सनातन धर्मकी विशेषता
प्रवचन—मिति ज्येष्ठकृष्ण १४, सं १९८५, दिनांक २८। ५। १९३८, सायं ५.३० बजे, कर्णवास
हमलोगोंका बड़ा ही अहोभाग्य है कि हमें मनुष्यका शरीर मिला है, यह शरीर विषय-भोगोंके लिये नहीं मिला है।
एहि तन कर फल बिषय न भाई।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
गीतामें भगवान्ने कहा है—
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते॥
(गीता९।२१)
वे उस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्गके साधनरूप तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मका आश्रय लेनेवाले और भोगोंकी कामनावाले पुरुष बार-बार आवागमनको प्राप्त होते हैं, अर्थात् पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आते हैं।
यह हमारा भारतवर्ष सबसे श्रेष्ठ है, फिर वैदिक सनातन धर्ममें हमलोगोंका जन्म हुआ। वास्तवमें यही असली धर्म है, अन्य तो सब मत हैं। सबकी जड़ यही है, इसीसे सब मत-मतान्तर निकले हैं। ईसाका कथन है कि जो कोई संसारमें हैं, वे हमारे भाई हैं, किन्तु हमारा शास्त्र कहता है कि वे सब हमारी आत्मा हैं। भगवान् उपदेश देते हैं—
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥
(गीता६।२९)
सर्वव्यापी अनन्त चेतनमें एकीभावसे स्थितिरूप योगसे युक्त आत्मावाला तथा सबमें समभावसे देखनेवाला योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें स्थित और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें कल्पित देखता है।
भाई-भाई माननेसे तो लड़ाई हो सकती है, किन्तु आत्मा माननेसे लड़ाई नहीं हो सकती। तुलसीदासजी कहते हैं—
सीय राममय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
सबको अपनी आत्माके तुल्य समझो, यह बात किसी मतमें नहीं मिलती। सारे देशवाले कहते हैं कि अपने देशकी उन्नति करो, किन्तु हमारा शास्त्र क्या कहता है।
माता च कमलादेवी पिता देवो जनार्दन:।
बान्धवा विष्णुभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्॥
लक्ष्मीदेवी हमारी माता, भगवान् विष्णु हमारे पिता, विष्णुभक्त हमारे बन्धु तथा तीनों लोक हमारा स्वदेश है।
हमारे शास्त्रोंमें पञ्चमहायज्ञ बतलाये गये हैं। जिसमें दूसरोंको भोजन मिले वह यज्ञ है और जिससे सारे संसारको भोजन मिले वह महायज्ञ है। भगवान्ने कहा है—
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥
(गीता ३। १३)
यज्ञसे बचे हुए अन्नको खानेवाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीरपोषण करनेके लिये ही अन्न पकाते हैं, वे तो पापको ही खाते हैं। फिर उसका परिणाम क्या है?
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम॥
(गीता४।३१)
हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं और यज्ञ न करनेवाले पुरुषके लिये तो यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है?
ऐसा धर्म अन्यत्र कहींपर नहीं है। हमारा धर्म बड़ा ही अच्छा है। भगवान् कहते हैं सारे भूतप्राणियोंमें निर्वैर हो जाओ—
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: सङ्गवर्जित:।
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव॥
(गीता ११। ५५)
हे अर्जुन! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको करनेवाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूतप्राणियोंमें वैरभावसे रहित है—वह अनन्यभक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।
जिसका किसीमें वैर नहीं है वह भगवान्का प्यारा है। एकके साथमें भी यदि वैर है तो आपका कल्याण नहीं हो सकता, क्योंकि सबमें परमेश्वर विद्यमान है और हम परमेश्वरकी उपासना करते हैं। एकके साथ भी यदि वैर है तो मुक्तिमें बाधा है। यदि कोई किसीको खूब अच्छी तरहसे पूजता है और एक अंगुलीके आग लगाता है तो वे प्रसन्न नहीं होते। ऐसे ही भगवान्को हम पूजें और उनकी अंगुलीके आग लगावें तो भगवान् प्रसन्न नहीं होते। अंगुली जीव है, क्योंकि भगवान्ने स्वयं कहा है—‘ममैवांशो जीवलोके’ इस लोकके सारे जीव मेरे ही अंश हैं। हमारे धर्ममें कितनी उदारता है कि तर्पणमें अपने वैरीको भी तर्पण देते हैं। ऋषियज्ञमें भी हम प्रार्थना करते हैं कि ‘पश्येम शरद: शतम्’ इत्यादि। यहाँ एकवचन नहीं है, बहुवचन है। जितने मत-मतान्तर हैं, उनमें क्या कोई सबके हितके लिये प्रार्थना करता है? इसी प्रकार गायत्री मंत्रमें भी बहुवचन है। बलिवैश्वदेवमें भी हम सारी दुनियाको भोजन कराके भोजन करते हैं और फलकी इच्छा नहीं रखते हैं। बलिवैश्वदेवमें कह रहे हैं ‘ॐ धात्रे नम: इदं धात्रे न मम।’ यहाँ ‘न मम’ लिखा है। प्रत्येक आहुतिमें त्याग है। कितनी उदारता है, कितना ऊँचा भाव है। निष्कामभावका फल सनातन ब्रह्मकी प्राप्ति है। बलिवैश्वदेव करनेमें केवल तीन, चार मिनट लगते हैं, इससे भोजन पवित्र हो जाता है। इसी प्रकार अग्निहोत्रमें त्याग है। सबमें त्याग-ही-त्याग है। अतिथि-सेवासे ही मनुष्य परमपदकी प्राप्ति कर सकता है। सूर्य भगवान्को जो तीन अञ्जलि दी जाती है, वे ही वर्षारूपमें सबको तृप्त करती हैं। माताको, पिताको, आचार्यको, अतिथिको, हमारे शास्त्रोंमें देवता माना है—मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव। जो अतिथि-सेवा करता है, उसके घर भगवान् कभी-न-कभी अतिथिके रूपमें आ सकते हैं। अतिथि-सत्कारका बड़ा ही माहात्म्य है। भगवान् कहते हैं—
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥
(गीता८।१३)
जो पुरुष ‘ॐ’ इस एक अक्षररूप ब्रह्मको उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्मका चिन्तन करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह पुरुष परमगतिको प्राप्त होता है।
ब्रह्मलोकतकके जीव वापस आ सकते हैं, किन्तु उस परमपदको गया हुआ कभी नहीं आता। जो नित्य-प्रति सूर्यकी उपासना करता है, उसको सूर्यदेव परमधाममें पहुँचा देते हैं। जो अग्निदेवकी उपासना करते हैं, उनको अग्निदेव परमधाममें पहुँचा देते हैं। इससे यह समझना चाहिये कि जितने ये यज्ञ हैं, वे यदि निष्कामभावसे किये गये तो परमधाम और यदि सकामभावसे किया गया तो इच्छित वस्तुको प्राप्त कराते हैं। अपना धर्म गुणरहित हो तो भी कल्याणकारक है क्योंकि भगवान्ने कहा है—
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥
(गीता३।३५)
अच्छी प्रकार आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है।
अपने धर्मका पालन करता हुआ मनुष्य यदि मर जाय तो बड़ी अच्छी बात है। इसलिये हमको निष्कामभावसे अपने धर्मका पालन कटिबद्ध होकर करना चाहिये और साथमें ईश्वरकी भक्ति करनी चाहिये। भगवान् कहते हैं—
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥
(गीता८।७)
इसलिये हे अर्जुन! तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त होकर तू नि:सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।