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इच्छाके त्याग और कर्तव्य-पालनसे लाभ

श्रोता—आपको आध्यात्मिक लाभ कैसे हुआ?

स्वामीजी—मुझे तो सत्संगसे लाभ हुआ है। मैं साधनको इतना महत्त्व नहीं देता, जितना सत्संगको देता हूँ। दूसरोंके लिये भी मैं समझता हूँ कि अगर वे मन लगाकर, गहरे उतरकर सत्संगकी बातें समझें तो उनको लाभ बहुत हो सकता है। एक विशेष बात कह देता हूँ कि अगर आप सत्संगको महत्त्व दें और उसको गहरे उतरकर समझें तो मेरेको जितने वर्ष लगे, उतने वर्ष आपको नहीं लगेंगे! बहुत जल्दी आपकी उन्नति होगी—ऐसा मेरेको स्पष्ट दीखता है, मेरेको सन्देह नहीं है इस बातपर। इस विषयमें मैं आपको अयोग्य, अनधिकारी नहीं मानता हूँ। आपमें जो कमी है, उस कमीको दूर करनेकी सामर्थ्य आपमें पूरी है। मेरी धारणासे आपमें केवल इस विषयकी उत्कण्ठाकी कमी है। वह उत्कण्ठा जाग्रत् हो जाय तो आप पापी-से-पापी हों, मूर्ख-से-मूर्ख हों और आपके पास थोड़ा-से-थोड़ा समय हो तो भी आपका उद्धार हो सकता है। उत्कण्ठा जाग्रत् होगी संसारकी लगनका त्याग करनेसे।

कबीर मनुआँ एक है, भावे जहाँ लगाय।
भावे हर की भगति कर, भावे विषय कमाय॥

सांसारिक संग्रह और भोगोंमें जो लगन लगी है, उसको मिटा दो तो परमात्मप्राप्तिकी सच्ची लगन लग जायगी। इतना रुपया हो गया; इतना और हो जाय; इतना सुख भोग लें, ऐश-आराम कर लें; मान मिल जाय, बड़ाई मिल जाय, नीरोगता मिल जाय, समाजमें मेरा ऊँचा स्थान हो जाय, हम ऐसे बन जायँ—ये जितनी इच्छाएँ हैं, इनका त्याग कर दो तो आपको सच्ची लगन लग जायगी। जितनी लगन लगनी चाहिये, उतनी नहीं लग रही है तो इसका कारण यह है कि जितना त्याग होना चाहिये, उतना नहीं हो रहा है। त्याग क्या है? गीताने इच्छाके त्यागको ही ‘त्याग’ कहा है। इच्छा क्या है? ऐसा तो होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये—यह इच्छा है।

श्रोता—इच्छा किये बिना शरीरका, कुटुम्बका पालन-पोषण कैसे होगा?

स्वामीजी—पालन-पोषण इच्छासे नहीं होता है। इस बातको समझनेकी कृपा करो। कृपानाथ! पैसोंका पैदा होना, पदार्थोंका प्राप्त होना इच्छापर बिलकुल निर्भर नहीं है। पदार्थोंकी प्राप्ति होती है पूर्वके कर्मोंसे और अभीके कर्मों-(उद्योगों) से। कारण कि कर्मोंका और पदार्थोंका घनिष्ठ सम्बन्ध है। इच्छाका और पदार्थोंका बिलकुल भी सम्बन्ध नहीं है। आपमेंसे कोई भी कह सकता है कि मैंने धनकी इच्छा नहीं की, इसलिये मैं निर्धन रहा। अगर इच्छा कर लेता तो धनवान् हो जाता। वास्तवमें यह बात है ही नहीं। इस बातको आप समझनेकी कृपा करो। इच्छाके साथ पदार्थोंका बिलकुल सम्बन्ध नहीं है। पदार्थोंका सम्बन्ध कर्मोंके साथ है; क्योंकि क्रिया और पदार्थ—ये दोनों ही प्राकृत चीजें हैं, दोनों एक ही तत्त्व हैं। अत: पदार्थोंका सम्बन्ध पूर्वके अथवा वर्तमानके कर्मोंके साथ है। पूर्वके कर्मोंको प्रारब्ध कहते हैं और वर्तमानके कर्मोंको पुरुषार्थ कहते हैं।

इच्छाके साथ पदार्थोंका सम्बन्ध बिलकुल नहीं है। अगर मैं इच्छा करूँ कि मेरा पालन-पोषण हो जाय, तो क्या इस प्रकार इच्छा करनेसे मेरा पालन-पोषण हो जायगा। आपलोगोंसे कहें कि घण्टाभर आप सब मिल करके यह इच्छा करो कि इसके कुटुम्बका पालन-पोषण हो जाय और इसको एक कौड़ी भी मत दो, तो क्या इसके कुटुम्बका पालन-पोषण हो जायगा? कदापि नहीं। इच्छाके साथ केवल परमात्माका सम्बन्ध है। अगर परमात्माकी प्राप्तिकी तीव्र इच्छा, उत्कट अभिलाषा हो जाय तो उसकी प्राप्ति हो जायगी! इसका कारण क्या है? पदार्थोंका हमारेसे अलगाव है। पदार्थ हमारेसे दूर हैं; देशसे दूर हैं, कालसे दूर हैं, व्यक्तिसे दूर हैं; इसलिये उनकी प्राप्ति कर्मोंसे होगी। परन्तु परमात्मा देशसे दूर नहीं हैं, कालसे दूर नहीं हैं, वस्तुसे दूर नहीं हैं, व्यक्तिसे दूर नहीं हैं। जहाँ हम ‘मैं’ कहते हैं, वहाँ भी परमात्मा परिपूर्ण हैं; इसलिये उनकी प्राप्ति इच्छामात्रसे हो जायगी। परमात्माकी तरह रुपये सब जगह मौजूद नहीं हैं। उनको तो पैदा करना पड़ता है। परंतु परमात्माको पैदा नहीं करना पड़ता, उनको कहींसे लाना नहीं पड़ता।

आप कह सकते हो कि बड़ा परिवार है, रोटी-कपड़ेकी भी तंगी है, काम चलता नहीं फिर इच्छा किये बिना कैसे रहें? तो इच्छा करनेसे वस्तुएँ थोड़े ही मिलेंगी। वस्तुएँ तो काम करनेसे मिलेंगी। इसलिये वस्तुओंकी इच्छा न करके काम करनेकी इच्छा करो। निकम्मे, निरर्थक मत रहो। न्याययुक्त काम करो। झूठ, कपट, बेईमानी, ठगी, धोखेबाजी मत करो। अन्त:करणमें रुपयोंको महत्त्व मत दो। यह जो लोभ है, संग्रह करनेकी इच्छा है, इसका त्याग कर दो, तो आपका नया प्रारब्ध बन जायगा अर्थात् जो आपके भाग्यमें लिखा नहीं है, वह आपके पास आ जायगा! परन्तु आपके लोभका त्याग हो जाना चाहिये और इतना दृढ़ निश्चय होना चाहिये कि चाहे मर जायँ पर पाप नहीं करेंगे, अन्याय नहीं करेंगे, झूठ-कपट-जालसाजी नहीं करेंगे। अगर मर भी जायँ तो क्या फर्क पड़ेगा? मरना तो एक बार है ही; फिर पापकी पोटली साथमें लेकर क्यों मरो? पापकी पोटली साथमें लिये बिना मर जाओ तो हर्ज क्या है? अगर पाप किये बिना पैसा न मिलता हो तो भूखे भले ही मर जाओगे, पर नरकोंमें नहीं जाओगे। अगर पाप करके जीओगे तो नरकोंमें जाओगे ही। नरकोंसे बच नहीं सकोगे, ब्रह्माजी भी बचा नहीं सकेंगे। अत: इच्छा कर्तव्यकी करो, निकम्मे मत रहो। इस विषयमें मैं चार बातें कहा करता हूँ—

(१) अपना सब समय अच्छे-से-अच्छे, ऊँचे-से-ऊँचे काममें लगाओ। निकम्मे मत रहो, निरर्थक समय बरबाद मत करो। ताश-चौपड़, खेल-तमाशा, बीड़ी-सिगरेट पीना, सिनेमा-नाटक देखना—ये सब फालतू काम हैं, तमोगुणी काम हैं, जिनसे अधोगतिमें (नीच योनियोंमें और नरकोंमें) जाना पड़ेगा— ‘अधो गच्छन्ति तामसा:’ (गीता १४। १८) ऐसे व्यर्थ कामोंमें समय मत लगाओ। जिससे शरीरका निर्वाह हो, स्वास्थ्य ठीक रहे, दुनियाका हित हो, परमात्माकी प्राप्ति हो, ऐसे काममें लगे रहो।

(२) जिस किसी कामको करो, उसको सुचारुरूपसे करो, जिससे आपके मनमें सन्तोष हो और दूसरे भी कहें कि बहुत अच्छा काम करता है। लिखना हो, पढ़ना हो, मुनीमी करना हो, बिक्री करना हो, खरीदारी करना हो आदि-आदि संसारका जो कुछ काम करना हो, उसको बड़े सुचारुरूपसे, सांगोपांगरूपसे करो। माता-बहनें रसोई बनायें तो अच्छी तरहसे बनायें। सामग्री भले ही कैसी हो, पर चीज बढ़िया बनायें। भोजन ठीक तरहसे परोसें। सबको कैसे संतोष हो, सबको किस तरहसे सुख पहुँचे—ऐसा भाव रखकर सब काम करें।

(३) इस बातका ध्यान रखो कि आपके पास दूसरेका हक न आ जाय। आपका हक दूसरेके पास भले ही चला जाय, पर दूसरेका हक आपके पास बिलकुल न आये।

(४) अपने व्यक्तिगत जीवनके लिये कम-से-कम खर्चा करो। शरीर-निर्वाहके लिये, खाने-पीनेके लिये, ओढ़ने-पहननेके लिये कम खर्चा करो, साधारणरीतिसे काम चलाओ। ऐश-आराम, स्वाद-शौकीनी मत करो। अगर ऐसे काम करोगे तो आपको घाटा नहीं रहेगा, करके देख लो।

आजकल लोग कहते हैं कि क्या करें, निठल्ले बैठे हैं, काम नहीं है। यह बिलकुल फालतू बात है। निठल्ले क्यों बैठे हो? नाम-जप करो, कीर्तन करो, गीता-रामायण आदिका पाठ करो। घरका काम करो—घरमें झाड़ू लगाओ, बरतन धोओ, जूते साफ करो, नालियाँ साफ करो, शौचालय साफ करो। इस तरह कुछ-न-कुछ करते रहो। करना चाहो तो बहुत काम निकल सकता है। काम करनेसे अन्त:करण निर्मल होगा। ताश-चौपड़ खेलने आदि फालतू कामोंके लिये समय ही नहीं मिलना चाहिये। छुट्टीका दिन हो तो यों ही निकम्मे फिरेंगे, फालतू घूमने चले जायँगे, सिनेमा देखेंगे, खेल करेंगे, पानी उछालेंगे, धक्का देंगे—इस तरह फालतू समय बरबाद करेंगे। यह मानव-शरीरका समय ऐसे बरबाद करनेके लिये नहीं है। तेलीके घरमें तेल होता है तो वह लोटा भरके पैर धोनेके लिये थोड़े ही है!

भगवान् ने सबसे श्रेष्ठ मानव-शरीर दिया है। ऐसे मानव-शरीरका समय श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ कामोंमें लगानेके लिये है। उस समयको बरबाद करना बड़ा भारी नुकसान है। रुपया फिर पैदा किया जा सकता है। जवान बेटा मर जाय तो जो छोटे बालक हैं, वे जवान हो सकते हैं। गृहस्थोंके नये पैदा हो सकते हैं। परन्तु उम्र (समय) किसी भी रीतिसे पैदा नहीं होती, वह तो नष्ट-ही-नष्ट होती है। पैसोंका तो आप बहुत खयाल रखते हो, एक-एक पैसा सोच-सोचकर, समझ-समझकर खर्च करते हो; और हवाई जहाजको देखनेमें चार-पाँच मिनट खर्च कर देते हो! क्या फायदा निकला? बताओ? स्वास्थ्य सुधरा कि समाज सुधरा? रुपये मिले कि भगवान् मिले? क्या मिला? आपको समयरूपी जो असली धन मिला हुआ है, उसको बरबाद क्यों करते हो? अगर आप सावधान रहो, समयको बरबाद न करके उसे अच्छे-से-अच्छे, उत्तम-से-उत्तम काममें लगाओ तो लोकमें और परलोकमें—दोनों जगह आपकी उन्नति होगी, इसमें सन्देह नहीं है। आप किसी भी क्षेत्रमें जाओ, आपकी उन्नति होगी। नास्तिक-से-नास्तिक मनुष्य भी अगर सोच-समझकर समयका सदुपयोग करे, तो उसकी धारणाके अनुसार, क्रियाके अनुसार उसकी जरूर उन्नति होगी, उसको जरूर सफलता मिलेगी, फिर समयका सदुपयोग करनेसे आस्तिक मनुष्यको भगवान् की प्राप्ति हो जाय, इसमें तो कहना ही क्या है?

दूसरेका हक मत आने दो। स्त्रीका जो हक है, वह स्त्रीको दे दो। उसका जितना अधिकार है, उसे छीनो मत। उसके प्रति अपना जो कर्तव्य है, उसका पूरा पालन करो। बेटेका जितना हक है, वह उसको दे दो। बेटेके प्रति बापका जो कर्तव्य है, उसका पूरा पालन करो। माता-पिताने आपको पैदा किया है, आपका पालन-पोषण किया है, आपको शिक्षित बनाया है; अत: उनके प्रति अपने कर्तव्यका पूरा पालन करो। आपपर उनका जो अधिकार है, उसकी रक्षा करो। उनका हक उनको दे दो। कपूत मत कहलाओ। ऐसे ही पड़ोसी है, व्यापारी है, जिनसे व्यवहार, व्यापार आदि करते हैं, उनका हक मत आने दो। उनके साथ स्नेहका, ईमानदारीका व्यवहार करो। इस तरह हर जगह सावधान रहो। इतना करनेपर भी पूरा ऋण अदा नहीं होगा; परन्तु नया ऋण नहीं चढ़ेगा।

सावधानी रखनेपर ही आपको पता लगेगा कि हम कहाँ-कहाँ दूसरेका हक मार रहे हैं। अभी तो दूसरेके हकका पता ही नहीं लगता। अभी आपसे पूछा जाय तो आप कहेंगे कि हम तो किसीका हक लेते ही नहीं। हम तो ठीक करते हैं। हम पाप करते ही नहीं। मेरेको ऐसे व्यक्ति भी मिले हैं, जो कहते हैं कि ‘भजन करनेकी क्या जरूरत है, हम पाप तो करते ही नहीं। भगवान् का भजन वह करे, जो पाप करता है।’ उनको होश ही नहीं है, पता ही नहीं है कि पाप क्या होता है, अन्याय क्या होता है। इसलिये हर समय सावधानी रखें कि अभी जो बातें सुनी हैं, इनका अब हम उम्रभर पालन करेंगे। अब कभी गफलत, भूल नहीं करेंगे।

अभी मैंने आपको बताया कि पैसोंका, पदार्थोंका सम्बन्ध इच्छा अथवा चिन्तनके साथ नहीं है, उनका सम्बन्ध कर्मोंके साथ है—इस बातको समझनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है। आप कहें कि ऐसे काम कैसे चलेगा? हम गृहस्थी हैं, कई काम-धन्धे हैं, इसलिये चिन्तन करना ही पड़ता है, तो ‘काम कैसे करें, सेवा कैसे करें’—इस तरहका चिन्तन (विचार) करना दोष नहीं है। मुझे रुपये मिल जायँ, वस्तुएँ मिल जायँ—इस तरहका चिन्तन करना दोष है।

श्रोता—चिन्ता भी हो जाती है महाराजजी!

स्वामीजी—चिन्ता हो जाती है तो चिन्ता छोड़ो और काम करो। चिन्ता करनेसे बुद्धि नष्ट होगी—‘बुद्धि: शोकेन नश्यति’। शान्तिपूर्वक विचार करो तो बुद्धि विकसित होगी। चिन्ता करना और चीज है, विचार करना और चीज है। ‘काम किस रीतिसे करें, किस रीतिसे कुटुम्बका पालन करें, किस तरहसे व्यापार करें; किस तरहसे सबके साथ व्यवहार करें’—ऐसा शान्त-चित्तसे विचार करो। विचार करनेसे बुद्धि विकसित होगी। परन्तु चिन्ता करोगे कि ‘हाय, क्या करें! इतने कुटुम्बका पालन कैसे करें। पैदा है नहीं, क्या करें!’ तो बुद्धि और नष्ट हो जायगी, काम करनेमें भी बाधा लगेगी, फायदा कोई नहीं होगा। इसलिये चिन्ता न करके विचार करो, उद्योग करो, पुरुषार्थ करो, निकम्मे मत रहो। सत्संग करो, पुस्तकें पढ़ो और स्वयं विचार करो अथवा आपसमें विचार-विनिमय करो।

नारायण! नारायण! नारायण!

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