विकारोंसे कैसे छूटें?
साधन करनेवालोंके मनमें एक बात गहरी बैठी हुई है कि हम सत्संगकी बातें सुनते तो हैं, पर वे काममें नहीं आतीं। इसपर आप खूब विचार करें। जिसको आप काममें आना मानते हैं, वह वास्तवमें आपकी भूल है। भूल यह है कि आप उस ज्ञानको असत् में लाना चाहते हैं, जबकि वास्तवमें आपको असत् से ऊँचा उठना है। सुननेमें तो आप असत् से ऊँचा उठते हैं, पर परीक्षा करते हैं असत् के साथ मिलकर। असत्-(शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि) में तो विकार होते ही रहते हैं और आप उन विकारोंको अपने सत्-स्वरूपमें मानते रहते हैं और कहते हैं कि बातें आचरणमें नहीं आतीं।
आप साक्षात् परमात्माके अंश हैं। आपमें कोई विकार नहीं है। परंतु आपने भूलसे असत् के साथ ‘मैं’ और ‘मेरा’ का सम्बन्ध मान लिया अर्थात् नाशवान् शरीरको तो ‘मैं’ मान लिया और नाशवान् पदार्थोंको ‘मेरा’ मान लिया। इस प्रकार असत् को ‘मैं’ और ‘मेरा’ माननेसे आपका असत् के साथ सम्बन्ध जुड़ गया। असत् कभी निर्विकार रह ही नहीं सकता। असत् के साथ सम्बन्ध जुड़नेसे आप असत् में होनेवाले विकारोंको अपनेमें मानते रहते हैं और कहते हैं कि सत्संगकी बातें काममें नहीं आतीं।
विकार तो आते हैं और चले जाते हैं, पर आप वैसे-के-वैसे ही रहते हैं। अत: आप अपने स्वरूपमें ही स्थित रहें, माने हुए मैं-मेरेपनमें स्थित न रहें। अपने स्वरूपमें स्थित रहनेसे आप सुख-दु:खमें सम अर्थात् निर्विकार हो जायँगे—‘समदु:खसुख: स्वस्थ:’ (गीता १४। २४)। इस प्रकार सत्संगमें सुनी बात आपके काममें आ जायगी।
जो स्वरूपमें स्थित न होकर प्रकृतिमें स्थित होता है, वही प्रकृतिजन्य गुणोंका, सुख-दु:खोंका भोक्ता बनता है—
पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
(गीता १३। २१)
पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥
(गीता१३।२०)
‘मैं’ और ‘मेरा’—यही प्रकृति है, माया है—‘मैं अरु मोर तोर तैं माया’ (मानस ३। १५। १)। इस मायाको पकड़कर कहते हैं कि बात काममें नहीं आती! मायाको पकड़नेसे तो विकार पैदा होंगे। इसलिये आप सावधान रहें। विकारोंको अपनेमें मत मानें।
जो कुछ दीखता है, वह सब प्रकृतिका है। अत: अपना कुछ नहीं है। अपने तो केवल प्रभु हैं, जो सदा हमारे साथ हैं। हमारा स्वरूप सत् है। सत् का कभी अभाव नहीं होता, उसमें कभी कोई कमी नहीं आती और कमी आये बिना हमारेमें कोई चाहना नहीं होती। अत: अपने लिये कुछ नहीं चाहिये। अपने लिये कुछ करना भी नहीं है। आपकी स्वाभाविक स्थिति सत् में है और असत् में स्वाभाविक क्रिया हो रही है। उन क्रियाओंके साथ हम मिल जाते हैं और उन क्रियाओंको अपनेमें मिला लेते हैं—यह गलती होती है। इसलिये हमारा यह विवेक साफ-साफ रहे कि हमारा कुछ नहीं है, हमारेको कुछ नहीं चाहिये और हमारेको कुछ नहीं करना है। पुराने अभ्याससे अगर असत् के साथ अपना सम्बन्ध दीख भी जाय तो थोड़ा ठहरकर विचार करें कि यह तो जाननेमें आनेवाला है और मैं इसको जाननेवाला हूँ। ‘जाननेमें आनेवाले’ से ‘जाननेवाला’ सर्वथा अलग होता है। हम खम्भेको देखते हैं तो खम्भा हमारेमें थोड़े ही आ जायगा! खम्भा तो जाननेमें आनेवाली चीज है। जाननेमें आनेवाली चीज जाननेवालोंमें नहीं होती।
जिसको यह कहते हैं, वह ‘मैं’ नहीं हो सकता—यह नियम है। ‘यह’ तो ‘यह’ ही रहेगा। भगवान् ने शरीरको ‘यह’ कहा है—‘इदं शरीरम्’ (गीता १३। १)। अत: यह शरीर ‘मैं’ कैसे हो सकता है? शरीर ‘मेरा’ भी नहीं हो सकता; क्योंकि हम स्वयं भगवान् के अंश हैं। ‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५। ७) और शरीर, इन्द्रियाँ आदि प्रकृतिके अंश हैं—‘मन: षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि’ (गीता १५। ७)। अत: शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ मानना भूल है। जितने भी विकार आते हैं, वे सब मनमें, बुद्धिमें, इन्द्रियोंमें ही आते हैं। स्वयंमें विकार कभी आता ही नहीं। विकार आता है और चला जाता है—इसको आप जानते हो। आने-जानेवाला विकार आपमें कैसे आ सकता है? इस बातको पक्का कर लो कि मैं रहनेवाला हूँ और ये विकार आने-जानेवाले हैं। विकारोंको आने-जानेवाले और अनित्य समझकर उनको सह लो अर्थात् निर्विकार रहो—‘आगमापायिनो ऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व’ (गीता २। १४)।
यह नियम है कि संसारके साथ मिलनेसे संसारका ज्ञान नहीं होता और परमात्मासे अलग रहनेपर परमात्माका ज्ञान नहीं होता। संसारसे अलग होनेपर ही संसारका ज्ञान होगा और परमात्मासे अभिन्न होनेपर ही परमात्माका ज्ञान होगा। इसलिये यदि असत् के साथ मिल जाओगे तो न सत् का ज्ञान होगा और न असत् का ज्ञान होगा। कारण यह है कि वास्तवमें संसारसे हमारी भिन्नता है और परमात्मासे हमारी अभिन्नता है।
श्रोता—अन्त:करण शुद्ध होनेसे तो ज्ञान हो जायगा?
स्वामीजी—तो अन्त:करण शुद्ध कर लो, मना कौन करता है? परन्तु भाई, शुद्ध करनेसे अन्त:करण इतना जल्दी शुद्ध नहीं होगा, जितना जल्दी सम्बन्ध-विच्छेद करनेसे शुद्ध होगा। कारण कि असत् (अन्त:करण)-की सत्ता मान करके आप उसको शुद्ध करना चाहोगे तो उसमें बहुत देरी लगेगी और वह होगा भी नहीं। यदि असत् की सत्ता न मानकर उससे सम्बन्ध-विच्छेद कर लो तो बहुत जल्दी काम बनेगा।
भगवान् ने कहा है—‘इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते’ (गीता १३। १) अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण—ये तीनों ही शरीर ‘इदम्’ होनेसे अपनेसे अलग हैं और ‘क्षेत्र’ नामसे कहे जाते हैं। जो इनको जानता है, वह ‘क्षेत्रज्ञ’ नामसे कहा जाता है—‘एतद्यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्विद:’ (गीता १३। १)। उस क्षेत्रज्ञकी दृष्टि क्षेत्रकी तरफ न होकर भगवान् की तरफ हो जाय—‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि’ (१३। २)। भगवान् की तरफ दृष्टि होनेसे जितनी शुद्धि होगी, उतनी अन्त:करणको शुद्ध करनेकी चेष्टासे शुद्धि नहीं होगी। आप परमात्माके साथ जितने अभिन्न रहोगे, उतनी ही आपमें स्वाभाविक शुद्धि आयेगी। मनमें, इन्द्रियोंमें, शरीरमें, व्यवहारमें, सबमें स्वत: ही शुद्धि आयेगी। कारण कि आपने सत् के साथ अभिन्नता कर ली, मूल चीज पकड़ ली। अब इसमें कठिनता क्या है? बहुत सीधी-सरल बात है।
आप आने-जानेवाले असत् पदार्थोंके साथ सम्बन्ध न जोड़कर अपने सत् स्वरूपमें स्थित रहो। जब आप असत् पदार्थोंसे सुख लेने लग जाते हो, तब असत् का संग हो जाता है। असत् का संग करनेके बाद आप अन्त:करणको शुद्ध करनेके लिये जोर लगाते हैं और समझते हैं कि हम ठीक कर रहे हैं—यही उलझन है, यही असमर्थता है। जोर लगानेपर भी जब काम नहीं बनता, तब हताश हो जाते हैं कि भाई, हमारेसे तो यह काम नहीं बनता। क्यों नहीं बनता कि आपने असत् को पकड़ लिया। असत् को न पकड़ें तो अपना स्वरूप बना-बनाया, ज्यों-का-त्यों ही है।
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि प्रकृतिमें स्थित हैं—‘मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि’ (गीता १५। ७)। इनमें आप उस सत् को लाना चाहते हैं और जब वह आता नहीं, तब कहते हैं कि सत्संगकी बात हमारे व्यवहारमें नहीं आती, हमारे आचरणमें नहीं आती! असत् (अन्त:करण) को अपना मानकर उसे शुद्ध करना चाहोगे तो कैसे शुद्ध होगा? उसको अपना मानना ही अशुद्धि है। ममता ही मल है—‘ममता मल जरि जाइ’ (मानस ७। ११७क)। मलको लगाकर शुद्ध करना चाहते हो तो कैसे शुद्ध होगा?
ये बातें सुनकर आपमें हिम्मत आनी चाहिये कि अब हम यह भूल नहीं करेंगे; क्योंकि अब हमने इसको ठीक समझ लिया। असत् को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान लिया—मूलमें यहाँसे भूल हुई। यही मूल भूल है। इस भूलको मिटाकर अपने निर्विकार स्वरूपमें स्थित हो जाओ। जबतक भूल न मिटे, तबतक चैन नहीं आना चाहिये। छोटा बालक हर समय अपनी माँकी गोदीमें रहना चाहता है। गोदीसे नीचे उतरते ही वह रोने लग जाता है। आप भी हर समय सत् (भगवान्) की गोदीमें रहो। असत् में जाते ही रोने लग जाओ कि अरे! कहाँ आ पड़े! हम तो गोदीमें ही रहेंगे। फिर असत् का सम्बन्ध सुगमतासे छूट जायगा।
नारायण! नारायण! नारायण!