सुख-लोलुपताको मिटानेका उपाय
अगर आप संयोगजन्य (सांसारिक) सुखकी आसक्ति मिटा दें तो अभी परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जायगा। संयोगजन्य सुखमें जो आकर्षण है—यही खास बीमारी है। विचार करनेसे यह बात ठीक समझमें आती है कि यह संयोगजन्य सुखकी लालसा ही परमात्मप्राप्तिमें खास बाधा है। संयोगजन्य अर्थात् पदार्थों, व्यक्तियों, परिस्थितियोंके सम्बन्धसे पैदा होनेवाला सुख नित्य-निरन्तर कैसे रह सकता है? कारण कि जो चीज पैदा होती है, वह नष्ट भी होती है। अगर संयोगसे मिलनेवाला सुख असह्य हो जाय, इस कृत्रिम सुखका त्याग कर दिया जाय, तो ‘सहज सुख’ है, वह प्रकट हो जायगा; क्योंकि यह स्वयं सहज सुख-स्वरूप है—
ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुखरासी॥
(मानस ७। ११७। १)
जबतक संयोगजन्य सुखका त्याग नहीं करोगे। तबतक ‘हमारा सम्बन्ध संसारसे नहीं है, हमारा सम्बन्ध परमात्मासे है’— यह बात सुननेपर भी काममें नहीं आयेगी। ऐसे ही ‘संसार नाशवान् है, क्षणभंगुर है’—ऐसी बातें भले ही सुन लो, याद कर लो, पर अनुभव नहीं होगा। संसार असत्य है—ऐसा कहनेसे, सीख लेनेसे, याद करनेसे संसार छूटता नहीं। तात्पर्य है कि जबतक सांसारिक संयोगजन्य सुखकी आसक्ति रहेगी तबतक संसारकी असत्यताका अनुभव नहीं होगा। कारण कि आप संयोगजन्य सुखको सत्य मानकर ही उसको लेनेकी इच्छा करते हो, फिर संसारकी असत्यताका अनुभव कैसे कर सकते हो?
इस बातका प्रत्यक्ष पता है कि संयोगजन्य सुख लेनेसे दु:ख भोगना ही पड़ता है। ऐसा कोई प्राणी हो ही नहीं सकता, जो संयोगजन्य सुख तो भोगता रहे, पर उसको दु:ख न भोगना पड़े। वह दु:खसे बच जाय—यह असम्भव है। फिर भी मनुष्य संयोगजन्य सुख क्यों नहीं छोड़ता? वर्तमानमें संयोगसे जो सुख होता है, उसका जितना आकर्षण है, प्रियता है, विश्वास है, भरोसा है, उतना उसके परिणामपर विचार नहीं है। सुखभोगके परिणाममें क्या होगा—इसका वह विचार ही नहीं करता। उसके विचारमें आता भी है तो वह आँख मीच लेता है, उसको जानना नहीं चाहता। इसलिये भगवान् ने राजस सुखका वर्णन करते हुए बताया कि संयोगजन्य सुख आरम्भमें अमृतकी तरह और परिणाममें विषकी तरह होता है—‘विषयेन्द्रिय-संयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्। परिणामे विषमिव....’ (गीता१८। ३८)। इसके परिणामका विचार मनुष्य ही कर सकता है, पशु-पक्षी आदिमें इसका विचार करनेकी शक्ति ही नहीं है। देवतालोग तो सुख भोगनेके उद्देश्यसे ही स्वर्गमें रहते हैं, वे इसके परिणामको क्या जानेंगे? मनुष्य-शरीर केवल परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मिला है; अत: इसमें परिणामका विचार करनेकी योग्यता है। इसलिये मनुष्यको हरदम संयोगजन्य सुखके परिणामकी तरफ दृष्टि रखनी चाहिये। हरदम सोचना चाहिये कि इसका परिणाम क्या होगा? सांसारिक सुखका परिमाण दु:ख होगा ही। भगवान् ने गीतामें कहा है—‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते’ (गीता ५।२२) अर्थात् जितने भी सम्बन्धजन्य सुख हैं, वे सब-के-सब दु:खोंके कारण हैं। संसारमें जितने भी दु:ख होते हैं—नरक होते हैं, कैद होती है, अपयश होता है, अपमान होता है, रोग होते हैं, शोक होता है, चिन्ता होती है, व्याकुलता होती है, घबराहट होती है, बेचैनी होती है—ये सब-के-सब संयोगजन्य सुखकी लोलुपताका ही नतीजा है।
सुख इतना बाधक नहीं है, जितनी सुखकी लोलुपता बाधक है। सुख मिल जाय, सुख ले लूँ—यह इच्छा जितनी बाधक है, उतना सुख बाधक नहीं है। कारण कि सुख बेचारा आता है और चला जाता है, पर उसकी लोलुपता ज्यों-की-त्यों बनी रहती है। सुख नहीं है तो भी लोलुपता रहती है। सुख भोगते समय भी लोलुपता रहती है और सुख चला जाय तो भी लोलुपता रहती है। सुखमें जो खिंचाव रहता है, प्रियता रहती है, यही वास्तवमें बीमारी है। इसको मिटानेका सरल और श्रेष्ठ उपाय यह है कि दूसरोंको सुख कैसे हो—इसकी लगन लग जाय। आप कृपा करके आज ही इस बातको धारण कर लें कि दूसरोंको सुख कैसे पहुँचे, दूसरोंका भला कैसे हो, दूसरोंका हित कैसे हो, दूसरोंको आराम कैसे मिले। हरेक काममें यह विचार करें कि दूसरोंको सुख कैसे हो। अगर भीतरसे यह लगन लग जायगी कि दूसरोंको सुख कैसे हो तो अपने सुखकी इच्छा छूट जायगी।
अपनी सुख-लोलुपताको मिटानेके लिये दूसरोंको सुख पहुँचाना है, गायोंको सुख पहुँचाना है, गरीबोंको सुख पहुँचाना है, सबको सुख पहुँचाना है। अपनी सुख-लोलुपताको मिटानेके उद्देश्यसे अगर सेवा की जाय तो मेरा विश्वास है कि जरूर लाभ होगा, करके देख लो। आजकल सेवा करनेवालोंमें भी सच्ची लगनसे सेवा करनेवाले मनुष्य बहुत कम देखनेमें आते हैं। वे सेवा तो करते हैं, पर उसमें दिखावटीपन रहता है। भीतरसे यह लगन नहीं होती कि दूसरेको सुख कैसे पहुँचे, दूसरेका हित कैसे हो। गीता कहती है कि जो प्राणिमात्रके हितमें रत रहते हैं, वे भगवान् को प्राप्त होते हैं—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:’ (१२। ४)।
अब दूसरेकी सेवा किस रीतिसे करें, यह बताता हूँ। दूसरेकी सेवा करते समय अपने मनकी प्रधानता बिलकुल न रखें, अपना आग्रह बिलकुल न रखें। केवल दूसरेके मनकी तरफ देखें कि वे कैसे राजी हों। किस तरहसे उनको सुख पहुँचे। हमें तो कई वर्षोंके बाद यह बात पकड़में आयी कि ‘मेरे मनकी बात पूरी हो’—यही कामना है। इसलिये अपनी मनमानी छोड़कर दूसरेकी मनमानी करें। जो न्याययुक्त हो, शास्त्र-सम्मत हो, अपनी सामर्थ्यके अनुरूप हो—ऐसी दूसरेकी मनकी बात पूरी करें, तो आपमें अपनी कामनाको मिटानेकी सामर्थ्य आ जायगी।
जहाँ रहो, जिस क्षेत्रमें रहो केवल यह लगन रखो कि दूसरेको सुख कैसे मिले, दूसरेका हित कैसे हो। इस बातका खयाल रखो कि किसीको भी मेरे द्वारा कष्ट न पहुँचे, सुख पहुँचे। जैसे गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा—‘कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।’ (मानस ७। १३० ख); कामीको जैसे स्त्री प्यारी लगती है और लोभीको जैसे पैसा प्यारा लगता है, ऐसे ही आपको दूसरोंका हित प्यारा लगने लगे। फिर देखो तमाशा, चट काम होगा। वर्षोंतक विचार और चिन्तन करनेपर जो बात मिली है, वह बात बतायी है आपको!
नारायण! नारायण! नारायण!