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शरीरसे अलगावका अनुभव

भगवान् ने मनुष्यको कल्याणकी सामग्री कम नहीं दी है, प्रत्युत बहुत ज्यादा दी है। उम्र भी बहुत ज्यादा दी है। कल्याण मिनटोंमें हो सकता है, पर उसके लिये वर्षोंकी उम्र दी है। थोड़े-से विचारसे कल्याण हो सकता है, पर विचार करनेकी शक्ति बहुत दी है। सब सामग्री इतनी ज्यादा दी है कि मनुष्य अपना कल्याण कई बार कर ले! जबकि वास्तवमें एक बार कल्याण करनेके बाद दूसरी बार कल्याण करनेकी जरूरत ही नहीं रहती। बहुत विचित्र सामग्री भगवान् ने मनुष्यको दी है। जैसे, एक बातपर आप विचार करें—आपको इस बातका बिलकुल पक्का ज्ञान है कि बचपनसे लेकर आजतक देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना सब बदल गये, पर मैं वही हूँ। बदलनेवालेको छोड़ दे और जो नहीं बदला है, उसको पकड़ ले तो अभी इसी क्षण बेड़ा पार है! जो बदलता है, वह मेरा स्वरूप नहीं है और जो नहीं बदलता वह मेरा स्वरूप है। बस, इतना ही काम है।

अनेक परिस्थितियोंमें, अनेक घटनाओंमें आप एक रहते हैं। अनेक देशोंमें घूम-फिरकर भी आप एक रहते हैं। बहुत समय बीतनेपर भी आप वही रहते हैं। सब कुछ बदलनेपर भी आप वही रहते हैं। जो वही रहता है, कभी बदलता नहीं, उसको आप बदलनेवालोंसे अलग करके देखें तो बस, तत्त्वज्ञान हो गया; और उन दोनोंको मिलाकर देखें तो अज्ञान हो गया।

साधन करनेवाले भाई-बहनोंके मनमें एक बात जँची हुई है कि मन निर्विकार हो जाय, किसी घटनाका असर न पड़े तो तत्त्वज्ञान हो गया; और असर पड़ता है तो तत्त्वज्ञान नहीं हुआ। इस बातको आप ठीक तरहसे समझें कि असर किसपर पड़ता है? असर मनपर पड़ता है, बुद्धिपर पड़ता है, शरीरपर पड़ता है, इन्द्रियोंपर पड़ता है; पर आप तो वही रहते हैं अर्थात् आपपर असर नहीं पड़ता। रुपये आये, नफा हुआ तो आपका मन प्रसन्न हो गया; और रुपये चले गये, घाटा लग गया तो आपका मन दु:खी हो गया। नफा-नुकसान होनेसे मनपर दो तरहका असर हुआ, पर आप तो वही रहे। नफा हुआ तो आप दूसरे थे और नुकसान हुआ तो आप दूसरे थे—ऐसा होता है क्या? अगर आप एक नहीं रहते तो नफा और नुकसान—दोनोंका ज्ञान किसको होता? आप तो सम ही रहते हैं, एक ही रहते हैं। आपपर असर पड़ता ही नहीं है। असर पड़ता है मन-बुद्धिपर।

तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष भी बचपनसे जवान और बूढ़ा हो जाय तो उसको दिखना कम हो जायगा, सुनना कम हो जायगा, चलना-फिरना कम हो जायगा, पर उसके ज्ञानमें क्या फर्क पड़ा? शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि—ये सब तो बदलनेवाले ही हैं। इनमेंसे कोई बदल गया, किसीपर असर पड़ गया तो क्या हो गया? आप उसके साथ मिलकर अपनेको (स्वरूपको) सुखी-दु:खी मान लेते हो—यह गलती होती है। आप इस बातपर दृढ़ रहो कि मैं तो वही हूँ। सुखके समयमें जो था, वही दु:खके समयमें हूँ और दु:खके समयमें जो था, वही सुखके समयमें हूँ। इस प्रकार आने-जानेवालेके साथ न मिलकर अपने-आपमें स्थित रहना ही ‘स्वस्थ’ होना है— ‘समदु:खसुख: स्वस्थ:’ (गीता १४। २४)। आने-जानेवालेके साथ मिलकर सुखी-दु:खी होना ‘प्रकृतिस्थ’ होना है—‘पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्‍क्ते (गीता १३। २१)। प्रकृतिमें स्थित आप हो नहीं पर जान-बूझकर उसमें स्थित हो जाते हो। आप न सुखमें हो, न दु:खमें; न लाभमें हो, न हानिमें; न किसीके जन्ममें हो, न किसीके मरणमें; आप इन सबसे अलग हो। आप जान-बूझकर इनको खींच करके ले लेते हो और सुखी-दु:खी हो जाते हो; फिर कहते हो कि बोध नहीं होता! आप इसी बातमें स्थित रहो कि मैं तो वही हूँ। नफा हुआ तो मैं वही हूँ, नुकसान हुआ तो मैं वही हूँ। आप ‘स्व’ में (अपने-आपमें) स्थित हो जाओ, बस। ‘स्व’ सदा ही निर्विकार है। ‘स्व’ में कभी विकार होता ही नहीं। विकार अन्त:करणमें होता है और उसके साथ मिलकर आप भी अपनेमें विकार मान लेते हो और सुखी-दु:खी होते हो।

आपके मनमें अच्छी आ जाय, मंदी आ जाय, शोक हो जाय, चिन्ता हो जाय, हर्ष हो जाय, राग हो जाय, द्वेष हो जाय—ये सब होनेपर भी आप अपनेमें स्थित रहो, उनसे मिलो मत। उनके साथ मिलते हो—यह प्रकृतिस्थ होना है। प्रकृतिस्थ होनेसे फिर पाप भी लगेगा, दु:ख भी होगा, चौरासी लाख योनियाँ भी होंगी, नरक भी होंगे, जन्म-मरण भी होगा—‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३। २१)। अत: जो बनते हैं, बिगड़ते हैं; आते हैं, जाते हैं, उनको देखकर भी आप अपनेमें स्थित रहो; क्योंकि आप उनको देखनेवाले (उनसे अलग) हो। सुखदायी परिस्थितिको भी आप देखते हो और दु:खदायी परिस्थितिको भी आप देखते हो। संयोगको भी आप देखते हो और वियोगको भी आप देखते हो। देखनेवाला दीखनेवाली वस्तुओंसे अलग होता है—यह नियम है। अत: देखनेवाले आपमें क्या फर्क पड़ा? देखनेवाले आप तो वही रहे।

हम गंगाजीके किनारे खड़े हैं। बहुत-से सिलपट (लकड़ीके टुकड़े) बहते हुए आ गये और हमारे पाससे होकर निकले तो हम खिलखिलाकर हँस पड़े कि आज तो आनन्द हो गया! दूसरे दिन हम वहीं खड़े रहे, पर एक भी सिलपट हमारे पाससे होकर नहीं निकला, सब उधरसे बहते हुए निकल गये तो हम जोर-जोरसे रोने लगे। कोई पूछे कि भाई, रोते क्यों हो? तो हम बोले कि आज एक भी सिलपट हमारे पाससे नहीं निकला। आप विचार करें, सिलपट हमारे पाससे निकले अथवा दूरसे बह जाय, उससे हमारेपर क्या फर्क पड़ा? हम सिलपटको छूते ही नहीं। सिलपट हमारे पास रहता ही नहीं, वह तो बहता है और हम एक जगह खड़े हैं। परंतु वह पाससे होकर बह गया तो राजी हो गये और दूरसे होकर बह गया तो रोने लगे—यह मूर्खता ही तो हुई! ऐसे ही आपके यहाँ बेटा हुआ तो आप राजी हो गये और बेटा मर गया तो रोने लग गये। किसी दूसरे आदमीके यहाँ भी लड़का हुआ और मर गया, पर तब आप रोते नहीं। उसके यहाँ धन आया और चला गया, पर आप नहीं रोते। आपके यहाँ धन आकर चला जाय तो आप रोते हो। आपके पास पहले था नहीं, बीचमें हो गया, फिर चला गया तो आप जैसे पहले थे, वैसे ही रहे, फिर रोना किस बातका? आप अपनेमें स्थित रहोगे तो रोओगे नहीं। परंतु आने-जानेवाली वस्तुओंके साथ चिपकोगे तो रोओगे मुफ्तमें।

संसारका दु:ख आपने मुफ्तमें पकड़कर लिया हुआ है। वास्तवमें दु:ख है नहीं। भगवान् ने दु:ख पैदा किया ही नहीं। आप ही दु:ख पैदा कर लेते हो। आपको क्या शौक लगा है, पता नहीं! आप बदलनेवालेके साथ मिलो मत। मिलोगे तो दु:खी होना पड़ेगा। मैं बदलनेवालेसे अलग हूँ—ऐसा देखते रहो। उनसे अलगावका साफ अनुभव होते ही सब दु:ख, विकार मिट जायँगे।

श्रोता—हम तो उनसे मिले हुए ही हैं, अलग कैसे हों?

स्वामीजी—मिले हुए आप हो ही नहीं, अगर मिले हुए होते तो आप अभीतक बच्चे ही रहते, बूढ़े होते ही नहीं। परन्तु आप कहते हो कि मैं जो बालकपनमें था, वही मैं आज हूँ, जबकि बालकपन आपके साथ नहीं रहा और आप बालकपनके साथ नहीं रहे। फिर आप मिले हुए कहाँ हो? शरीर आदि बदलनेवाले हैं और आप न बदलनेवाले हैं। आपने भूलसे अपनेको उनसे मिला हुआ मान लिया। बस, इसको आप मत मानो। हम उनसे मिले हुए हैं—ऐसा दीखनेपर भी इसको आदर मत दो, प्रत्युत अपने अनुभवको आदर दो कि मैं उनसे अलग हूँ। कैसे अलग हूँ कि बचपनसे लेकर अबतक शरीर बदल गया, पर मैं वही हूँ। यह बिलकुल प्रत्यक्ष अनुभवकी बात है। आप शरीर आदिसे अलग हैं तभी तो बचपन बीत गया और आप रह गये। ऐसे ही यह जवानी और वृद्धावस्था भी बीत जायगी, पर आप रहोगे। जैसे बचपनके समय आप उससे अलग थे, ऐसे ही आज जवानीमें और वृद्धावस्थामें भी आप अलग हो। अगर फिर भी इसका ठीक अनुभव न हो, तो व्याकुल होकर भगवान् से कहो कि ‘महाराज! हमारेको इसका अनुभव नहीं हो रहा है। इतनी बात पक्की जान लो कि हम हैं तो अलग ही, चाहे अनुभव हो या न हो। अगर अलग न होते तो मरनेपर शरीर यहाँ नहीं रहता, साथमें जाता अथवा शरीरके साथ आप भी यहाँ रहते। परन्तु न आप शरीरके साथ रहते हो और न आपके साथ शरीर जाता है, फिर दोनों एक कैसे हुए? मकानमें मैं रहता हूँ तो मकान मैं कैसे हो गया? मैं मकानमें आता हूँ और मकानसे चला जाता हूँ, तो मकान और मैं अलग-अलग हुए। ऐसे ही शरीर भी एक मकान है और आप उसमें रहनेवाले हो। आप उसमें रहते हो और निकल भी जाते हो। उसके साथ आप एक नहीं हो।

मैं शरीरसे अलग हूँ—ऐसा अनुभव न हो तो भी इसको जबर्दस्ती मान लो। जैसे बीमारीसे छूटनेके लिये आप कड़वी-से-कड़वी दवा, चिरायते आदिका काढ़ा भी आँखें मीचकर पी लेते हो, ऐसे ही स्वस्थ होनेके लिये आप ‘मैं अलग हूँ’—ऐसा मान लो। फिर भी ठीक अलग न दीखे तो व्याकुल हो जाओ कि अलग अनुभव जल्दी कैसे हो! व्याकुलता जोरदार हो जायगी तो चट अनुभव हो जायगा। परन्तु भोगोंमें रस लेते रहोगे, सुख लेते रहोगे तो चाहे कितना ही पढ़ जाओ, पण्डित बन जाओ, चारों वेद पढ़ जाओ, पर शरीरसे अलगावका अनुभव कभी नहीं होगा।

नारायण! नारायण! नारायण!

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