चिन्ता-शोक कैसे मिटे?
प्रवचन—दिनाङ्क ६-४-१९३८, कर्णवास
दु:ख तो मानना ही नहीं चाहिये। चिन्ता, भय, शोकमें प्रारब्ध हेतु नहीं है, मूर्खता ही हेतु है। ‘अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्’ शोक करना मूर्खता ही है। स्त्री-पुत्र होना-मरना तो प्रारब्धकी बात है, किन्तु चिन्ता-शोक करना तो मूर्खता है। चिन्ता-शोकलायक संसारमें कोई भी वस्तु नहीं है, इसलिये शोक करना मूर्खता ही है। वास्तवमें शोकलायक कुछ नहीं है, सब विनाश होनेवाले हैं। यह सत्य भी प्रतीत हो तो भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। ज्ञान, भक्ति एवं व्यावहारिक दृष्टिसे भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये।
विनाशवान् का ही विनाश होता है। स्वप्नके संसारका आँख खुलनेपर नाश हो गया। बस, फिर क्या रहा!
भक्तिमार्गसे देखो तो सब भगवान् ही करते हैं, फिर चिन्ता क्यों। भगवान् कहते हैं रे मूर्ख! मेरा ही कहना नहीं मानता है। दाँतसे यदि जीभ कट जाय, तब पत्थरसे दाँत तोड़नेमें हानि किसकी होगी। जीभ तो कट ही गयी, फिर दाँत क्यों तोड़ता है।
कोई मर गया तो कहता है आनन्द है, क्योंकि मन मलिन करनेमें भक्तिमें बट्टा लगता है। भगवान्की प्रेरणासे ही सब होता है। हम खोटा काम करें तो पश्चात्ताप करना चाहिये। बस, थोड़ी भी समझदारी हो तो चिन्ता पास नहीं आये।
विवेकी भी चैलेंज देते हैं कि चिन्ता-शोक हमारे पास नहीं आते, फिर महात्माकी तो बात ही क्या है! वास्तवमें महात्माके पास बैठनेसे ही चिन्ता नहीं होनी चाहिये। महात्माके पास बैठकर रोनेसे, चिन्ता करनेसे दुनियामें अज्ञान और मूर्खता फैलाते हो, इस प्रकार महात्माको भी लजाते हो। लोग कहेंगे कि महात्माके संगसे तुझे लाभ होता तो मैं भी संग करता, अतएव चिन्ता नहीं करनी चाहिये।
एक महात्मा यहाँ बैठे हैं तो श्रद्धावाला उनके पीछे ही बैठेगा कि इनकी धूल भी मुझपर पड़ेगी तो कृतकृत्य हो जाऊँगा। उसका प्रभाव उसपर पड़ेगा। यह गंगा है। वह महात्मा जहाँ नहाता होगा, श्रद्धालु उसके नीचे नहायेगा कि उनका स्पर्श किया हुआ जल इधर आये, यह श्रद्धा है।
जिसमें श्रद्धा होती है, उनकी वाणी-संकेत यदि समझमें आ जाय तो वह पूर्ण करनेकी प्राणपर्यन्त चेष्टा करेगा और करते हुए भी आनन्द मानेगा। संकेतसे यदि काम करे तो तीन चौथाई श्रद्धा हो गयी और आज्ञा दे तब करे तो नीची श्रद्धा है, यदि आज्ञा मिलनेपर भी बन्धन मानकर करेगा तो उसमें श्रद्धा नहींके तुल्य है।
श्रद्धा होनेपर विलक्षण प्रवृत्ति होती है, यदि चरणोंमें गिर गया, उठानेपर भी नहीं उठता। वह समझता है कि मैं इस लायक नहीं हूँ, तभी तो उठाते हैं। जिसपर श्रद्धा है, उसको कभी भी पीठ देकर नहीं बैठ सकता। ऊँचे आसनपर नहीं बैठ सकता। श्रद्धा और प्रेम दोनों हों तो विलक्षण बात हो जाती है। वहाँ शान्ति और आनन्दका पार नहीं रहता। जैसे लोभीको रुपया मिलनेसे प्रसन्नता होती है इससे भी अधिक गड्ढा खोदते समय हीरा मिलनेसे जैसी प्रसन्नता होती है, उससे भी अधिक प्रसन्नता श्रद्धालुको होती है। श्रद्धालुके लिये मछलीका उदाहरण भी ठीक नहीं लगता। जलके वियोगमें मछलीकी जैसी दशा होती है, उससे भी बुरी दशा प्रेमीके वियोगमें होती है, किन्तु मछलीके जलके संयोगके समान सुख नहीं होता, क्योंकि वह तो विषयसुख है।
अपने प्रेमको छिपाकर रखना चाहिये। प्रेम करनेवालेके नेत्र भर आते हैं, कँपकपी होती है। प्रेमीके अनुकूल थोड़ी भी क्रिया बन जाय तो वह बड़ा हर्ष मानता है, कहता है कि प्रेमीने मेरी वस्तु स्वीकार कर ली। यदि बिना माँगे वह काममें ले ले तो और भी प्रसन्नता होती है कि अब उसने मुझे अपना लिया है। उसके स्पर्श किये वस्त्रसे यदि स्पर्श हो जाय तो वह प्रसन्न हो जाता है। यदि वह इस मार्गसे निकल रहे हैं तो वह उसी मार्गसे जायगा। वहाँ वैराग्य और प्रेम छा जाता है। वह जिस वनसे श्रद्धेय जाते हैं, उस वनको धन्यवाद देता है कि तूँ ही धन्य है। क्या परमाणु है! अहा! चरणोंकी धूल प्यारी है। उनके नामकी चिट्ठीका टुकड़ा मिला तो वह प्रसन्न हो जाता है। उसका श्रद्धा-प्रेम इतना प्रभाव डालता है, जैसे गोपियोंका प्रभाव उद्धवपर हुआ था। उद्धवको गोपियोंके व्यवहारसे उपदेश मिला था, क्रियाओंसे उपदेश मिला था।
श्रद्धेय पुरुष जहाँ वास करता है, वहाँ श्रद्धालु बहाना करके जायगा। यदि उन्होंने नदीको छू दिया तो नदीका गुण गाने लगेगा कि तूँ ही धन्य है, अहा! तूँ सफल हो गयी। कोई पुरुष मिल जाय तो उसीको धन्य कहता है। वह बेचारा कुछ नहीं समझा कि क्या बात है। अहो! तुम्हारा ही जन्म सफल है, तुम बड़भागी हो। वे पुरुष उस समय तुम्हारे जमानेमें थे। तुमने देखे थे? हाँ देखे थे। ओहो, अब तो तुम्हारे दर्शनसे मेरी सफलता हो गयी। दर्शन करनेसे उसकी सफलता तो हो गयी, लेकिन जिसने दर्शन किये हैं; उसको सफलता नहीं होती क्योंकि वह अश्रद्धालु है और उसको श्रद्धावाला मिल गया तो वह उससे सफल हो जायगा। श्रद्धावान् पुरुष प्रेमीकी पुस्तक और पत्थरसे भी लाभ ले लेता है, धन्य है कि इस शिलासे उनका स्पर्श हुआ।
मेरे दादाजी ईश्वरभक्त थे। उनके हाथकी गीता हमने अच्छी प्रकार रखी है। अब गीताको प्रणाम करते हैं। दादाजीके ऊपर श्रद्धा सुननेसे हुई। मेरे पैदा होनेसे पहले ही वे मर गये थे। वे पंचरत्न-गीताका पाठ करते और १०८ माला फेरते थे। प्रात: तीन बजे उठते थे। उनका सेवाभाव अच्छा था। उनकी बातें सुनकर प्रसन्नता होती थी। श्रद्धा बहुत भारी वस्तु है। किसीने पूछा गंगा-स्नान करते समय क्या सावधानी रखनी चाहिये। उत्तर मिला कि गंगामें कुल्ला करना पाप है। कुल्ला करना निषिद्ध है तो वह बंद कर देगा। महापुरुषोंके प्रभावसे शिक्षा मिलती है। महात्माके पास बैठे हैं तो वहाँ महात्माके प्रतिकूल वस्तुका व्यवहार नहीं होगा। उनके सामने मनमें बुरे भाव नहीं आयेंगे, यदि आये तो हमारी श्रद्धा नहीं है। हृदयके बुरे भावोंका नाश हो जाता है। वह कहता है कि मैं महात्माके पास बैठा हूँ, मायाकी क्या मजाल है कि मेरे पास आ जाय।
जब काकभुशुण्डिके पास गरुड़जी गये, तब उन्होंने कहा कि माया तो यहाँ आ ही नहीं सकती। क्यों नहीं आती? श्रद्धा नहीं आने देती। माया आये तो श्रद्धा कहाँ है।
मार्कण्डेय शिवलिङ्गकी पूजा करते हैं। यमराज आये तो झट शिवलिङ्ग पकड़ लिया कि कैसे ले जायगा। श्रद्धा होनेके कारण शिवजी प्रकट हुए। यमराजसे कहा कि क्या तूँ जानता नहीं है कि यह मेरा भक्त है। विधाताके लेखमें उसकी उम्र बढ़ा दी। श्रद्धा ही प्रधान है।
एकलव्य भीलने श्रद्धासे विद्या सीख ली। अर्जुनसे अधिक सीख लिया। वहाँ श्रद्धाने काम किया था।
हनुमान, झाबरमल आदिकी मेरेमें श्रद्धा थी। उनके कहनेसे मालूम पड़ा कि उनका काम सिद्ध हो गया और मुझे पता भी नहीं लगा। उनकी श्रद्धा हुई थी और कोई बात नहीं थी। मुझे तो हनुमानने बताया तब मालूम हुआ।
इस प्रकार श्रद्धाका प्रकरण अद्भुत है। यह तो मोटी बात है। प्रेमीके जीवनपर श्रद्धा करके मुक्त हो जाता है। गौरांग महाप्रभुकी खास जीवनी नहीं मिलती, जितनी मिलती है, उसमें ही श्रद्धा करके मुक्तितकका लाभ उठा सकते हैं।
जिनको परमात्मा प्राप्त हुए हैं, वे हमारे सामने बैठे हैं। उनसे मुक्ति प्राप्त करना कौन बड़ी बात है।
ध्रुव, प्रह्लादका नाम ही सुना है, श्रद्धासे हम उनका लक्ष्य बनाकर लाभ उठा सकते हैं। वे कहीं भी हों, किन्तु हम उनसे परमात्माकी प्राप्ति कर सकते हैं।
एक महात्मा पुरुषसे हम श्रद्धासे जो लाभ उठाना चाहें, वह उठा सकते हैं। नरसी मेहताके समधी बोले कि मुझे पहले ऐसा मालूम होता तो मैं अपनी हवेली सोनेकी कर लेता। यानि जितनी कम श्रद्धा है, उतना तो पछतावा कर ही लिया।
श्रद्धाकी बड़ी भारी बात है। हम इतने आदमी बैठे हैं और यहाँपर श्रद्धालुको यह ज्ञान नहीं होता कि कितने बजे हैं, उसको तो देश-कालकी भी सुध नहीं रहती। वह तो चाहता है कि रात- दिन यही बात होती रहे और सुनते रहें और कुछ परवाह या इच्छा भी नहीं होती। यह श्रद्धाकी बात है।