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परमात्मा तत्काल कैसे मिलें?

श्रोता—जल्दी-से-जल्दी उद्धार कैसे हो?

स्वामीजी—हमारा उद्धार हो जाय—यह एक ही लालसा हो जाय तो तत्काल उद्धार हो जायगा। एक बात आप ध्यान दे करके सुनें। संसारका काम जैसे उद्योग करनेसे होता है, ऐसे ही हम समझते हैं कि परमात्माकी प्राप्ति भी उद्योग करनेसे होगी। वास्तवमें यह बात नहीं है, नहीं है, नहीं है! परमात्मा सब देशमें हैं, सब कालमें हैं, सम्पूर्ण वस्तुओंमें हैं, सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें हैं, सम्पूर्ण घटनाओंमें हैं, सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें हैं; अत: उनकी प्राप्तिके लिये केवल भीतरकी लालसा होनी चाहिये। कारण कि परमात्माका निर्माण करना नहीं है, उनको बदलना नहीं है, उनको कहींसे लाना नहीं है। वे तो सब जगह और सबमें ज्यों-के-त्यों परिपूर्ण हैं। जहाँ आप कहते हैं कि ‘मैं हूँ’ वहाँ भी परमात्मा पूरे-के-पूरे विद्यमान हैं। अत: केवल लालसा होनेसे उनकी प्राप्ति हो जाती है।

संसारकी कोई वस्तु केवल लालसासे नहीं मिलती। लालसा होगी, उद्योग करेंगे और भाग्यमें होगा, तभी वस्तु मिलेगी। जैसे, रुपये चाहिये तो रुपयोंकी लालसा हो, रुपयोंके लिये प्रयत्न किया जाय और प्रारब्धमें हो तो रुपये मिलेंगे, अगर प्रारब्धमें न हो तो इच्छा करनेपर और खूब चेष्टा करनेपर भी रुपये नहीं मिलेंगे। परन्तु परमात्माकी प्राप्ति केवल इच्छासे ही हो जायगी। परमात्मप्राप्तिकी इच्छा होनेपर उद्योग अपने-आप होगा, परन्तु परमात्मप्राप्ति उद्योगके अधीन नहीं है। जो वस्तु उद्योगके अधीन होती है, क्रियाजन्य होती है, वह नाशवान् होती है। जिसकी उत्पत्ति होती है, उसका विनाश होता ही है। जो साधनासे मिलेगा, वह उत्पत्तिवाला होगा; और जो उत्पत्तिवाला होगा, वह मिट जायगा, रहेगा नहीं। परन्तु परमात्मा अनुत्पन्न तत्त्व है और सदा ज्यों-का-त्यों रहता है; अत: उसकी प्राप्ति केवल लालसासे हो जाती है।

केवल परमात्मप्राप्तिकी ही लालसा हो, दूसरी कोई भी लालसा न हो—‘एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥’ (मानस ३। १०। ४) दूसरी लालसा होनेसे, दूसरी तरफ वृत्ति होनेसे ही परमात्मप्राप्तिमें बाधा लगती है। अगर दूसरी लालसा न हो तो परमात्मप्राप्तिमें बाधा है ही नहीं, देरी है ही नहीं, दूरी है ही नहीं! दूसरी मान-बड़ाई, सुख-आराम आदिकी लालसा होनेसे ही संसारका सम्बन्ध है। दूसरी लालसा मिटते ही संसारका सम्बन्ध छूट जाता है और संसारका सम्बन्ध छूटते ही परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। परमात्मा तो पहलेसे ही मिला हुआ है। अन्यकी जो इच्छा है, चाहना है, वासना है, उसीसे संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। संसारसे सम्बन्ध जुड़नेके कारण परमात्माका अनुभव नहीं हो रहा है।

संसारकी इच्छा करके, उद्योग करके कुछ नहीं पा सकोगे। केवल धोखा मिलेगा। परमात्मप्राप्तिसे वंचित रह जाओगे—इसके सिवाय और कुछ लाभ नहीं होगा। समय खाली चला जायगा, मनुष्य-शरीर व्यर्थ चला जायगा और मिलेगा कुछ नहीं; क्योंकि संसारका अभाव है। मनुष्यने अपने भीतर एक सिद्धान्त बैठा लिया है कि जो स्थिति अभी नहीं है, वह स्थिति हो जायगी तो हमने बड़ी उन्नति कर ली। यह महान् दोषकी बात है। पहले धन नहीं था, अब धन हो गया तो वह समझता है कि बड़ा भारी काम कर लिया! लोग भी कहते हैं कि पहले साधारण आदमी था, अब लखपति-करोड़पति बन गया, तो बड़ा भारी काम कर लिया! यह मूर्ख था, अब पण्डित बन गया, तो बड़ा भारी काम कर लिया! इसको पहले कोई जानता नहीं था, अब संसारमें इसकी बड़ी प्रसिद्धि हो गयी, तो बड़ा भारी काम कर लिया! इसका आदर कोई नहीं करता था, सब ठुकराते थे, अब इसका आदर हो गया, तो बड़ा काम कर लिया! वास्तवमें कुछ नहीं किया है। धूलके दो दाने जितना भी काम नहीं किया है! जो स्थिति पहले नहीं थी, वह स्थिति अब हो भी जाय तो अन्तमें वह नहीं रहेगी। जो पहले भी नहीं थी और पीछे भी नहीं रहेगी; उसको प्राप्त करना कोई बहादुरी नहीं है। जो सब देश, काल आदिमें मौजूद है, उस परमात्माको प्राप्त करना ही बहादुरी है। वह परमात्मा सदा ‘है’ ही रहेगा। वह ‘नहीं’ कभी हो ही नहीं सकता।

आपकी स्थिति परमात्मामें है। संसारमें आपकी स्थिति है ही नहीं। आपकी स्थिति तो अटल है और संसार आपके सामने बदलता है। संसारमें आपकी स्थिति है ही कहाँ? बालकपन बदला, जवानी बदली, वृद्धावस्था बदली, रोग-अवस्था बदली, नीरोग-अवस्था बदली, धनवत्ता बदली, निर्धनता बदली—ये सब बदलते रहे, पर आप वे-के-वे ही रहे। संसार आपके साथ कभी रह ही नहीं सकता और आप संसारके साथ कभी रह ही नहीं सकते। ब्रह्माजीकी भी ताकत नहीं है कि संसार आपके साथ और आप संसारके साथ रह जायँ। आपकी स्थिति सदा परमात्मामें रहती है। परमात्मा सदा आपके साथ रहते हैं और आप सदा परमात्माके साथ रहते हैं। अत: परमात्माकी प्राप्ति कठिन है ही नहीं। कठिन तो तब हो, जब परमात्माकी प्राप्तिके लिये कुछ करना पड़े। जब करना कुछ है ही नहीं, तब उसकी प्राप्ति कठिन कैसे! कठिनता और सुगमताका सवाल ही नहीं है।

श्रोता—बात तो यह ठीक जँचती है पर....।

स्वामीजी—ठीक जँचती है तो मना कौन करता है? आड़ तो आपने खुद ही लगा रखी है। वास्तवमें आपको परमात्मप्राप्तिकी परवाह ही नहीं है, चाहे प्राप्ति हो अथवा न हो!

संतदास संसार में, कई गुग्गु कई डोड।
डूबन को साँसो नहीं, नहीं तिरन को कोड॥

गुग्गु-(उल्लू) को तो दिनमें नहीं दीखता और डोड-(एक प्रकारका बड़ा कौआ) को रातमें नहीं दीखता। परन्तु संसारमें कई ऐसे लोग हैं, जिनको न दिनमें दीखता है और न रातमें दीखता है अर्थात् अपने उद्धारकी तरफ उनकी दृष्टि कभी जाती ही नहीं। उनमें न तो अपने डूबने-(पतन होने) की चिन्ता होती है और न तैरने-(अपने उद्धार करने) का उत्साह होता है।

केवल यह लालसा हो जाय कि परमात्माकी प्राप्ति कैसे हो? क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? किससे पूछूँ? यह लालसा जोरदार लगी कि परमात्माकी प्राप्ति हुई! क्योंकि यह लालसा लगते ही दूसरी लालसाएँ छूट जाती हैं। जबतक दूसरी सांसारिक लालसाएँ रहती हैं तबतक एक अनन्य लालसा नहीं होती। परमात्मा अनन्य हैं; क्योंकि उनके समान दूसरा कोई है ही नहीं, इसलिये उनकी प्राप्तिकी लालसा भी अनन्य होनी चाहिये।

श्रोता—परमात्माकी लालसा बनानी पड़ती है कि स्वत:सिद्ध है?

स्वामीजी—परमात्माकी लालसा स्वत:सिद्ध है, दूसरी लालसाएँ आपने बनायी हैं। अत: उन लालसाओंको छोड़ना है। अभी आप जिन लालसाओंको जानते हो, आजसे पचास वर्ष पहले उनको जानते थे क्या? जानते ही नहीं थे। इसलिये वे लालसाएँ बनावटी हैं। एक क्षण भी कोई लालसा टिकती नहीं, प्रत्युत बदलती रहती है, मिटती रहती है और आप नयी-नयी लालसा पकड़ते रहते हो।

श्रोता—परमात्मप्राप्तिकी अनन्य लालसाके बिना भी परमात्मप्राप्ति हो सकती है क्या?

स्वामीजी—परमात्मप्राप्तिकी अनन्य लालसाके बिना, दूसरी लालसा रहते हुए भी उद्योग किया जा सकता है, भजन-स्मरण किया जा सकता है। परंतु यह लम्बा रास्ता है, इससे तत्काल परमात्मप्राप्ति नहीं होगी। एक-दो जन्म, दस जन्म, पता नहीं कितने जन्ममें हो जाय तो हो जाय! दूसरी लालसा रहनेसे ही तो हम अटके पड़े हैं, नहीं तो अटकते क्या? जो सत्संगमें लगे हुए हैं, उनमें कुछ-न-कुछ पारमार्थिक लालसा है ही; परन्तु अनन्य लालसा न होनेसे ही परमात्मप्राप्तिमें देरी हो रही है।

वास्तवमें देखा जाय तो पारमार्थिक लालसाके बिना कोई प्राणी है ही नहीं। परन्तु इस बातका पता पशु-पक्षियोंको नहीं है। जो मनुष्य पशु-पक्षियोंकी तरह ही जीवन बिता रहे हैं, उनको भी इस बातका पता नहीं है। सभी उस तत्त्वको चाहते हैं। जैसे, कोई भी प्राणी मरना चाहता है क्या? सभी प्राणी निरन्तर रहना चाहते हैं—यह ‘सत्’ की चाहना है! कोई अज्ञानी रहना चाहता है क्या? सभी जानना चाहते हैं—यह ‘चित्’ की चाहना है। कोई दु:खी रहना चाहता है क्या? सभी सुखी रहना चाहते हैं—यह ‘आनन्द’ की चाहना है। इस प्रकार सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप परमात्माकी चाहना सभीमें स्वाभाविक है। इसको कोई मिटा नहीं सकता, दूसरी चाहनाएँ जितनी ज्यादा पकड़ रखी हैं, उतनी ही परमात्मप्राप्तिमें देरी लगेगी। दूसरी चाहनाएँ जितनी मिटेंगी, उतनी ही जल्दी परमात्मप्राप्ति होगी। सर्वथा चाहना मिटा दो तो तत्काल परमात्मप्राप्ति हो जायगी।

राज्यकी चाहना होनेसे ही ध्रुवजीको परमात्मप्राप्तिमें देरी लगी। इस चाहनाके कारण अन्तमें उनको पश्चात्ताप हुआ कि मैंने गलती कर दी! आप जिन चाहनाओंको पूरी करना चाहते हैं, उन चाहनाओंका आपको पश्चात्ताप होगा और रोना पड़ेगा। अत: परमात्माकी प्राप्तिमें दूसरी लालसा बाधक है—इस बातपर विचार करनेसे दूसरी लालसा मिट जायगी। दूसरी लालसा परमात्मप्राप्तिमें बाधा देनेमें ही सहायता करती है। इससे लोक-परलोकमें किसी तरहका किंचिन्मात्र भी फायदा नहीं है। केवल नुकसानके सिवाय और कुछ नहीं है। दूसरी लालसा केवल आध्यात्मिक मार्गमें बाधा डालती है। अगर इससे कुछ भी फायदा हो तो कोई बताओ कि अमुक लालसासे इतना फायदा हो जायगा। इसमें कोरा नुकसान है। केवल नुकसानकी बात भी आप नहीं छोड़ सकते, तो क्या छोड़ सकते हैं।

श्रोता—दूसरी लालसा किसपर टिकी हुई है?

स्वामीजी—दूसरी सभी लालसाएँ संयोगजन्य सुख-भोगकी लालसापर टिकी हुई हैं। संयोगजन्य सुख-भोगकी जो लालसा है, मनमें जो रुचि है, यही बाधक है; सुख इतना बाधक नहीं है। असली बीमारी कहाँ है—इस बातका हमें तो कई वर्षोंतक पता नहीं लगा था। व्याख्यान देते-देते कई वर्ष बीत गये तब पता लगा कि मनमें संयोगजन्य सुखकी जो लोलुपता है। यहाँ है वह बीमारी! हमें सुख मिल जाय—बस, इस इच्छामें ही सब बाधाएँ हैं। यही अनर्थका मूल है, यही जहर है।

श्रोता—संयोगजन्य सुखकी लालसा कैसे छूटे?

स्वामीजी—इसके छूटनेका बड़ा सरल उपाय है। परंतु इसको छोड़ना है—इतनी इच्छा आपके घरकी, स्वयंकी होनी चाहिये; क्योंकि इसके बिना कोई उपाय काम नहीं देगा। इसको हम छोड़ना चाहते हैं—इतने आप तैयार हो जाओ तो ऐसा उपाय मेरे पास है, जिससे बहुत जल्दी काम बन जाय! मैंने जो पुस्तकोंमें पढ़ा है, सन्तोंसे सुना है, वह बात कहता हूँ। भाई-बहनोंके लिये, पढ़े-लिखे और अनपढ़ आदमियोंके लिये, छोटे-बड़ोंके लिये, सबके लिये सीधा सरल उपाय है कि दूसरोंको सुख कैसे पहुँचे? दूसरोंको आराम कैसे मिले? दूसरोंका भला कैसे हो?—यह लालसा लग जाय तो अपने सुखकी लालसा छूट जायगी। करके देख लो, नहीं तो फिर मेरेसे पूछो कि यह तो हुआ नहीं! युक्तिसंगत न दीखे तो कह दो कि यह युक्तिसंगत नहीं दीखता!

श्रोता—इसमें प्रारब्धकी बाधा है कि नहीं?

स्वामीजी—इसमें प्रारब्धकी कोई बाधा नहीं है। इसमें प्रारब्ध मानना तो केवल बहानेबाजी है। प्रारब्ध ऐसा ही है, समय ऐसा ही आ गया, ईश्वरने कृपा नहीं की, अच्छे गुरु नहीं मिले, अच्छे महात्मा नहीं मिले, कोई बतानेवाला नहीं मिला, हमारा भाग्य ऐसा ही है—यह सब बहानेबाजी है, केवल परमात्मतत्त्वसे वंचित रहनेका उपाय है।

ऐसा भी कभी हो सकता है कि ईश्वर अपनी प्राप्तिमें बाधा दे दे? अथवा हमारा किया हुआ कर्म हमें बाधा दे दे? या हमारी बनायी हुई वासना हमें बाधा दे दे? कर्म हमने स्वयं किये हैं, वासनाएँ हमने स्वयं बनायी हैं। जो चीज हमने पैदा की है, उसको हम मिटा सकते हैं। गुरु कोई नहीं मिला तो गुरुकी जरूरत ही नहीं है। कोई महात्मा नहीं मिला तो महात्माकी जरूरत ही नहीं है। भगवान् ने जब अपनी प्राप्तिके लिये मनुष्य-शरीर दिया है तो अपनी प्राप्तिकी सामग्री कम दी है क्या? अगर गुरुकी जरूरत होगी तो भगवान् को स्वयं गुरु बनकर आना पड़ेगा! वे जगद्‍गुरु हैं—‘कृष्णं वन्दे जगद्‍गुरुम्’। अच्छे महात्मा संसारमें क्यों रहते हैं? तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त, परमात्माको प्राप्त हुए महापुरुष संसारमें जीते हैं, तो क्यों जीते हैं? संसारमें आकर उन्हें जो काम करना था, वह काम तो उन्होंने पूरा कर लिया; अत: उनको उसी वक्त मर जाना चाहिये था! परन्तु वे अब जीते हैं तो केवल हमारे लिये जीते हैं। उनपर हमारा पूरा हक लगता है। जैसे बालक दु:ख पा रहा है तो माँ जीती क्यों है? माँ तो बालकके लिये ही है, नहीं तो मर जाना चाहिये माँको! जरूरत नहीं है उसकी! ऐसे ही वे महात्मा पुरुष संसारमें जीते हैं, तो केवल जीवोंके कल्याणके लिये जीते हैं। इसीलिये महात्मा हमें नहीं मिलेंगे तो वे कहाँ जायँगे? उनको मिलना पड़ेगा, झख मारकर आना पड़ेगा; अगर हम सच्चे हृदयसे परमात्माको चाहते हैं, तो गुरुकी जरूरत होनेपर गुरु अपने-आप आ जायगा। भगवान् गुरुको भेज देंगे। ऐसी कई घटनाएँ हुई हैं। यह एकदम सच्ची बात है। इसलिये प्रारब्ध और कर्म कुछ भी बाधक नहीं हैं। परमात्मप्राप्तिकी एक प्रबल इच्छा हो जाय तो अनन्त जन्मोंके पाप भस्म हो जायँगे।

नारायण! नारायण! नारायण!

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