सेवाकी महत्ता
एक परमात्मतत्त्व ही ऐसा है, जिसको जो चाहे, उसको वह मिल जाय। धन, सम्पत्ति, वैभव, मान, आदर, नीरोगता आदिको जो चाहे, उसको ये मिल जायँ—यह नियम नहीं है। ये धन, सम्पत्ति आदि सबको नहीं मिल सकते, मिलेंगे तो थोड़े-बहुत मिलेंगे, एक समान नहीं मिलेंगे। परन्तु परमात्मतत्त्व सबको मिलेगा, एक समान मिलेगा और जो चाहे, उसको मिलेगा; क्योंकि उसका सबके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। जीव परमात्माका साक्षात् अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५। ७) इसलिये उसका परमात्मापर पूरा हक लगता है। जैसे, माँपर सब बालकोंका हक लगता है, सब बालक अपनी माँकी गोदीमें जा सकते हैं। ऐसे ही परमात्मा सबके माता-पिता हैं—‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव।’ वे सदासे ही सबके माता-पिता हैं और सदा ही रहेंगे, इसलिये उनकी प्राप्तिमें कोई भी मनुष्य अयोग्य नहीं है, अनधिकारी नहीं है, निर्बल नहीं है। अत: किसीको भी परमात्मतत्त्वसे हताश होनेकी किंचिन्मात्र भी गुंजाइश नहीं है। कितनी विलक्षण बात है!
मैंने जो पुस्तकोंमें पढ़ा है, सुना है, विचार किया है, उससे मेरे भीतर यह बात दृढ़तासे बैठी हुई है कि किसी वस्तु, अवस्था, परिस्थिति, घटना, क्रिया आदिकी महिमा नहीं है, प्रत्युत उनके सदुपयोगकी महिमा है। हमारी कैसी ही बुद्धि हो, कैसी ही परिस्थिति हो, कैसी ही अवस्था हो, कैसा ही संयोग हो, उसीका ठीक तरहसे सदुपयोग किया जाय तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाय। कारण कि मनुष्यजन्म मिला ही इसके लिये है।
कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही॥
(मानस ७। ४४। ३)
बिना हेतु कृपा करनेवाले प्रभुने कृपा करके मनुष्य-शरीर दिया है; तो क्या भगवान् की कृपा निष्फल होगी? भगवान् की कृपा कभी निष्फल नहीं होती। हाँ, इतनी बात है कि भगवान् ने मनुष्यको स्वतन्त्रता दी है। इस स्वतन्त्रताका वह चाहे जो उपयोग कर सकता है, चाहे इसका सदुपयोग करके परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कर ले, अपना कल्याण कर ले और चाहे इसका दुरुपयोग करके चौरासी लाख योनियोंमें अथवा नरकोंमें चला जाय। वास्तवमें यह स्वतन्त्रता भगवान् ने मनुष्यको अपना कल्याण करनेके लिये दी है। अत: मनुष्य क्या करे? उसके भीतर इस बातकी लगन लग जाय कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कैसे हो? रामायणमें आया है—
एक बानि करुनानिधान की।
सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥
(मानस ३। १०। ४)
भगवान् का एक स्वभाव है, एक बान है कि जिसका एक भगवान् के सिवाय दूसरा कोई सहारा नहीं है, वह भगवान् को बहुत प्यारा लगता है। इसलिये भगवान् ने अर्जुनको पूरी गीता सुनाकर कहा—‘मामेकं शरणं व्रज’ (१८। ६६), तेरेसे और कुछ न हो तो एक मेरी शरणमें आ जा। ‘माम् एकम्’ का अर्थ यह नहीं है कि भगवान् पाँच-सात हैं और उनमेंसे एककी शरण आ जा, प्रत्युत यहाँ इसका अर्थ है—अनन्य शरण। अर्जुनने कहा था कि मैं धर्मका निर्णय नहीं कर सकता—‘धर्मसम्मूढचेता:’ (२। ७), तो भगवान् कहते हैं कि तेरेको धर्मका निर्णय करनेकी जरूरत नहीं है, तू सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर एक मेरी शरणमें आ जा—‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ (१८। ६६)। अत: ‘हे नाथ! मैं आपका हूँ और आप मेरे हो।’ संसारकी कोई वस्तु, कोई प्राणी मेरा नहीं है और मैं किसीका नहीं हूँ—इस प्रकार भगवान् के शरण हो जायँ।
यहाँ एक बात समझनेकी है कि संसारके लोग (माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि) आपसे न्याययुक्त आशा रखते हैं और आप उसको पूरी कर सकते हो, तो उनकी वह आशा आप पूरी कर दो अर्थात् उनकी सेवा कर दो। केवल सेवा करनेके लिये ही मात्र संसारके साथ सम्बन्ध रखो। संसारसे लेनेके लिये सम्बन्ध मत रखो; क्योंकि संसारकी कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है और आप स्थायी हैं। अत: संसारकी कोई भी वस्तु आपके साथ रहनेवाली नहीं है। इसलिये जितने आपके सम्बन्धी या कुटुम्बी कहलाते हैं, वे चाहे शरीरके नाते हों, चाहे देशके नाते हों, चाहे और किसी नाते हों, उनकी सेवा कर दो। कारण कि आपके पास जो वस्तुएँ हैं, वे उनकी हैं, उनके हककी हैं। उनका हक उनको दे दो। उनसे लेनेकी इच्छा रखोगे तो आपपर उनका ऋण हो जायगा। ऋण होनेसे मुक्ति नहीं होगी, कल्याण नहीं होगा। उनकी सेवा करनेसे कल्याण होगा। अत: संसारके साथ सम्बन्ध केवल उसकी सेवाके लिये ही रखना है, अपने लिये नहीं। सेवाके लिये सम्बन्ध रखोगे तो सब राजी हो जायँगे। कुटुम्बी नाराज तभी होते हैं, जब उनसे हम कुछ लेना चाहते हैं। अगर उनपर अपना हक न मानकर केवल उनकी सेवा ही करना चाहेंगे, तो कोई नाराज नहीं होगा। अत: संसारमें रहनेका बढ़िया तरीका भी यही है और मुक्त होनेका तरीका भी यही है। दोनों हाथोंमें लड्डू हैं—‘दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें’ अर्थात् संसार भी राजी हो जाय और परमात्मा भी प्रसन्न हो जायँ, जिससे आपका कल्याण हो जाय!
आपका उद्देश्य केवल परमात्माकी प्राप्ति करना है तो बस, परमात्माके शरण हो जाओ। संसारका आश्रय छोड़ दो। अपनी शक्तिके अनुसार संसारकी सेवा कर दो। सेवा करनेसे संसार राजी हो जायगा और प्रभुके चरणोंकी शरण होनेसे प्रभु प्रसन्न हो जायँगे तथा हमारा कल्याण स्वत: ही हो जायगा। अपने कल्याणके लिये नया उद्योग नहीं करना पड़ेगा। कितनी सरल और सीधी बात है।
लेनेकी इच्छासे मनुष्यका संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है और देनेकी इच्छासे सम्बन्ध टूटता है—यह बड़ी मार्मिक बात है। लेनेकी इच्छासे जोड़ा गया सम्बन्ध बाँधनेवाला होता है और देनेकी इच्छासे जोड़ा गया सम्बन्ध मुक्त करनेवाला होता है। इसलिये सेवा करनेके लिये ही सम्बन्ध जोड़ो, सेवा लेनेके लिये नहीं। जैसे सेवा-समितिवाले मेला-महोत्सवमें सबका प्रबन्ध करते हैं, सबकी सेवा करते हैं। कोई बीमार हो जाय तो उसे कैम्पमें ले जाते हैं और उसका इलाज करते हैं, मर जाय तो दाह-संस्कार कर देते हैं, पर रोता कोई नहीं। जहाँ ‘सेवा करनेमात्रका सम्बन्ध है, वहाँ रोना नहीं होता। जहाँ कुछ-न-कुछ लेनेकी आशासे सम्बन्ध जुड़ा हुआ है, वहीं रोना होता है।’ लेनेकी इच्छा ही गुणोंका संग है, जिससे जन्म-मरण होता है—
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥
(गीता १३। २१)
सेवा करनेका भाव असंगता लानेवाला है। अपने धर्मका, कर्तव्यका पालन करोगे, दूसरोंकी सेवा करोगे तो वैराग्य पैदा होगा—‘धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना’ (मानस ३। १६। १)। जैसे स्वायम्भुव मनुने अपना कोई स्वार्थ न रखकर धर्मसहित प्रजाका पालन किया, उसका हित किया तो उनको वैराग्य हो गया—
होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥
(मानस १। १४२)
वैराग्य होनेपर वे स्त्रीसहित वनको चले गये। उन्होंने प्रजाके हितके लिये राज्य किया, इसीलिये उन्हें वैराग्य हुआ। अगर वे अपने लिये राज्य करते तो उन्हें वैराग्य नहीं होता। जहाँ लेनेकी इच्छा होती है, वहाँ राग पैदा होता है। राग अज्ञानका चिह्न है, अज्ञानकी खास पहचान है—‘रागो लिंगमबोधस्य’। जो रागी होता है, वह अज्ञानी होता है।
सेवा करनेसे सम्बन्ध उसका जुड़ता है, जो कुछ लेना चाहता है और लेना वही चाहता है, जो शरीर और पदार्थोंके साथ ‘मैं’ और ‘मेरा’ का सम्बन्ध रखता है। जिसको सेवक कहलानेकी भी इच्छा नहीं है, प्रत्युत केवल दूसरोंको सुख पहुँचे, आराम पहुँचे, उनका भला हो, उनका कल्याण हो—इसके लिये ही तनसे, मनसे, वचनसे, धनसे, विद्यासे, बुद्धिसे, योग्यतासे, पदसे, अधिकारसे सबको सुख-ही-सुख पहुँचाता है, मनमें सबका हित-ही-हित करनेका भाव रखता है, वह मुक्त हो जाता है। जैसे, पानीमें रहकर पानीको अपनी ओर लोगे तो डूब जाओगे; और हाथोंसे लातोंसे मारते रहोगे तो तर जाओगे। इसी तरह इस संसार-समुद्रमें जो लेना चाहता है, वह डूब जाता है; जो देना-ही-देना चाहता है, वह कभी नहीं डूबता।
भगवान् और उनके भक्त (सन्त-महात्मा) बिना कारण सबकी सेवा करनेवाले हैं—
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
(मानस ७। ४७। ३)
इसलिये वे बँधते नहीं। वे बँधे क्यों; उनके तो दर्शनसे ही मुक्ति हो जाती है! कारण कि उनमें स्वार्थ है ही नहीं, किसीसे कुछ लेना है ही नहीं, प्रत्युपकारकी इच्छा है ही नहीं। इसलिये सेवा करनेसे बन्धन नहीं होता।
श्रोता—भरत मुनिने दया करके हरिणके बच्चेका पालन किया, पर अगले जन्ममें वे हरिण बन गये, ऐसा क्यों?
स्वामीजी—पहले भरत मुनिका उद्देश्य तो सेवा करनेका ही था, पर बादमें उनका हरिणके बच्चेपर मोह हो गया। हरिणके बच्चेपर उनका इतना अधिक मोह हो गया कि कभी वह दिखायी नहीं देता तो वे उसके वियोगमें ऐसे व्याकुल हो जाते, जैसे कोई पुत्रके वियोगसे व्याकुल होता है। वह ऐसे खेलता था, ऐसे गोदीमें आता था, ऐसे बोलता था, ऐसे शरीर खुजलाता था, ऐसे फुदकता था—इस तरह वे उसका चिन्तन करने लगते थे। इसी मोहके कारण उनको अगले जन्ममें हरिण बनना पड़ा, दयाके कारण नहीं। उनको मोह दयासे नहीं हुआ, प्रत्युत भूलसे हुआ। वास्तवमें मोह तो पहलेसे ही था, वही मोह दयाका रूप धारण करके आ गया। मोहके कारण ही बन्धन होता है। दया-परवश होकर सेवा करनेसे बन्धन नहीं होता।
अस्सी-नब्बे, सौ वर्षका कोई आदमी मर जाय तो उसके लिये दु:ख नहीं होता; परंतु पचीस वर्षका कोई जवान आदमी मर जाय तो दु:ख होता है। जरा सोचो कारण क्या है। बड़े-बूढ़े तो विशेष बुद्धिमान् और अनुभवी होते हैं, उनका अध्ययन बहुत होता है, इसलिये उनसे ज्यादा लाभ लिया जा सकता है; फिर भी उनके मरनेका दु:ख इसलिये नहीं होता कि अब उनसे कुछ लेनेकी इच्छा नहीं रही। भीतर यह भाव रहता है कि अब उनसे मिलेगा कुछ नहीं, इसलिये वह मर जाय तो कोई हर्ज नहीं। मैंने खुद लोगोंके मुखसे यह सुना है कि बूढ़ेका मरना तो ब्याहकी तरह है। ऐसे ही कोई बीस वर्षका आदमी है और पाँच वर्षतक वह बीमार-ही-बीमार रहा; सब वैद्योंने, डॉक्टरोंने जवाब दे दिया कि अब यह जीनेवाला नहीं है और पचीस वर्षकी उम्रमें वह मर गया, तो उसके मरनेका भी दु:ख नहीं होता। कारण कि दु:ख तभी होता है, जब उससे कुछ-न-कुछ मतलब रहता है, सेवाकी आशा रहती है। यह आशा ही बाँधनेवाली है। जो आशा नहीं रखता, वह बँधता नहीं, उसको कोई बाँध सकता ही नहीं।
कोई सम्बन्धी मर जाय तो उसके पीछे श्राद्ध करते हैं, दान, पुण्य करते हैं। इसका अर्थ यह है कि जो उससे लिये था, वह कर्जा उतर जाय। उससे जितना सुख लिया है, उतनी ही उसकी याद आती है, उतना ही हमें उसके वियोगका दु:ख होता है। छोटे बच्चेको गोदीमें खिला करके जो सुख लिया है, उसका भी नतीजा दु:ख ही होगा।
सांसारिक सुखका नतीजा दु:ख ही है। सांसारिक सुख दु:खोंकी जड़ है। उस सुखको लोगे तो बन्धन होगा ही। अगर वह सुख नहीं लोगे, प्रत्युत सुख दोगे तो किसीकी ताकत नहीं कि आपको बाँध दे। जहाँ कुछ-न-कुछ स्वार्थ है, मनमें सुख, आराम, मान, बड़ाई आदि लेनेकी इच्छा है, वहींपर बन्धन है। मेरेको व्याख्यान देते हुए वर्ष बीत गये, पर बन्धनकी जड़ कहाँ है—इसका पता जल्दी नहीं लगा। पीछे इसका पता लगा कि मनमें कुछ-न-कुछ लेनेकी इच्छा ही बन्धनकी जड़ है। ऐसी दुर्लभ बात है यह! अगर संसारकी किसी चीजको देखकर राजी होते हैं तो यह भी सुखका भोग है, जो बाँधनेवाला है। अनुकूलताकी इच्छा करेंगे तो दु:ख आयेगा ही। इसलिये हरदम सावधान रहो कि किसीसे सुख नहीं लेना है, आराम नहीं लेना है, मान नहीं लेना है, बड़ाई नहीं लेनी है। हमें किसीसे कुछ लेना है ही नहीं। जहाँ लेना हुआ कि फँसे! केवल देना-ही-देना है। सेवा-ही-सेवा करनी है। सेवा करनेसे पुराना ऋण उतर जायगा और लेनेकी इच्छा न रखनेसे नया ऋण नहीं चढ़ेगा, तो हम मुक्त हो जायँगे।
नारायण! नारायण! नारायण!