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संसारमें रहनेकी विद्या

अगर हमें संसारमें रहना आ जाय तो हमारी मुक्ति हो जाय! संसारमें रहना एक विद्या है। उस विद्याको हम ठीक समझ लें और काममें लायें तो बेड़ा पार है! किसी भी काममें लगो, उस कामको करनेकी विद्या आनी चाहिये। जैसे, कोई रसोई बनाता है, पर उसे रसोई बनानी नहीं आती, तो रसोई नहीं बनती। अगर उसे रसोई बनानी आती है, पर वह रसोई बनाता ही नहीं, तो रसोई नहीं बनती। इसलिये किसी भी कार्यमें ज्ञान और कर्म—दोनोंकी आवश्यकता है।

संसारमें रहनेकी विद्या क्या है—इसको समझना है। जैसे, एक मनुष्य है और उसके माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई-भौजाई आदि हैं, तो वह उनके साथ केवल उनके हितके लिये ही व्यवहार करे। केवल उनकी सेवा करे, उनको सुख पहुँचाये और अपने सुखकी किंचिन्मात्र भी इच्छा न करे। अगर वह अपने सुखकी इच्छा करता है, तो उसको संसारमें रहना आया नहीं। आप अपने कुटुम्बमें रहते हैं तो कुटुम्बकी सेवा करते हैं, पर जब बाहर चले जाते हैं, तब वहाँ सेवा नहीं करते, प्रत्युत सेवा लेते हैं। कोई हमें मार्ग बता दे, हमारी सहायता कर दे, हमारेको रहनेकी जगह दे दे, हमें जल पिला दे, हमारेको ऐसा कुछ दे दे, जिससे हम अपनी यात्रा ठीक तरहसे कर सकें—इस प्रकार सेवा चाहते रहनेसे हमारा कल्याण नहीं होता। हम किसीसे कुछ भी चाहते हैं तो हम पराधीन हो जाते हैं—यह पक्का सिद्धान्त है। परन्तु जहाँ हम किसीसे कुछ भी नहीं चाहते, वहाँ हम बिलकुल पराधीन नहीं होते, प्रत्युत स्वाधीन होते हैं। संसारसे कुछ भी चाहना अपने-आपको पराधीन बनाना है। अत: अपनी चाहना तो रखें नहीं और दूसरोंकी न्याययुक्त चाहना अपनी शक्तिके अनुसार पूरी कर दें, तो हम स्वाधीन हो जायँगे।

अब प्रश्न होता है कि जब हम दूसरोंसे कुछ भी नहीं चाहते, तो फिर उनकी चाहना पूरी क्यों करें? इसका उत्तर यह है कि उनकी चाहना पूरी करनेसे अपनी चाहनाके त्यागकी सामर्थ्य आ जायगी। अगर हम अपनी चाहना पूरी करनेमें ही लगे रहेंगे, तो अपनी चाहनाके त्यागकी सामर्थ्य नष्ट हो जायगी और हम सर्वथा पराधीन हो जायँगे, पतित हो जायँगे। अगर हम उनकी सेवा करते रहेंगे, तो हम स्वतन्त्र हो जायँगे, संसारमें रहकर संसारसे ऊँचे उठ जायँगे। इसीको मुक्ति कहते हैं। भगवान् कहते हैं—

इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।
(गीता ५। १९)

अर्थात् जिनका मन साम्यावस्थामें स्थित हो गया है, उन पुरुषोंने जीवित अवस्थामें ही संसारको जीत लिया है। साम्यावस्था क्या है? जो भी अनुकूल परिस्थिति मिले, उसमें सुख-दु:ख, हर्ष-शोक न हो। संसारकी मात्र परिस्थिति हमें कभी डिगा न सके, तो हमने विजय प्राप्त कर ली। यदि संसारकी अनुकूलता और प्रतिकूलताने हमारेपर असर कर दिया, तो हम हार गये। अनुकूलता-प्रतिकूलता हमारेपर असर कब नहीं करेगी? जब हम संसारमें अपने लिये नहीं रहेंगे, प्रत्युत संसारके लिये ही संसारमें रहेंगे। इस प्रकार रहनेसे हम संसारसे ऊँचे उठ जायँगे।

हमारे माता-पिता हैं, तो हम माता-पिताकी सेवा करें और उनसे कोई चाहना न रखें। उनसे चाहना क्यों नहीं रखें? उनका दिया हुआ ही शरीर है, सामर्थ्य है। हमें जो कुछ मिला है, उन लोगोंसे ही मिला है। अत: उनसे मिले हुए शरीर, सामर्थ्य, समझ, सामग्री आदिके द्वारा उनकी ही सेवा करनी है। उनसे मिली हुई वस्तु उनको ही दे देनी है। देनेके लिये ही हमें रहना है, लेनेके लिये नहीं। उनके लिये ही रहना है, अपने लिये नहीं। अगर हम अपने लिये नहीं रहेंगे, तो वे हमारे साथ अच्छा व्यवहार करें अथवा बुरा व्यवहार करें, उसका हमारेपर असर नहीं पड़ेगा। उनकी सेवा कैसे हो जाय, उनको सुख कैसे पहुँचे, उनको आराम कैसे पहुँचे, उनका भला कैसे हो, उनका उद्धार कैसे हो, उनका कल्याण कैसे हो—केवल यही भाव रखना है।

श्रोता—ऐसा करनेसे हम तो दु:खी हो जायँगे?

स्वामीजी—हम दु:खी तभी होंगे, जब उनसे कुछ चाहेंगे और वे नहीं करेंगे। हम उनसे कुछ चाहते ही नहीं, तो हम दु:खी कैसे होंगे? हम तो केवल उनके सुखके लिये, उनके आरामके लिये ही रहते हैं। अत: उनको सुख पहुँचाना ही हमारा काम है।

श्रोता—अगर वे हमें दु:ख पहुँचायें तो?

स्वामीजी—वे हमें दु:ख पहुँचायें तो हमारा बहुत जल्दी कल्याण होगा। हम उनकी सेवा करते हैं और वे हमें दु:ख देते हैं तो इससे हमें दुगुना लाभ होगा। एक तो निष्कामभावसे उनकी सेवा करनेसे त्याग होगा और दूसरा, वे हमें दु:ख देंगे तो हमारे पाप नष्ट होंगे, जिससे हमारा अन्त:करण शुद्ध होगा। तात्पर्य है कि वे हमें दु:ख देंगे तो अन्त:करणकी पुरानी अशुद्धि मिट जायगी और हम निष्काम-भावसे उनकी सेवा करेंगे तो अन्त:करणमें नयी अशुद्धि नहीं आयेगी। इसलिये उनको सुख कैसे पहुँचे—इसके लिये संसारमें रहना है। अपने लिये कुछ चाहना हमारा कर्तव्य नहीं है। हमारा कर्तव्य तो उनकी चाहना पूरी करना है। उनकी चाहना पूरी करनेमें दो बातोंका खयाल रखना है—उनकी चाहना न्याययुक्त हो और हमारी सामर्थ्यके अनुरूप हो। अगर उनकी चाहना न्याययुक्त हो, पर उसको पूरी करना हमारे सामर्थ्यके बाहरकी बात हो तो हाथ जोड़कर उनसे माफी माँग लें कि ‘हम तो समर्थ नहीं हैं, हमारे पास इतनी शक्ति नहीं है, इसलिये आप माफ करो।’ अगर सामर्थ्य हो तो उनकी चाहना पूरी कर दें। इस प्रकार संसारमें रहें।

कमलका पत्ता जलमें रहता है, पर वह जलसे भीगता नहीं। जैसे कपड़ा भीग जाता है, वैसे वह भीगता नहीं। जल उसके ऊपर मोतीकी तरह लुढ़कता रहता है। ऐसे ही अगर हम संसारमें अपने लिये न रहकर केवल दूसरोंके लिये ही रहेंगे, तो हम भी कमलके पत्तेकी तरह निर्लिप्त रहेंगे, संसारमें फँसेंगे नहीं। इसलिये संसारमें केवल दूसरोंकी सेवाके लिये ही रहें। उनसे मिली हुई चीज उनको ही देते रहें और बदलेमें कुछ भी लेनेकी इच्छा न रखें। उनकी सेवा करनेसे पुराना ऋण उतर जायगा और उनसे कुछ भी लेनेकी इच्छा न करनेसे नया ऋण पैदा नहीं होगा। अगर हम उनकी सेवा नहीं करेंगे तो उनका हमारेपर ऋण रहेगा और उनसे चाहते रहेंगे तो नया ऋण हमारेपर चढ़ता रहेगा।

कोई आदमी मर जाता है तो दु:ख होता है। उस दु:खमें दो कारण होते हैं—एक तो उससे सुख लिया है, पर सुख दिया नहीं है और दूसरा, उससे फिर सुख लेनेकी आशा रही है। अगर हमने उससे सुख न लिया होता तो उसके मरनेसे दु:ख न होता। जो हमारा अपरिचित है, जिसका हमारे साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, उसके मरनेसे हमें दु:ख नहीं होता। जैसे, नब्बे या सौ वर्षोंका बहुत बूढ़ा आदमी मर जाय तो उससे दु:ख नहीं होता। लोग तो यहाँतक कहते हैं कि उसका मरना विवाह-जैसी बात है, बड़े आनन्दकी बात है। कारण क्या है? कि अब उससे सुखकी कोई आशा नहीं रही। वह किसी तरहकी सेवा करेगा, हित करेगा—यह आशा नहीं रही। इसलिये उसके मरनेका दु:ख नहीं होता। परन्तु बीस-पचीस वर्षका जवान आदमी मर जाता है तो दु:ख होता है; क्योंकि उससे और सुख मिलनेकी आशा है। आशा ही दु:खोंका खास कारण है—

आशा ही परमं दु:खं नैराश्यं परमं सुखम्।
(श्रीमद्भा० ११। ८। ४४)

उससे आशा न रखकर उसकी आशा पूर्ण करनेकी चेष्टा करें। उससे आशा न रखनेसे उसके मरनेका दु:ख नहीं होगा। जैसे, वह पन्द्रह वर्षकी अवस्थासे बीमार हुआ और पचीस वर्षका हो गया। वैद्योंने, डॉक्टरोंने—सबने जवाब दे दिया कि यह अब जी नहीं सकता, यह तो अब मरेगा। हमने दस वर्ष उसकी सेवा कर दी, उससे लिया कुछ नहीं और कुछ लेनेकी आशा भी नहीं, तो उसके मरनेपर दु:ख नहीं होगा। कारण कि दु:ख उसके मरनेका नहीं है। हम उससे जो सुख चाहते हैं, उसीका फल दु:ख है।

संसारमें हम रहें, पर संसारसे सुख न चाहें, प्रत्युत सुख देते रहें। सेवा करते रहें, पर सेवा लेनेकी चाहना भीतरसे बिलकुल उठा दें तो हमें संसारमें रहना आ गया, हम मुक्त हो गये! लेनेकी इच्छाका नाम ही बन्धन है। कोई हमारी सेवा करेगा तो हम सुखी हो जायँगे—यह उलटी बुद्धि है। सेवा लेनेसे तो हम ऋणी हो जायँगे, सुखी कैसे हो जायँगे? पापी आदमीकी तो मुक्ति हो सकती है, पर ऋणी आदमीकी मुक्ति नहीं हो सकती। पापी आदमी अपने पापका प्रायश्चित्त कर लेगा अथवा उसका फल भोग लेगा तो वह पापसे मुक्त हो जायगा। परन्तु दूसरेसे ऋण लेनेवाले अथवा दूसरेका अपराध करनेवालेकी मुक्ति तभी होगी जब दूसरा उसे माफ कर दे। इसलिये जबतक हम संसारके ऋणी रहेंगे, तबतक हमारी मुक्ति नहीं होगी। जिनसे हमने सेवा ली है और जो हमारेसे सेवा चाहते हैं, उनकी निष्कामभावसे सेवा कर दें तो हम उऋण हो जायँगे।

श्रोता—हम जिनकी सेवा करेंगे, वे ऋणी हो जायँगे।

स्वामीजी—वे ऋणी नहीं होंगे। हम उनकी सेवा निष्कामभावसे करते हैं, बदलेमें उनसे कुछ लेनेकी इच्छा ही नहीं करते, तो वे ऋणी कैसे होंगे? दूसरी बात, प्राप्त वस्तुको हम अपनी नहीं मानते, प्रत्युत उन्हींकी मानकर उनकी सेवामें लगाते हैं, तो वे ऋणी कैसे बनेंगे? अत: सेवा करनेसे वे तो ऋणी बनेंगे नहीं और हम उऋण हो जायँगे, मुक्त हो जायँगे।

कोई दूकानदार अपनी दूकान उठाना चाहता है, तो वह क्या करे? दूसरोंसे जितना लिया है, वह सब दे दे और उसने जिसको दिया है वह अगर वापस दे दे तो ठीक है, नहीं तो छोड़ दे। ऐसा करनेसे दूकान उठ जायगी। अगर वह दिया हुआ पूरा-का-पूरा वापस लेना चाहेगा तो दूकान उठेगी नहीं; क्योंकि उसको लेनेके लिये कुछ नया माल देना पड़ेगा। इस तरह हमारा उससे लेना बाकी रहता ही रहेगा। अत: जबतक हम लेना नहीं छोड़ेंगे, तबतक दूकान नहीं उठ सकती। ऐसे ही जबतक हम संसारसे लेना नहीं छोड़ेंगे, तबतक हम उऋण नहीं हो सकते, मुक्त नहीं हो सकते। इसलिये लेनेका खाता ही उठा दें और सबको देना-ही-देना शुरू कर दें। माता-पिताको भी देना है, स्त्री-पुत्रको भी देना है, भाई-भौजाईको भी देना है, पतिको भी देना है, सास-ससुरको भी देना है, देवर-जेठको भी देना है, देवरानी-जेठानीको भी देना है। सबको देना है, सबकी सेवा करनी है और लेना कुछ नहीं है। जहाँ लेनेकी इच्छा हुई कि फँसे! एक ग्रामीण कहावत है—‘गरज गधाने बाप करे’ अर्थात् गरज गधेको बाप बनाती है। गरज करनेसे, लेनेकी इच्छा करनेसे आदमीको इतना नीचा उतरना पड़ता है; गधेकी भी गुलामी करनी पड़ती है! अगर लेनेकी इच्छा ही नहीं हो, तो हम भगवान् के भी गुलाम नहीं होते।

एक विचित्र बात है, ध्यान दें! हम भगवान् के भक्त तो होते हैं, पर गुलाम नहीं होते। परन्तु कब? जब हम भगवान् से कुछ भी लेना नहीं चाहते। जो भगवान् से कुछ भी लेना नहीं चाहते उन भक्तोंके लिये भगवान् कहते हैं—‘मैं तो हूँ भगतनको दास, भगत मेरे मुकुटमणी’। गीतामें भगवान् ने कहा है कि अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी)—इन चारों प्रकारके भक्तोंमें ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है। उस ज्ञानी भक्तको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह भी मेरेको अत्यन्त प्रिय है। चारों प्रकारके भक्त बड़े उदार हैं; परंतु ज्ञानी भक्त तो मेरा स्वरूप ही है (७। १७-१८)। कारण यह है कि ज्ञानी भक्त भगवान् से कुछ नहीं चाहता। अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु तो भगवान् से कुछ-न-कुछ चाहते हैं। वे चाहते हैं तो भगवान् के यहाँ कोई घाटा थोड़े ही है! वे धन भी दे सकते हैं, दु:ख भी दूर कर सकते हैं, तत्त्वज्ञान भी दे सकते हैं। उनमें देनेकी सामर्थ्य तो पूरी है; परन्तु उन चाहनेवाले भक्तोंका दर्जा कम हो गया!

भगवान् कहते हैं कि मैं तो देता रहूँगा, अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा मैं करूँगा—‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (गीता ९। २२); परंतु तू चाहना मत कर—‘निर्योगक्षेम आत्मवान्’ (गीता २। ४५)। कितनी बढ़िया बात कही! न चाहनेसे प्रेम होता है; परन्तु चाहनेसे प्रेम नहीं होता, प्रत्युत बन्धन होता है। वह इससे चाहता है और यह उससे चाहता है, तो आपसमें प्रेम नहीं होता। दोनों एक-दूसरेसे चाहते हैं तो दोनों ही ठग हैं। दो ठगोंमें ठगाई नहीं होती। संसारसे चाहना मानो ठगाईमें जाना है। इसलिये चाहनाका त्याग करके सेवा करनी है। यही संसारमें रहनेका तरीका है।

आप सब भाई-बहन अपने घरोंमें ऐसे रहो, जैसे कोई मुसाफिर रहता है। जैसे कोई सज्जन मुसाफिर आ जाता है और रात्रिभर रहता है, तो वह कहता है कि भाई! तुम सब भोजन कर लो, जो बचे, वह मैं पा लूँगा। तुम सब अपनी-अपनी जगहमें रह जाओ, फालतू जगहमें मैं रह जाऊँगा। जो कपड़ा-लत्ता आपके कामका हो वह आप ले लो और जो फालतू हो, वह मुझे दे दो, उससे मैं निर्वाह कर लूँगा। परन्तु रात्रिमें यदि आग लग जाय, चोर-डाकू आ जायँ, कोई आफत आ जाय, बीमारी आ जाय, तो वह सबसे आगे होकर सहायता करता है। उसका भाव यह रहता है कि मैंने इनका अन्न-जल लिया है, इनके यहाँ विश्राम किया है, इसलिये इनकी सेवा करना, इनकी सहायता करना मेरा काम है। अगर वह मुसाफिर काम तो पूरा करे, पर ले कुछ नहीं, तो वह बँधेगा नहीं। सुबह होते ही चल देगा। अगर वह लेनेकी इच्छा रखे, तो वह बँध जायगा। इसलिये सज्जनो! सेवा करें। जो थोड़ा अन्न-जल लेना है, वह भी सेवा करनेके लिये लेना है; क्योंकि अन्न-जल नहीं लेंगे तो सेवा कैसे करेंगे?

हमारे एक वृद्ध संत कहते थे कि संसारमें रबड़की गेंदकी तरह रहना चाहिये, मिट्टीकी लौंदेकी तरह नहीं। गेंद फुदकती रहती है, कहीं भी चिपकती नहीं। परन्तु मिट्टीका लौंदा जहाँ जाय, वहीं चिपक जाता है। अगर मनुष्य संसारमें सेवा करनेके लिये ही रहे, अपने लिये नहीं रहे तो वह संसारमें चिपकेगा नहीं, मुक्त हो जायगा। यही संसारमें रहनेकी विद्या है।

नारायण! नारायण! नारायण!

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