऋषियोंका भी यही ज्ञान है। ब्रह्मा आदिका भी यही ज्ञान है। व्यासजी महाराजका भी यही ज्ञान है। शुकदेवजीका भी यही ज्ञान है। जितने सन्त-महात्मा हुए हैं, उनका भी यही ज्ञान है। इस ज्ञानसे आगे कुछ है नहीं। कैवल्य ज्ञान भी इसके सिवाय और कुछ नहीं है। किसी मत-मतान्तरमें इससे बढ़कर कोई चीज है नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं। इतनी सरल और इतनी ऊँची बात है। इसको हरेक भाई-बहन, साधारण पढ़ा-लिखा, बिलकुल पढ़ा-लिखा और बिना पढ़ा-लिखा भी समझ सकता है, इतनी सीधी बात है! इससे बड़ी बात आपको कहीं भी नहीं मिलेगी। ऐसा इसलिये कहता हूँ कि आप इसका आदर करें, इसको महत्त्व दें कि ऐसी ऊँची बात आज मिल गयी! उपनिषदोंमें आता है कि बहुत-से आदमियोंको तो ऐसी बात सुननेको भी नहीं मिलती—‘श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्य:’ (कठ० १।२।७)। उम्र बीत जाती है और सुननेको नहीं मिलती।

अब आपको एक और बात बताऊँ कि अभी आपकी जैसी मान्यता है, ऐसी मान्यता आगे न रहे तो कोई बात नहीं, आप घबराना नहीं कि हमें यह बात हरदम याद नहीं रहती। आपको अपना नाम हरदम याद रहता है क्या? हरदम याद न रहनेपर भी जब देखो, तब दीखता है कि मैं अमुक नामवाला हूँ। इसी तरह यह बात हरदम भले ही याद न रहे, पर विचार करते ही यह चट याद आ जायगी कि बात तो ऐसी ही है। इससे सिद्ध होता है कि यह बात मिटी नहीं है, इसकी भूली नहीं हुई है। इसकी भूली तब मानी जाय, जब आप इस बातको रद्दी कर दो, यह कहो कि मैं इस नामवाला नहीं हूँ। अत: बीचमें यह बात याद न आनेपर भी इसकी भूली नहीं हुई है, नहीं हुई है, नहीं हुई है। इस बातको रद्दी करो तो बात दूसरी है, नहीं तो आठ पहरमें एक बार भी याद नहीं आये, तो भी बात ज्यों-की-त्यों ही रहेगी। ‘है’ कैसे मिट जायगा? इतनी ऊँची, इतनी बढ़िया, इतनी पक्की बात है! मान लो तो बेड़ा पार है।

नारायण! नारायण! नारायण!

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