बाल्यावस्थाकी चर्चा
प्रवचन—मिति ज्येष्ठकृष्ण १४, संवत् १९९५, दिनांक २८। ५। ३८, कर्णवास
किसी चीजकी प्राप्तिमें तो मनुष्यकी परतन्त्रता है, किन्तु त्यागमें उसकी स्वतन्त्रता है, क्योंकि वह चाहे जिस चीजको त्याग सकता है। अच्छे काम बननेमें आते हैं तो समझना चाहिये कि प्रभुकी दया है। हमारे द्वारा जो चोरी, झूठ, कपट इत्यादि पाप होते हैं, वे अपने स्वभावके दोषसे होते हैं। पापका उसे दण्ड मिलता है और पुण्यसे मोक्षपद मिलता है। यह जो प्रभुका कानून है, वह हमें बचा रहा है। ईश्वरका कानून है कि झूठ मत बोलो, कपट मत करो। इससे यदि हम बचते हैं तो ईश्वरकी ही दया है और यदि पुण्य करते हैं तो भी उसीकी दया है। स्वभाव अच्छे कर्ममें सहायक है। ईश्वर कहते हैं कि जो अच्छे कर्म करता है, उसका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ, किन्तु ईश्वरने यह कहीं नहीं कहा कि जो झूठ, कपट इत्यादि करता है, उसको मैं सहायता देता हूँ, अपितु ईश्वर उसे दण्ड देते हैं, क्योंकि अधर्मका प्रचार तो ईश्वर करते नहीं हैं। ईश्वर दण्डका भय दिखाकर रोक देते हैं, किन्तु जो नहीं मानता है, उसे वह दण्ड देते हैं।
कोई विद्वान् पण्डित है, क्या वह बुरा नहीं होता? विद्या पढ़नेसे दोनों ही होते हैं, कोई सदाचारी होता है, कोई दुराचारी भी होता है। भगवान्का एक बड़ा भारी कानून है कि जो मेरे हाथसे मरेगा, वह मोक्षपदको प्राप्त करेगा। जो भगवान्का ध्यान करता हुआ, जप करता हुआ मरता है, वह मोक्षपदको प्राप्त करता है। इसलिये भगवान् न्यायकारी भी हैं और दयालु भी हैं। न्यायकारी इसलिये हैं कि जो ईश्वरके कानूनके अनुसार चलता है उसको मोक्षपद देते हैं। भगवान्ने यह कितना सरल कानून बना दिया कि चाहे कितना भी पापी क्यों न हो, वह यदि अन्त समयमें भगवान्का जप करते हुए मरेगा तो मोक्षपदको प्राप्त करेगा। जो यह जान ले कि भगवान् दयालु हैं, उसकी भी मुक्ति हो जाती है।
विषयोंके चिन्तनमें सुखबुद्धि है। जिसमें सुखबुद्धि होती है, उसका चिन्तन ज्यादा है। ऐसा समझ ले कि भगवान् सुखके सागर हैं, सारी दुनियाका सुख उस सुखसागरकी एक बूँदके समान भी नहीं है। ऐसा समझनेसे उसका चिन्तन अधिक होता है।
ध्यानमें भी मनुष्यको सुखका आस्वादन लेना चाहिये। किसीमें भी यदि सुखबोध होता है तो हमारा मन उससे हटना नहीं चाहता, उसमें फँस जाता है। हम जितने सुखका अनुमान कर सकते हैं, उतने सुखका भगवान्में अनुमान कर लेना चाहिये, जिससे अपने-आप ही हमारा मन परमात्मामें फँस जाय। जिस प्रकार लोभीको रुपयोंका ही सोच रहता है, उसी प्रकार निरन्तर परमेश्वरका चिन्तन रहना चाहिये। रुपये तो जड़ हैं। यदि यह हमारे दिलमें जँच जाय कि सबसे बढ़कर भगवान्का चिन्तन है तो फिर हमारा मन किसी दूसरी तरफ नहीं जा सकता। भगवान्ने कहा है—
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(गीता९।२२)
जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।
भगवान् निरन्तर चिन्तन करनेसे मिलते हैं। जैसे एक पत्थरकी खान है और दूसरी रत्नोंकी तो फिर क्या बुद्धिमान् मनुष्य पत्थरकी खानको खोदेगा? इसी प्रकार परमात्माको छोड़कर जो मनुष्य संसारमें विचरता है, वह महामूर्ख है। विषयोंके उपभोगकालमें हमें सुखकी प्रतीति होती है और यदि हम भगवान्में रमण करने लगेंगे तो फिर हम भोगोंको विष्ठासे भी अधिक बुरा समझेंगे। पूर्वके पापोंके कारण भगवान्का नाम अच्छा नहीं लगता, किन्तु सत्संग, भजन, ध्यान करनेसे हमें रस आने लगेगा। भगवान् कहते हैं—
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥
(गीता१५।१९)
जो मुझ परमात्माको पुरुषोत्तम जानता है वह सब प्रकारसे फिर मेरा ही भजन करता है। हम सबसे बढ़कर भगवान्को नहीं समझते, यदि समझते तो फिर भजते क्यों नहीं? यह समझ लें कि परमात्मासे बढ़कर कुछ नहीं है तो फिर हम परमात्माको ही भजेंगे। फिर एक क्षण भी स्मरण नहीं छूटेगा, किन्तु हम कौड़ीके बराबर भी भजनको नहीं समझते। भजन तो अमूल्य है। जैसे यहाँ लड्डू पड़े हैं, कोई कहे कि देखते रहना। हम माला फेर रहे हैं। बन्दर आया, हमने लाठीसे उसको भगा दिया। इस प्रकार कई बार किया। हम तो बन्दरका ध्यान करते हैं, यदि हम यह समझ लें कि नामजपके समान कुछ नहीं है तो फिर हम लड्डुओंकी तरफ देखेंगे ही नहीं।
मैं बालक था, तब महाभारत पढ़ा करता था। तब मेरी आयु १५ वर्षकी थी। महाभारतके वनपर्वमें युधिष्ठिरने सूर्य भगवान्की उपासना की थी। सूर्य भगवान् प्रसन्न हुए। युधिष्ठिरजीने कहा मुझे धर्मकी रक्षाके लिये कोई वस्तु दीजिये, क्योंकि मेरे यहाँ बहुत-से साधु भोजन करनेके लिये आते हैं।
तब मेरे मनमें आयी कि मैं भी सूर्य भगवान्की उपासना करूँ और सूर्यसे मैंने यही वरदान चाहा कि यदि मेरी दृष्टि किसी स्त्रीपर चली जाय तो मेरा शरीर जल जाय। और जितने पाप हैं उनमें सबसे बड़ा पाप यह है। मुझे लोकका भय और सूर्यका भय रहता था। तब मैंने ऐसा अभ्यास किया कि यह माताके समान है। जब स्त्रीके सौन्दर्यपर दृष्टि जाती तो विचार करता कि यह पाजीपन है, इसलिये मैंने स्त्रीका मुख देखना छोड़ दिया, किन्तु फिर स्तनोंकी तरफ दृष्टि जाने लगी, तब मैं खूब पश्चात्ताप करता और उसको देखना भी छोड़ दिया। जब हाथोंके देखनेसे भी बुरी बुद्धि होती तो मैंने उसे भी छोड़ दिया। फिर यह मालूम हो जाय कि यहाँ स्त्री है, सिर्फ उसके चरणोंको प्रणाम कर लेता, किन्तु जब स्त्रीकी बोली भी सुनता, तब मैंने सोचा यह भी ठीक नहीं। फिर इसको भी छोड़ दिया। फिर यही मालूम पड़ा कि स्त्री ही मनुष्यके लिये बड़ी घातक है, इसलिये प्रतिज्ञाकी तरह यह धारणा करनी चाहिये कि किसी भी स्त्रीसे किसी प्रकारका संसर्ग नहीं जोड़ूँगा। यदि हृदयमें मानसिक दोष भी हो जाय तो पश्चात्ताप करना चाहिये। यह समझाना चाहिये कि इससे बेइज्जती होगी, नरक मिलेगा, भस्म हो जायँगे, इस प्रकार मैंने दस वर्षतक इस नियमका पालन किया। इससे मुझे यह भी लाभ मिला कि मैं यदि आँख खोलकर देखता तो भगवान् सूर्य एक बित्ता दूर दीखते और बन्द करनेसे चारों ओर प्रकाश-ही-प्रकाश दीखता। मेरी बहुत छोटी आयु थी, शायद बारह वर्षकी थी। मैं अपनी दूकानपर मोठ खा रहा था। पिताजी आ गये और पूछा खाया, मैंने कहा नहीं, तब उन्होंने मेरे एक थप्पड़ मारी और बोले कभी भी झूठ नहीं बोलना चाहिये। उस समय उन्होंने मुझे एक छोटी-सी आख्यायिका सुनायी। एक गाँवमें एक ग्वाला रहता था। वह जंगलमें गायोंको चराता था। एक दिन उसके मनमें आ गयी कि कोई खेल करूँ। वह एक टीलेपर खड़ा हो गया और चिल्लाने लगा, भेड़िया आया मुझे खा रहा है। तब बहुतसे लोग घरका काम छोड़कर आ पहुँचे। उसने कहा मैंने झूठ-मूठ ही कह दिया। दूसरे दिन वास्तवमें एक भेड़िया आ गया। वह खूब चिल्लाया, किन्तु कोई नहीं आया और अन्तमें भेड़िया उसको खा गया। सत्यके विषयमें मेरे पिताजीसे मुझे यह शिक्षा मिली। फिर भी आदतसे झूठ बोल देता। लड़कोंने कहा आज वहाँ खेलेंगे। तब मैंने सोचा कि पिताजी तो आज्ञा देंगे नहीं। तो मैं कह देता कि शौचकी इच्छा है तो उन्होंने कहा मैं साथ चलूँगा। इस प्रकार मैं प्राय: झूठ नहीं बोल पाता। फिर भी ग्राहकको कुछ चतुराईसे झूठ बोल देता। वह यदि पूछता कि इस कपड़ेमें मांडी ज्यादा है, मैं कुछ चतुराईसे सच्ची बात कह देता कि सूतमें मासाभर मांड नहीं है। वह उसका दूसरा अर्थ निकाल लेता, फिर यह भी छोड़ दिया। मेरे पिताजी यदि ज्यादा मूल्य ले लेते तो फिर ग्लानि आ जाती और ज्यादा दाम वापस दे देते। यह देखकर मेरे पिताजीके अनुसार मैंने भी चीजका एक दाम बोलना शुरू किया, किन्तु पिताजीने दो भावके लिये कहा। फिर मैंने दीवालीसे दो भाव शुरू कर दिये, किन्तु एक साल बाद पिताजीकी आज्ञा लेकर मैं एक भाव बोल देता, फिर मैं १८ वर्षका यहाँ आया। २० वर्षका होनेपर देश गया फिर मैं एक ही दाम कहता। पिताजी दो दाम कहते, मैं हरिकृष्णसे कहता कि एक ही दाम बोलना चाहिये। हरिकृष्णने कहा पिताजीकी आज्ञा मानूँ अथवा तेरी। जब पिताजीका शरीर शान्त हुआ तब विचार किया अब एक ही दाम बोलेंगे। तब किसान लोग हँसीमें कहते कि तुम्हारे पिताजी दो दाम बोलते और तुम एक दाम बोलते हो, किन्तु हम सोचते हैं कि तुम्हारी सन्तान लिखकर बतलायेगी, इस प्रकार हँसी करते थे। हम वहाँ कपड़ेका काम करते थे। लोग हमारा विश्वास करने लगे। फिर संवत् १९७३में बाँकुड़ा चले आये, बाँकुड़ामें व्यापार प्रारम्भ कर दिया। इसी प्रकार लोभको मैं बहुत बुरी चीज समझता था। यह तो पिताजीसे शिक्षा मिली थी कि किसीसे धोखाबाजी नहीं करनी चाहिये। उन्होंने अपनी एक घटना बतलायी। एक बार उन्होंने अनाज लिया। तौलनेवालेने अधिक तौल दिया और उन्होंने घी भी लिया। एक दिन कुत्तेने थोड़ा घी खा लिया। जब पिताजीने हिसाब लगाया तो पता चला कि मैंने जितना अधिक अनाज लिया है उतने ही मूल्यका घी कुत्तेने खा लिया है, तब उनको बहुत ग्लानि हो गयी, वह हमें शिक्षा देते थे। हमारे पिताजीके धन कमानेमें ग्लानि थी, किन्तु हमारेमें उतना त्याग नहीं था। हम जितना अधिक मिले, यह चेष्टा करते, किन्तु पाप, कपट, झूठका बचाव करते थे। बचपनसे मेरेमें क्रोध ज्यादा नहीं था। मेरेमें क्रोधके लिये एक तरहकी सहनशक्ति थी, झूठकी भी आदत नहीं थी, किन्तु काम और लोभका दोष था। मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाकी भी इच्छा थी। वर्तमानमें कुछ कहा नहीं जा सकता। जब माँजी डाँटतीं और क्रोध करतीं तो मैं हँस देता था। कभी अपने मनके अनुसार करता और कभी उनके आज्ञानुसार करता। फिर अन्तमें यही सोचा कि उन्हींके आज्ञानुसार करूँ। उनको समझाकर कर देता था। जब मनके विपरीत बात आती तो मैं कई प्रकारसे क्रोधसे घृणा करता। क्रोध करना हिंसा है, क्रोधसे भगवान् नाराज होते हैं, झूठ भी बोला जाता है, इसलिये क्रोधसे बचना चाहिये। यह सोचता रहता। कभी-कभी क्रोध आ भी जाता और कभी-कभी सहन कर लेता, हँस लेता। कभी-कभी किसीको बनावटी क्रोधसे धमका देता। सब भगवान् ही हैं, फिर क्रोध किसपर करें, यह सोचता। कभी-कभी आ जाता तो हे नाथ! हे नाथ! इस प्रकार करने लगता तो फिर वह भाग जाता। यह हथियार उस समय काममें लेते, जब किसी प्रकारसे काम नहीं चलता। विचारके द्वारा क्रोधको रोका करता। महीनेमें शायद एक-दो बार भले ही क्रोध आ जाता था। कभी-कभी बनावटी क्रोधसे ही असली हो जाता था, इसलिये क्रोधके नाशके लिये यह सबसे बड़ा हथियार है कि सबको भगवान्का स्वरूप माने फिर किसपर क्रोध आयेगा? हे नाथ! हे नाथ! यह भी बहुत बड़ा हथियार है। लोभके लिये यह बात है कि पापके रुपयोंको मलके समान समझना चाहिये। चाहे प्राण चले जायँ, किन्तु अन्यायसे पैसे पैदा नहीं करना चाहिये। रुपये अनर्थके हेतु हैं, इसलिये रुपयोंकी वृद्धि नहीं चाहनी चाहिये। लोभकी वृत्ति उचित काममें धन खर्च नहीं होने देती और अन्यायसे पैसा पैदा करती है, इन सबसे बचनेके उपाय ये हैं—जप, ध्यान, सत्संग और गीताका अभ्यास।