परमात्मप्राप्तिमें भोग और संग्रहकी इच्छा ही महान् बाधक
भोग और संग्रह—इन दो चीजोंमें जबतक मनुष्यकी आसक्ति रहती है, तबतक ‘मुझे परमात्माकी प्राप्ति करनी है’—ऐसा निश्चय भी नहीं होता, फिर परमात्माको प्राप्त करना तो दूर रहा—
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते॥
(गीता २।४४)
जबतक भोग और संग्रहमें आसक्ति है अर्थात् सांसारिक पदार्थोंसे सुख लेते रहे और रुपयोंका संग्रह बना रहे—यह भावना भीतर बनी हुई है तबतक यत्न करते हुए भी परमात्मतत्त्वको नहीं जान सकते—‘यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतस:’ (गीता १५।११)। कारण कि हृदयमें परमात्माकी जगह भोग और रुपये आकर बैठ गये ।
संसारका सुख भोगना है और सुख-भोगके लिये संग्रहकी आवश्यकता है—यह भोग और संग्रहकी रुचि बहुत घातक है। धनका उपयोग तो खर्च करनेमें है, चाहे अपने लिये खर्च करें, चाहे दूसरोंके लिये। परन्तु धनका संग्रह किसी कामका नहीं है। पदार्थों और रुपयोंके संग्रहकी बात तो दूर रही, ‘बहुत पढ़ाई कर लूँ, बहुत शास्त्र पढ़ लूँ’—यह (अनेक विद्याओंके संग्रहकी) भावना भी जबतक रहेगी, तबतक परमात्मतत्त्वको नहीं जान सकते, जाननेके लिये निश्चय भी नहीं कर सकते। जो अपना कल्याण चाहता है, उसकी बुद्धि एक ही होती है— ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेका’ (गीता२।४१)। मुझे केवल परमात्मतत्त्वको ही प्राप्त करना है—यह निश्चय होना ही बुद्धिका एक होना है। परन्तु जो भोग और संग्रहमें आसक्त हैं, उनकी बुद्धियाँ अनन्त होती हैं और एक-एक बुद्धिकी शाखाएँ भी अनन्त होती हैं—‘बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्’ (गीता२।४१)। जैसे, पुत्र मिले—यह एक बुद्धि हुई और पुत्र कैसे मिले, किसी दवाईका सेवन करें या किसी मन्त्रका अनुष्ठान करें अथवा किसी संतका आशीर्वाद लें आदि-आदि उस बुद्धिकी कई शाखाएँ हुईं। इसी तरह धन मिल जाय—यह एक बुद्धि हुई और धन कैसे मिले, व्यापार करें या नौकरी करें, चोरी करें या डाका डालें, ठगाई करें या किसीको धोखा दें आदि-आदि उस बुद्धिकी कई शाखाएँ हुईं। ऐसे ही आदरकी इच्छा होगी तो आदर कैसे हो सकता है, व्याख्यान देनेसे होगा या सांसारिक सेवा करनेसे होगा आदि तरह-तरहकी शाखाएँ पैदा होंगी। यह आपको थोड़ा-सा नमूना बताया है। इस तरह भोग और संग्रहमें आसक्त मनुष्य परमात्मप्राप्तिका निश्चय भी नहीं कर सकते। कभी सत्संग करनेसे उनके मनमें परमात्मप्राप्तिकी इच्छा हो भी जाय, तो भी वे उसपर टिक नहीं सकेंगे।
गीतामें भगवान् ने परमात्मप्राप्तिके एक निश्चयकी बड़ी विलक्षण महिमा गायी है। ‘अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्’ (गीता ९। ३०)—जो सांगोपांग दुराचारी है, जिसके दुराचरणमें कोई कमी नहीं है, झूठ, कपट, बेईमानी, अभक्ष्य-भक्षण, वेश्या-गमन, जुआ, चोरी, व्यभिचार आदि जितने पाप-दुराचार कहे जाते हैं, उन सबको करनेवाला है, ऐसा मनुष्य भी यदि केवल भगवान् का ही भजन करनेका एक निश्चय कर ले, तो भगवान् कहते हैं कि उसको साधु ही मानना चाहिये—‘साधुरेव स मन्तव्य:’। उसको साधु ही माननेकी भगवान् आज्ञा देते हैं! कारण क्या है कि उसने परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय कर लिया है—‘सम्यग्व्यवसितो हि स:’। उसका एक लक्ष्य बन गया है कि अब चाहे कुछ भी हो जाय, एक भगवान् की तरफ ही चलना है।
यहाँ एक शंका पैदा होती है कि जो भोग और संग्रहमें आसक्त हैं, उनका तो परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय नहीं हो सकता; और पापी-से-पापी भी ऐसा निश्चय कर सकता है—इन दोनों बातोंमें परस्पर विरोध प्रतीत होता है। वास्तवमें विरोध नहीं है; क्योंकि पापीके लिये भगवान् ने ‘अपि चेत्’ पद दिये हैं। तात्पर्य है कि यद्यपि पापी मनुष्य भगवान् का भजन नहीं करते—‘पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥ (मानस ५।४४। २), ‘न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:’ (गीता ७। १५), तथापि अगर वे भगवान् के भजनमें लगना चाहें तो लग सकते हैं। भगवान् की तरफसे किसीको कोई मना नहीं है। इसलिये अगर पापी मनुष्य भी भगवान् के भजनमें लगनेका पक्का निश्चय कर ले तो उसको साधु मान लेना चाहिये। कारण कि वास्तवमें भगवान् का अंश होनेसे जीव शुद्ध, निर्दोष ही है। संसारकी आसक्तिके कारण उसमें दोष आ जाते हैं। अगर वह संसारकी आसक्तिको मिटा दे तो उसका शुद्ध स्वरूप रह जायगा। आजकल पारमार्थिक बातें कहने-सुननेपर भी भगवान् की तरफ चलनेका निश्चय नहीं होता—इसका कारण यह है कि हृदयमें रुपयोंका महत्त्व बैठा हुआ है। वास्तवमें रुपये उतना नहीं अटकाते, जितना भोगोंका महत्त्व अटकाता है। भोग उतना नहीं अटकाते, जितना भोगोंका महत्त्व अटकाता है। जबतक हृदयमें पदार्थोंका, मान-बड़ाईका, आदर-सत्कारका, नीरोगताका, शरीरके आरामका महत्त्व बैठा हुआ है, तबतक मनुष्य परमात्मप्राप्तिका निश्चय नहीं कर सकता। चाहे वह कितनी ही बातें बना ले, कितना ही बड़ा पण्डित बन जाय, बाहरसे कैसा ही विरक्त और त्यागी बन जाय, पर मनमें जबतक मान-बड़ाईकी, सुख-आरामकी, कीर्तिकी इच्छा है, तबतक वह पारमार्थिक मार्गमें आगे नहीं बढ़ सकता। कारण कि जहाँ परमात्माकी रुचि होनी चाहिये वहाँ भोग और संग्रहकी रुचि हो गयी। भोग और संग्रहके द्वारा उनका चित्त अपहृत हो गया—‘अपहृतचेतसाम्’ (गीता२।४४)। उनके चित्तका हरण हो गया! बड़ी भारी चोरी हो गयी उन बेचारोंकी! उनके पासमें जो शक्ति थी, वह भोग और संग्रहमें लग गयी। परन्तु उनको मिलेगा कुछ नहीं। एक कौड़ी भी नहीं मिलेगी। केवल धोखा होगा, धोखा! परमात्माकी प्राप्तिसे रीते रह जायँगे! मान-बड़ाई कितने दिन होगी और होकर भी क्या निहाल करेगी? भोग कितने दिन भोगेंगे? संग्रह कितने दिन रहेगा? यहाँ इकट्ठा किया हुआ धन यहीं रह जायगा और उम्र खत्म हो जायगी!
अगर परमात्माकी प्राप्ति चाहते हो तो भोग और संग्रहको महत्त्व मत दो। आजकल तो रुपयोंकी अपेक्षा उनकी संख्याको अधिक महत्त्व दे रहे हैं कि हम लखपति हो जायँ, करोड़पति हो जायँ, हमारे पास इतना संग्रह हो जाय। पासमें जो रुपये हैं, उनको खर्च नहीं कर सकते कि संख्या कम न हो जाय। अपने लड़कोंको यह शिक्षा देते हैं कि जितना कमाओ, उसीमेंसे खर्च करो, मूलधनको मत छेड़ो। मूलधनको ज्यों-का-त्यों रहने दो, उसको खर्च मत करो। कोई पूँजीमेंसे खर्च करे तो कहेंगे कि ‘तुम्हारेमें अक्ल नहीं है, मूल पूँजी खर्च करते हो!’ मूलधन आपके क्या काम आयेगा? उसमें क्या तूली (आग) लगाओगे? पर उसको खर्च नहीं करेंगे। जो नरकोंमें ले जानेवाली चीज है, वह खर्च कैसे की जाय! उसको खर्च कर देंगे तो दुर्गति कौन करेगा! अब ऐसे आदमी परमात्माकी प्राप्ति कैसे कर सकते हैं?
साधु हो, चाहे गृहस्थ हो, पढ़ा-लिखा हो, चाहे मूर्ख हो; भाई हो, चाहे बहन हो, जबतक संग्रह करनेकी और ‘संग्रह बना रहे’ इसकी रुचि रहेगी, तबतक वह पारमार्थिक मार्गपर नहीं चल सकता। अगर आपके भीतर संग्रहकी रुचि नहीं है, तो आपके पास चाहे लाखों-करोड़ों रुपये हों, पर वे आपको अटका नहीं सकते। बैंकोंमें बहुत रुपये पड़े हैं, पर वे हमारेको अटकाते नहीं। मकान बहुत हैं, पर वे हमारेको अटकाते नहीं। क्यों नहीं अटकाते कि उनमें हमारी ममता नहीं है, उनकी प्राप्तिकी इच्छा नहीं है। अगर हमारी इच्छा हो जायगी तो हम फँस जायँगे।
जिन थोड़े-से आदमियोंको हमने अपना मान रखा है, जिस मकानको हमने अपना मान रखा है, उसीसे हम बँधे हुए हैं। जिन मनुष्योंको हमने अपना नहीं माना है, वे मर भी जायँ तो हमारेपर असर नहीं पड़ेगा। जिन रुपयोंको हमने अपना नहीं माना है, वे चाहे कहीं चले जायँ, नष्ट भी हो जायँ तो हमारेपर असर नहीं पड़ेगा। जिन मकानोंको हमने अपना नहीं माना है, वे सब धराशायी भी हो जायँ तो हमारेपर असर नहीं पड़ेगा। अत: ज्यादा संसारसे तो हम मुक्त ही हैं, थोड़े-से आदमियों, थोड़े-से रुपयों, थोड़े-से मकानोंमें हम फँसे हुए हैं। अगर इन थोड़े-से आदमियों आदिकी ममताका त्याग कर दें तो निहाल हो जायँ! हमारी ज्यादा मुक्ति तो हो चुकी है, थोड़ी-सी मुक्ति बाकी है। बन्धन ज्यादा नहीं है। ज्यादा बन्धन तो छूटा हुआ है। जिनमें आपकी ममता नहीं है, उनसे आप बन्धनरहित हो और जिनमें आप ममता कर लेते हो, उनमें आप बँध जाते हो। परन्तु आपकी चाल यही है कि ज्यादा व्यक्तियोंमें, पदार्थोंमें ममता हो जाय। वक्ता चाहता है कि और कुछ नहीं तो श्रोता ही ज्यादा आ जायँ। ऐसी इच्छा नहीं रखेंगे तो फँसेंगे कैसे! इसलिये अधिक भोग मिल जाय, अधिक संग्रह हो जाय—इस तरह इच्छा करते रहते हैं। इच्छा करनेसे पदार्थ मिलेगा नहीं। अगर मिल भी जाय तो टिकेगा नहीं और टिक भी जाय तो आप नहीं टिकोगे। परन्तु बन्धन तो हो ही जायगा। मरनेके बाद भी छूट सकोगे नहीं। अब नफा-नुकसान आप सोच लो।
मैं-मैं बुरी बलाय है, सको तो निकसो भाग।
कबतक निबहे रामजी, रुई लपेटी आग॥
रुईमें लपेटी आग कितनी देर ठहरेगी? जिन पदार्थोंमें आप मैं-मेरापन करते हो वे कितने दिन ठहरेंगे? वे तो ठहरेंगे नहीं, पर आपका पतन कर देंगे—इसमें संदेह नहीं। इसलिये हरेक भाई-बहनके लिये बहुत आवश्यक है कि वह संसारके भोग और संग्रहकी इच्छाको भीतरसे त्याग दें।
भीतरसे पदार्थोंकी इच्छाका त्याग करनेपर पदार्थ प्रारब्धके अनुसार अपने-आप आते हैं। इच्छा रखनेपर रुपये-पैसे, भोग-आराम मेहनतसे, बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होते हैं। इच्छा करनेसे उनकी प्राप्तिमें बाधा लगती है और परमार्थमें बाधा तो लगती ही है। इच्छा रहनेपर तो रुपयोंके मिलनेसे हम अपनी सफलता मानते हैं, पर यदि इच्छा न रहे तो रुपये हमारे पास आकर सफल होंगे, हमारेमें रुपयोंकी गुलामी नहीं रहेगी।
आप परमात्मतत्त्वमें अपनी नित्य-निरन्तर स्थितिका अनुभव करना चाहते हो तो उत्पत्ति-विनाशवाले वस्तुओंका आकर्षण मिटाओ। नाशवान् वस्तुओंका आकर्षण मिटते ही अविनाशीकी तरफ स्वत: आकर्षण हो जायगा और उसकी प्राप्ति हो जायगी। अगर उत्पन्न और नष्ट होनेवालोंमें फँसे रहोगे तो सदा साथमें रहता हुआ भी अनुत्पन्न तत्त्व नहीं मिलेगा। उससे वंचित रह जाओगे और कुछ नहीं होगा। न धन मिलेगा, न धन रहेगा; न भोग मिलेंगे, न भोग रहेंगे और न आप रहोगे। केवल बन्धन-ही-बन्धन रहेगा।
मैं रुपयोंका विरोध नहीं करता, उनकी गुलामीका विरोध करता हूँ। न्याययुक्त कमाते हुए लाखों-करोड़ों रुपये आ जायँ तो प्रसन्नता रहे, और लाखों-करोड़ों रुपये चले जायँ तो भी वही प्रसन्नता रहे। तब तो आप ‘धनपति’ (धनके मालिक) हैं। परन्तु रुपये आ जायँ तो प्रसन्न हो जाओ और रुपये चले जायँ तो रोने लग जाओ, तब आप ‘धनदास’ (धनके गुलाम) हो; धनपति नहीं हो, नहीं हो, नहीं हो। रुपयोंके जानेसे रोने लग जाते हो कि हमारा मालिक (रुपया) चला गया, अब उसके बिना कैसे रहा जाय! अरे, रुपये चले गये तो क्या हुआ, जिसने रुपये कमाये थे वह तो मौजूद ही है। परन्तु यह बात अक्लमें नहीं आती; क्योंकि धनको आपने अपना इष्टदेव मान रखा है। जिसने धनको अपना इष्टदेव बनाया हुआ है, उसको धनकी प्राप्तिके लिये झूठ, कपट, बेईमानी, धोखेबाजी आदिको अपना इष्ट बनाना पड़ता है; क्योंकि उसका यह भाव रहता है कि इनके बिना पैसा पैदा नहीं होता। अत: हे झूठ देवता! हे कपट देवता! हे ब्लैक देवता! आप निहाल करें—ऐसी उसकी भक्ति होती है। जैसे भगवान् का भक्त भगवान् को याद करता है, उनका आश्रय लेता है, ऐसे ही धनका भक्त झूठ, कपट, ठगी आदिका आश्रय लेता है, उसको कोई समझाये तो वह कहेगा कि आजके जमानेमें झूठ, कपटके बिना काम नहीं चलता। अब ऐसे आदमीको ब्रह्माजी भी समझा नहीं सकेंगे! इसलिये अगर परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति चाहते हो तो भोग और संग्रहकी इच्छाका त्याग करना ही पड़ेगा, नहीं तो परमात्मप्राप्ति दूर रही, परमात्मप्राप्तिका निश्चय भी नहीं कर सकोगे।
नारायण! नारायण! नारायण!