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संसारका आश्रय कैसे छूटे?

हम भगवान् के आश्रित हो जायँ अथवा संसारका आश्रय छोड़ दें, दोनोंका एक ही अर्थ होता है। संसारका आश्रय सर्वथा छूट जानेसे भगवान् का आश्रय स्वत: प्राप्त हो जाता है और भगवान् के सर्वथा आश्रित हो जानेसे संसारका आश्रय स्वत: छूट जाता है। इन दोनोंमेंसे किसी एककी मुख्यता रखकर चलें अथवा दोनोंको साथ रखते हुए चलें, एक ही अवस्था हो जाती है अर्थात् कल्याण हो जाता है।

भगवान् के आश्रित होनेमें संसारका आश्रय ही खास बाधक है। संसारका आश्रय न छूटनेमें खास कारण है—संयोगजन्य सुखकी आसक्ति। संयोगजन्य सुखमें मनका जो खिंचाव है, प्रियता है, यही संसारके आश्रयकी, संसारके सम्बन्धकी खास जड़ है। यह जड़ कट जाय तो संसारका आश्रय छूट जायगा। परन्तु भीतरमें संयोगजन्य सुखकी लोलुपता रहते हुए बाहरसे चाहे सम्बन्ध छोड़ दो, साधु भी बन जाओ, पैसा भी छोड़ दो, पदार्थ भी छोड़ दो, गाँव छोड़कर जंगलोंमें भी चले जाओ, तो भी संसारका आश्रय छूटेगा नहीं।

संयोगजन्य सुख आठ प्रकारका है—शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, मान (शरीरका आदर-सत्कार), बड़ाई (नामकी प्रशंसा) और आराम। ये आठ प्रकारके संयोगजन्य सुख ही मूल बाधाएँ हैं। जबतक इन सुखोंमें आकर्षण है, प्रियता है, ये अच्छे लगते हैं, तबतक संसारका आश्रय छूटता नहीं और संसारका आश्रय छूटे बिना सर्वथा भगवान् का आश्रय होता नहीं। अगर केवल भगवान् का ही आश्रय ले लिया जाय तो संसारका आश्रय छूट जायगा। संयोगजन्य सुखका बड़ा भारी आकर्षण है। पर वह कब छूटेगा? जब मनुष्य केवल भगवान् का आश्रय लेकर भगवान् के भजन-स्मरणमें लीन होगा। भगवान् के भजन-स्मरणमें लीन होनेसे जब पारमार्थिक सुख मिलने लगेगा, तब संयोगजन्य सुख सुगमतासे, सरलतासे छूट जायगा। उस पारमार्थिक सुखमें इतनी विलक्षणता, अलौकिकता है कि उसके सामने संसारके सब सुख नगण्य हैं, तुच्छ हैं, कुछ नहीं हैं। जब वह पारमार्थिक सुख मिलने लगेगा, तब संसारके सब सुख फीके पड़ जायँगे, स्वत:-स्वाभाविक तुच्छ लगने लगेंगे। अत: उस पारमार्थिक सुखको, आनन्दको ही लेना चाहिये। उसको लेनेके दो तरीके हैं, चाहे भावना-(भक्ति) से ले लो और चाहे विवेक-(ज्ञान) से ले लो। भावनासे ऐसे लो कि भगवान् हैं, वे मेरे हैं और मैं उनका हूँ—

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई रे।

भगवान् को अपना माननेके साथ-साथ ‘दूसरो न कोई’—यह मानना जरूरी है। परंतु होता यह है कि संसारमें अपनापन रखते हुए भगवान् में अपनापन करते हैं। वास्तवमें संसारके साथ अपनापन रहता नहीं—यह निश्चित बात है। जन्मसे पहले जिस कुटुम्बके साथ अपनापन था, आज उस कुटुम्बकी याद ही नहीं है। इसी प्रकार आज जिस कुटुम्बके साथ, जिन रुपयोंके साथ, जिन भोगोंके साथ हमारा अपनापन है, वे भविष्यमें यादतक नहीं रहेंगे, सम्बन्ध तो क्या रहेगा? अत: जो रहेगा ही नहीं, उसको छोड़नेमें क्या जोर आता है? जो रहनेवाला हो, उसको यदि छोड़नेके लिये कहा जाय, तब तो कुछ कठिनता भी मालूम देगी कि रहनेवाली चीजको कैसे छोड़ दें! पर संसार तो छूटेगा ही और छूटता ही चला जा रहा है; अत: उसको छोड़नेमें कठिनता कैसी? केवल मूर्खताके कारण ही हमने उसको पकड़ रखा है।

थोड़ा-सा विचार करें तो बात स्पष्ट समझमें आती है कि बाल्यावस्थामें हमारा जिन मित्रोंके साथ, जिन खिलौनोंके साथ, जिन व्यक्तियोंके साथ सम्बन्ध था, वह सम्बन्ध आज केवल यादमात्र है। आज वह सम्बन्ध नहीं है। न उस अवस्थाके साथ सम्बन्ध है, न उन घटनाओंके साथ सम्बन्ध है। न उन खिलौनोंके साथ सम्बन्ध है, न उस समयके साथ सम्बन्ध है। अब आप कहते हो कि हमारी बाल्यावस्था ऐसी थी और हम अड़ जायँ कि ऐसी नहीं थी, तो आपके पास कोई प्रबल प्रमाण नहीं है कि आप उसको हमें बता सकें। आप और हम जिद भले ही कर लें, पर ‘हमारी बाल्यावस्था ऐसी थी’—इसको आप और हम नहीं बता सकते। बतायें भी तो क्या बतायें और कैसे बतायें? किसकी ताकत है, जो उसको बता दे? आपको अपनी बाल्यावस्था वर्तमान अवस्थाकी तरह सच्ची दीखती थी, पर आज उसको आप सिद्ध नहीं कर सकते, तो फिर आज आपकी जो अवस्था है, उसको आगे सिद्ध करना चाहेंगे तो कैसे करेंगे? जिस तरहसे उस बाल्यावस्थाका समय बीता उसी तरहसे यह आजका समय बीत रहा है। भविष्यमें क्या होगा, अभी घण्टेभर बादमें क्या होगा, कुछ पता नहीं! आजसे युगों पहले क्या हुआ, पता नहीं और आजसे युगों बाद क्या होगा, पता नहीं। वर्तमान भी बड़ी तेजीसे बीत रहा है। वर्तमान, ‘है’ का नाम नहीं है, प्रत्युत जो बरत रहा है अर्थात् तेजीसे जा रहा है, उसका नाम वर्तमान है। वर्तमान इतनी तेजीसे जा रहा है कि इसका एक क्षण भी स्थिर नहीं है। वर्तमान कोई काल है ही नहीं, केवल भूत और भविष्यकी सन्धिको वर्तमान कहा गया है। वर्तमान शब्दका अर्थ ही है—चलता हुआ। जो भविष्य है, वह सामने आ करके भूतमें जा रहा है। जो भविष्य भूतमें जा रहा है, उसको वर्तमान कहते हैं। इस प्रकार जो कभी स्थिर रहता ही नहीं, जिसका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है, उससे विमुख होनेमें क्या जोर आता है, बताओ? यह तो जबरदस्ती छूटेगा, रहेगा नहीं। इसको रखना चाहोगे तो बेइज्जती, दु:ख, सन्ताप, जलन, आफतके सिवाय और कुछ मिलनेका है नहीं। परन्तु इसको छोड़ दोगे तो निहाल हो जाओगे! अत: चाहे संसारके सम्बन्धका त्याग कर दो चाहे भगवान् के साथ सम्बन्ध मान लो कि ‘हे भगवन्! आप ही हमारे हो’। भगवान् का ही नाम लो, उनका ही चिन्तन करो, उनके आगे रोओ और कहो कि ‘महाराज! संसारका त्याग करनेमें मैं तो हार गया, मुझे अपनी मनोवृत्तियाँ बड़ी प्रबल प्रतीत होती हैं।’ ऐसा करके भगवान् के शरण हो जाओ। तुलसीदासजी महाराज कहते हैं—

हौं हारॺो करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै।
तुलसिदास बस होइ तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै॥
(विनयपत्रिका ८९)

हमारेसे तो ये शत्रु सीधे होते नहीं। वे प्रभु कृपा करेंगे, तभी ये सीधे होंगे। परंतु अपनी शक्तिका पूरा उपयोग किये बिना मनुष्य अपनी शक्तिसे हताश नहीं हो पाता—अपनेमें असमर्थताका अनुभव नहीं कर पाता। अपनी शक्तिसे हताश हुए बिना अभिमान नहीं मिटता कि मैं ऐसा कर सकता हूँ। पूरी शक्ति लगाकर भी काम न बने तो कह दे कि ‘हे नाथ! अब मैं कुछ नहीं कर सकता!’ तो फिर उसी क्षण काम बन जायगा। परन्तु पूरी शक्ति लगाये बिना ऐसी अनन्यता नहीं आती। इसलिये जो आप कर सकते हैं, उसे पूरा करके मनकी निकाल दें। जब भीतर यह विश्वास हो जायगा कि मेरी शक्तिसे काम नहीं होगा, तब स्वत: पुकार निकलेगी कि ‘हे नाथ! मेरी शक्तिसे नहीं होता’ और उसी क्षण भगवान् की शक्तिसे काम पूरा हो जायगा। अपनी शक्ति बाकी रखते हुए भगवान् के अनन्य शरण नहीं हो सकते। अगर अपनी शक्तिका कुछ आश्रय है कि हम कुछ कर सकते हैं, तो करके पूरा कर लो। जितना जोर लगाना हो, पूरा-का-पूरा लगा लो। पूरा जोर लगानेपर जब जोर बाकी नहीं रहेगा, तब कार्य सिद्ध हो जायगा। अगर जोर लगाये बिना ही संसारका आश्रय छूट जाय तो भी कार्य सिद्ध हो जायगा। कारण कि संसारका जो आश्रय है, वह परमात्माका आश्रय नहीं लेने देता, इतना ही उसका काम है और खुद वह रहता नहीं!

संसारका आश्रय व्याकरणके ‘क्विष्’ प्रत्ययकी तरह है। ‘क्विष्’ प्रत्यय खुद तो रहता नहीं, पर धातुके गुण और वृद्धि नहीं होने देता। ऐसे ही संसारका आश्रय खुद तो रहता नहीं, पर मनुष्यमें न तो सद्‍गुण-सदाचार आने देता है और न उसको परमात्माकी तरफ बढ़ने देता है। अत: संसारका आश्रय रखनेसे कोरा, निखालिस धोखा ही होगा। इसमें कोई लाभ होता हो तो बताओ?

श्रोता—अनन्त जन्मोंसे संसारका आश्रय लेनेके संस्कार पड़े हुए हैं!

स्वामीजी—यह सब कुछ नहीं, केवल बहानेबाजी है। आपका विचार ही नहीं है, इसलिये बहाना बनाते हो। बहानेबाजियाँ मैंने बहुत सुनी हैं। ‘क्या करें, हमारे कर्म ठीक नहीं हैं। क्या करें, कोई अच्छा महात्मा नहीं मिलता। क्या करें, ईश्वरने ऐसी कृपा नहीं की। क्या करें, वायुमण्डल ऐसा ही है। क्या करें, समय ऐसा ही आ गया है। समय बहुत खराब आ गया है, समाजमें कुसंग बहुत है। क्या करें, हमारा प्रारब्ध ऐसा ही है। क्या करें, हमारे संस्कार ऐसे ही हैं। कहाँ जायँ? क्या करें? किस तरहसे करें? किससे पूछें? ईश्वरने हमारेको ऐसा ही बना दिया। भगवान् की माया ही ऐसी है, हम क्या करें!’—ये सब बिलकुल फालतू बातें हैं, इनमें कुछ तत्त्व नहीं है। मैंने इनका अध्ययन किया है। ये जितनी भी बहानेबाजियाँ हैं, ये सब केवल असली लाभसे वंचित होनेके तरीके हैं। कहीं असली लाभ न हो जाय—इसके लिये ढूँढ़-ढूँढ़कर तरीके निकाले हैं और कुछ नहीं! ऐसी बढ़िया रीतिसे कमर कसी है कि किसी तरहसे आध्यात्मिक उन्नति न हो जाय। कुछ-न-कुछ आड़ लगा ही देंगे कि स्वामीजीको इन बातोंका क्या पता? इनके गृहस्थ तो है नहीं। दुकान इनके है नहीं। इनको तो मुफ्तमें रोटी मिलती है और बातें बनानी आती हैं। इस प्रकार किसी तरहसे इनकी बातोंको टाल देना है—यह आपने सोच रखा है। इसके लिये तरीके आपको बहुत आते हैं। एक-दो, चार-पाँच तरीके थोड़े ही हैं। यदि कर्म बाधक हैं, तो कर्म तुम्हारे किये हुए हैं या और किसीके? तुम्हारे बनाये हुए संस्कार यदि बाधक हैं, तो क्या उनको तुम मिटा नहीं सकते? आपने किया है, देखा है, सुना है, समझा है, पढ़ा है— इस प्रकार आपने स्वयं अपने भीतर जो संस्कार डाले हैं, वे ही उपजते हैं। अत: आपके किये हुए संस्कार ही उपजते हैं, आपके किये बिना एक भी संस्कार नहीं उपज सकता।

एक संतसे किसीने पूछा कि ‘महाराज! भगवान् में मन कैसे लगे?’ संतने उत्तर दिया कि तुम स्वयं भगवान् में लग जाओ तो मन भी आप-से-आप भगवान् में लग जायगा। मन कहाँ जाता है? तुमने जहाँ-जहाँ अपना सम्बन्ध जोड़ा है, वहाँ-वहाँ मन जाता है। उसने कहा कि ‘महाराज! मन तो हरेक जगह चला जाता है!’ तो संतने कहा कि ‘मनमें कभी वाइसरायकी चाय पीनेका संकल्प होता है क्या?’ ‘नहीं होता।’ ‘क्यों नहीं होता?’ क्योंकि वहाँ हमने सम्बन्ध जोड़ा ही नहीं। अत: जहाँ आपने सम्बन्ध नहीं जोड़ा, वहाँ मन नहीं जाता। जहाँ आपने सम्बन्ध जोड़ा है, वहीं मन जाता है। आप सम्बन्ध छोड़ दो तो मन वहाँ जाना छोड़ देगा। सब काम खुदका ही किया हुआ है—

आप कमाया कामड़ा, किणने दीजै दोष।
खोजेजी री पालड़ी, काँदे लीनी खोस॥*
* अपने ही द्वारा किये गये काममें किसको दोष दें! ‘खोजेजी’ नामक एक ठाकुरके गाँव पालड़ीको लोग ‘खोजेजीकी पालड़ी’ कहकर पुकारा करते थे। एक बार खोजेजीके गाँवमें एक बहुत बड़ा काँदा (प्याज) पैदा हुआ। उसको वे राजाके पास दिखानेके लिये ले गये। राजाके पास ले जानेसे उस गाँवकी ‘काँदेकी पालड़ी’ नामसे प्रसिद्धि हो गयी और लोग उस गाँवको ‘खोजेजीकी पालड़ी’ न कहकर ‘काँदेकी पालड़ी’ कहकर पुकारने लग गये।

अगर खुदका पक्का विचार होगा तो उसको खुद ही मिटा दोगे। अगर उसको पूरा मिटाना चाहते हो, पर अपनी शक्तिसे वह मिटता नहीं तो ऐसी अवस्थामें आप रो दोगे। यह विद्या हम सबने बालकपनमें काममें ली है। बालकपनमें कौन-सा काम रोनेसे नहीं हुआ! रोनेसे सब काम हुए। छोटा बच्चा रो करके अपने मनकी बात पूरी करा लेता है। यह रोना आपके, हमारे सबके काममें लिया हुआ उपाय है। अत: भगवान् के आगे रो पड़ो, तो भगवान् को झख मारकर आना पड़ेगा। हम भगवान् के प्यारे-से-प्यारे बच्चे हैं। अगर हम बेचैन होकर रो पड़ें तो भगवान् की ताकत नहीं है कि हमारी उपेक्षा कर दें; कर ही नहीं सकते!

हम संसारके भोगोंको चाहते हैं, उनके संग्रहको चाहते हैं, तो ये चीजें रोनेपर भी नहीं मिलेंगी। प्रारब्धके अनुसार ये चीजें मिलनी होंगी तो मिलेंगी, नहीं मिलनी होंगी तो नहीं मिलेंगी। परंतु भगवान् के लिये रोना होगा तो उसको भगवान् सह नहीं सकेंगे। भगवान् संसारके दु:खकी परवाह नहीं करते। जो मनुष्य संसारका सुख चाहता है, वह तो एक प्रकारसे दु:ख ही चाहता है। भगवान् मानो कहते हैं कि पहले मिला हुआ दु:ख काफी है, और दु:ख लेकर तू क्या करेगा! इसलिये सांसारिक सुख माँगनेपर और उसके लिये रोनेपर भी भगवान् सांसारिक सुख दे ही दें—यह नियम नहीं है।

एक सज्जन थे। उनकी स्त्री बीमार हो गयी तो उन्होंने भगवान् से प्रार्थना की। परंतु उनकी स्त्री मर गयी, तो उन्होंने भगवान् की आस्था छोड़ दी। उनकी परीक्षामें भगवान् फेल हो गये; क्योंकि प्रार्थना करनेपर भी भगवान् ने हमारा दु:ख नहीं मिटाया, स्त्रीकी रक्षा नहीं की। परंतु मनुष्य यह विचार नहीं करता कि पहले दु:ख ज्यादा था, उसे कम किया तो हर्ज क्या हुआ? परंतु यह बात अक्लमें नहीं आती। मनुष्य अपनी मनचाही वस्तु ही माँगता रहता है। अगर आपमें आध्यात्मिक लगन हो और उसके लिये आप रो पड़ो, तो भगवान् उसी समय उसकी पूर्ति कर देंगे। कारण कि वे जानते हैं कि यह सच्ची बातके लिये रोता है। जो झूठी बातके लिये रोता है, उसकी कौन परवाह करे? वह तो पागल है, बेअक्ल है, मूर्ख है!

संसारसे कुछ भी लेनेकी इच्छा न रखे, तो भी मनमें ‘यह अपना है’—ऐसा भाव है तो यह भोग है। कारण कि संसारसे अपनापन छूटता है तो दु:ख होता है। संसारसे अपनापन टिकनेवाला नहीं है। हम शरीरको अपना मानते हैं तो क्या उसके साथ हमारा सम्बन्ध सदा बना रहेगा? शरीर बना रहे—यह इच्छा ही मनुष्यको तंग कर रही है। शरीर सदा रहनेवाला तो है नहीं, पर ‘वह मेरा है’—इस भावसे एक सुख मिलता है, यह सुख ही आफतमें डालनेवाला है। यह साधकके कामकी बहुत मार्मिक बात है।

यह संसार सब-का-सब छूटनेवाला ही है; परंतु ऐसा जानते हुए भी इसको छोड़नेमें असमर्थता मालूम देती है। पर इस असमर्थता, कठिनताके आगे हार स्वीकार मत करो। घबरा जाओ तो भगवान् से प्रार्थना करो। चलते-फिरते कहो कि ‘हे नाथ! क्या करूँ! मेरेसे तो कुछ बनता नहीं!’ जितना संयोगजन्य सुख लिया है, उससे सवा गुणा अधिक दु:ख हो जाय तो संसारसे माना हुआ सम्बन्ध छूट जायगा। इसलिये संसारमें दु:खके समान उपकारी कोई है ही नहीं। पर वह दु:ख भीतरसे होना चाहिये। परिस्थितिजन्य दु:ख बाहरसे आता है। पुत्र नहीं है, धन नहीं है, मान नहीं है, यह नहीं है, वह नहीं है—ये सब बाहरके दु:ख हैं। ये नकली दु:ख हैं, असली दु:ख नहीं हैं। असली दु:ख भीतरसे होता है। अपनी वास्तविक स्थिति नहीं हो रही है, भगवान् से प्रेम नहीं हो रहा है, भगवान् के दर्शन नहीं हो रहे हैं, संसारका आश्रय नहीं छूट रहा है—इस प्रकार भीतरसे जो दु:ख होता है, जलन होती है, उसको भगवान् सह नहीं सकते।

भगवान् का स्वभाव है—‘वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि’ अर्थात् भगवान् भक्तके हितके लिये कठोरतामें तो वज्रसे भी कठोर हैं (वज्र पड़े तो पर्वतके भी टुकड़े-टुकड़े कर दे, ऐसे वज्रसे भी कठोर हैं), पर कोमलतामें वे पुष्पसे भी कोमल है! संतोंके लिये आया है—

संत हृदय नवनीत समाना।
कहा कबिन्ह परि कहै न जाना॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता।
पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥
(मानस ७। १२५। ४)

मक्खन तो अपने ही तापसे पिघल जाता है, पर सन्त दूसरेका दु:ख देखकर पिघल जाते हैं। जब सन्त दूसरेका दु:ख सह नहीं सकते, तब सन्तोंके इष्ट भगवान् दूसरेका दु:ख कैसे सह सकते हैं? भगवान् का ही तो स्वभाव सन्तोंमें आता है। भगवान् बड़े भारी शूरवीर हैं, परंतु दूसरेके असली दु:खको सहनेमें बड़े कायर हैं। इसमें उनकी शूरवीरता रद्दी हो जाती है। लोग क्या कहेंगे, क्या नहीं कहेंगे, प्रशंसा होगी या निन्दा होगी—इस बातको वे कुछ नहीं गिनते। गोपियाँ कहती हैं कि ‘लाला, तुम नाचो तो हम तुम्हें छाछ देंगी’ तो भगवान् नाचने लग जाते हैं। जिनकी स्फुरणामात्रसे अनन्त ब्रह्माण्ड उत्पन्न और लीन होते हैं, वे भगवान् छाछके लिये गोपियोंके आगे नाचने लग जाते हैं! ऐसा नहीं कि मेरी कितनी बेइज्जती होगी। वे भगवान् क्या आज बदल गये? यदि हम संसारका आश्रय न छूटनेसे दु:खी हो जायँ, तो क्या वे हमारा दु:ख सह सकते हैं? नहीं सह सकते। उनकी कृपासे हमारा संसारका आश्रय छूट जायगा।

नारायण! नारायण! नारायण!

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