दम्भसे महान् पतन, वैराग्यसे लाभ
प्रवचन—मिति ज्येष्ठकृष्ण १४, संवत् १९९५, दिनाङ्क २८। ५। ३८ प्रात:, कर्णवास
सच्ची नीयतवाले भाई हैं, उन्हें तत्परताके साथ, वैराग्ययुक्त चित्तसे कटिबद्ध होकर साधन करना चाहिये। वे लोग ऐसा नहीं करते हैं, इसीलिये दम्भका प्रचार होता है कि जब सत्संग करनेवालोंका साधन ठीक नहीं होता तो उन्हें देखनेवाले लोगोंपर बुरा असर पड़ता है। लोभी, दम्भी, आलसी कई प्रकारके मनुष्य होते हैं। यहाँ यह नियम तो है नहीं कि यहाँ परीक्षा करके आने दो, सभी तरहके लोग आ जाते हैं, वे आकर बैठ जायँ तो बुरा नहीं है। बुरे आदमी भी सत्संगमें आकर ही तो सुधर सकते हैं। किसीमें भी दम्भका दोष स्वार्थसे आता है। बिना स्वार्थके दम्भ नहीं होता। स्वार्थका अर्थ कञ्चनकामिनी ही नहीं है। मान, बड़ाईसे ज्यादा दम्भको गुंजाइश मिलती है। यह मान, बड़ाई साधकको भी अमृतके समान लगती है। जो कल्याण चाहे वह मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाको विष्ठाके समान समझकर दूरसे ही त्याग कर दे। मान, बड़ाईको जितना स्वीकार करना है, उतना ही दम्भ, पाखण्डको गुंजाइश है। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाकी जहाँ आकांक्षा है, वहीं आसुरी सम्पदाको घुसनेका मौका है, वहाँ ये सब चले आते हैं। जो वास्तवमें अपनी आत्माका कल्याण चाहे, उसे बाहरी ऐसी कोई क्रिया नहीं करनी चाहिये, जिससे मान, बड़ाई मिले।
पुरुषोंको स्त्रियोंसे और स्त्रियोंको पुरुषोंसे खूब परहेज रखना चाहिये। अच्छे पुरुष हैं, महात्मा पुरुष हैं, कैसा ही श्रेष्ठ पुरुष हो, किन्तु जो मर्यादा है उसका उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये। दर्शन, भाषण कुछ भी न करे, बात करनेकी आवश्यकता यदि पड़े तो माता, बहनके समान समझकर नीची दृष्टि रखते हुए ही बात करे और सभी आठ मैथुनोंको त्याग दे। केवल सत्संगकी बात या जरूरी बात करनी हो तो जितनी कममें काम चल जाय, उतनी ही बात करे। इसके सिवा बिलकुल परहेज रखे। चाहे कितना ही विवेकी हो वेदव्यासजीने लिखा है—
मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत्।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति॥
माता, बहन और किसी भी स्त्रीके साथ एकान्तमें अकेला न बैठे। इन्द्रियाँ बलवान् होती हैं और विद्वान् को भी विचलित कर देती हैं। अनुभवसे समझो—जो पाँच वस्तुओंसे परहेज नहीं रखता, वह साधनमें अग्रसर नहीं हो सकता। रुपयोंका लोभ, स्त्रीका संसर्ग, मान, बड़ाईकी इच्छा, शरीरका आराम और आलस्य—जो कल्याण चाहे, उसे इन पाँचोंसे परहेज रखना चाहिये। इनपर विजय प्राप्त करनेवालेके कल्याणमें कुछ भी शंका नहीं है। इनके त्यागे बिना परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती, यदि किसीको भक्तिसे या महापुरुषोंकी कृपासे हो जाय तो वह बात दूसरी है, किन्तु सर्वसाधारणके लिये यही बात है। अत: जिसे कल्याणकी कामना हो, उसे इन पाँचोंसे बचना चाहिये और जिसे विषयोंकी कामना है, वह तो उनमें फँसा हुआ ही है।
ऐसा एक अस्त्र है, उसे पास रखनेपर ये पाँचों पासमें नहीं आ सकते। वह है वैराग्य। वैराग्यसे सारे बन्धन कट जाते हैं।
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥
तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय:।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यत: प्रवृत्ति: प्रसृता पुराणी॥
(गीता १५। ३-४)
इस संसारवृक्षका स्वरूप जैसा कहा है वैसा यहाँ विचारकालमें नहीं पाया जाता, क्योंकि न तो इसका आदि है, न अन्त है तथा न इसकी अच्छी प्रकारसे स्थिति ही है। इसलिये इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलोंवाले संसाररूप पीपलके वृक्षको दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्रद्वारा काटकर, उसके पश्चात् उस परमपदरूप परमेश्वरको भलीभाँति खोजना चाहिये, जिसमें गये हुए पुरुष फिर लौटकर संसारमें नहीं आते और जिस परमेश्वरसे इस पुरातन संसारवृक्षकी प्रवृत्ति विस्तारको प्राप्त हुई है, उसी आदिपुरुष नारायणके मैं शरण हूँ—इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वरका मनन और निदिध्यासन करना चाहिये। फिर उसका यह फल होता है—
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा:।
द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:खसंज्ञै-
र्गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत्॥
(गीता १५। ५)
जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्तिरूप दोषको जीत लिया है, जिनकी परमात्माके स्वरूपमें नित्य स्थिति है, जिनकी कामनाएँ पूर्णरूपसे नष्ट हो गयी हैं—वे सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वोंसे विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परमपदको प्राप्त होते हैं।
वास्तवमें ऐसे पुरुष ही परमात्माकी प्राप्तिके लायक हैं। वे ही प्राप्त कर सकते हैं, उस स्थितिको ही प्राप्त करना चाहिये और करना ही क्या है। वैराग्य एक ऐसी वस्तु है, जिससे वासना आदि जड़ें समूल नष्ट हो जाती हैं। सारे दोष हट जाते हैं। वैराग्य हो गया तो सारी उपासना सिद्ध हो सकती है। जिस अमृतके सामने देवताओंके भोग भी तुच्छ हैं, वह परमात्माका ध्यान है। इन्द्रका भोग और अमृत भी मैलेके समान है। ध्यान परमात्माका प्रतिबिम्ब है, वह सूर्य और सूर्यके प्रतिबिम्बकी तरह है। प्रतिबिम्बसे ही बिम्ब पकड़ा जाता है, उससे ही मनुष्य पकड़ सकता है। दर्पणमें दीखनेवाली छायासे यह पकड़ सकते हैं कि वह छाया कहाँसे आती है। इसी तरह छाया यानि ध्यानतक जो पहुँच जाता है, उसे फिर देरी नहीं लगती, फिर मामूली ही काम रह जाता है। नौका किनारे आकर यदि डूब जाय तो बहुत हानिकी बात है। सब भाइयोंको जोरसे साधन करना चाहिये। अपना यहाँ ठहरनेका समय भी कम है, मृत्यु भी नजदीक है, अत: जिस किस प्रकारसे चेष्टाके साथ साधन करना चाहिये। संसारमें परमात्माकी भक्तिका प्रचार नहीं होता, इसमें बाधक है दम्भ। अपनी आत्माके कल्याणमें, उन्नति नहीं होनेमें कारण है—यह दोष। जो झूठे भक्त, ज्ञानी, सिद्ध बने बैठे हैं, वे ही भक्तिमार्गके प्रचारमें विघ्नकर्ता हैं। खयाल करना चाहिये कि भगवान् कहते हैं कि प्रचार करनेवालेको मैं मदद देता हूँ, फिर रोकनेवाला कौन है? बहुतसे साधु, महात्मा हैं, वास्तवमें शास्त्रनिर्दिष्ट है वैसा ही आदर करना चाहिये, किन्तु यदि आज कोई साधु किसी भाईसे मिलने आता है तो लोग प्रेमसे आदर देना तो दूर रहा, उनसे बात करनेकी ही इच्छा नहीं करते। क्यों? इसलिये बहुत आदमी साधुका वेश धारण कर झूठे साधु बन गये, इसलिये उन्हींमेंसे जो सच्चे साधु हैं, उनका तिरस्कार होता है। झूठे बने हुए साधु ही सच्चे सन्तोंके तिरस्कारमें हेतु हैं। आज बड़ी-बड़ी संस्थाएँ हैं, उनमें ऐश्वर्य, मान, भोग, प्रतिष्ठा आदिने प्रवेश करके उनका विनाश कर डाला, इसीलिये आज यह बात हो रही है। अच्छे पुरुषोंको विशेष सावधान रहना चाहिये। उन्हें इस प्रकारसे अपना प्रचार करना चाहिये, जिससे दम्भी, पाखण्डियोंको किञ्चिन्मात्र भी गुंजाइश न मिले। भगवान् कहते हैं—
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥
(गीता३।२३)
क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मोंमें न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं।
इसलिये भगवान्का यही कहना है कि महात्मा, ज्ञानवान् पुरुषको भी लोकसंग्रहार्थ उत्तम आदर्श रखना चाहिये। गीताप्रेस एक संस्था है, सब आदमी इसे अच्छा ही समझते हैं, किन्तु दो, चार वर्षोंमें इसमें कौन आदमी रहे, कैसी अवस्था हो, कौन जान सकता है। सौ वर्षके बाद तो कोई रहनेवाला है नहीं। उसके बाद उसका कौन अधिकारी रहेगा और क्या दशा होगी, कुछ पता नहीं। जितनी भी बड़ी-बड़ी संस्थाएँ हैं, वे सब अच्छे रूपमें बनी हैं, किन्तु फिर धीरे-धीरे उनमें निम्न श्रेणीके लोगोंका प्रवेश होनेसे पतन होने लगा। इसीलिये भगवान्का कहना है कि आदर्श खूब उच्च रखना चाहिये।
यज्ञके नामसे हिंसाका प्रचार हो गया। लिप्सा-भोगेच्छाके कारण यह सब होता है, यदि वे ऐसा कह दें कि हम तो अपनी भोगेच्छा-पूर्तिके लिये यह कर रहे हैं, तब तो इतना दम्भ नहीं फैलता, किन्तु वे पूजा और यज्ञके नामसे ऐसा करने बैठते हैं। गौतम बुद्धका इसीलिये अवतार हुआ। यह कैसा धर्म जो अपनी पेट-पूर्तिके लिये हिंसा करते हैं। उन्होंने अहिंसा धर्मका प्रचार किया, किन्तु अब जो बौद्ध धर्मकी संस्था है, उसका उद्देश्य दूसरा ही हो गया, वह पुरानी संस्था हो गयी। इससे बचनेका यही उपाय है कि सच्चा आस्तिक बने। सच्ची वस्तुका कोई विनाश कर ही नहीं सकता।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:॥
(गीता२।२४)
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और नि:सन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है।
सत्य वस्तुपर कितनी ही चोट पड़े, चोट ही पीछे हट जायगी, वहाँ कोई भय नहीं है। वहाँ निर्भयता है। जो दम्भाचार फैला है, उसका नाश करनेके लिये सच्ची आस्तिकताके सिवाय क्या उपाय है। सभी पाखण्डी, दम्भी नहीं होते। कई सच्चे होते हैं। जो किसी भी कारण धर्म त्याग नहीं करते, वे ही आखिरमें रह जाते हैं। तब बीज रह जाता है तो फिर धर्मका पालन होता है। उनकी संस्था पुरानी हो जाती है तो मरम्मतकी आवश्यकता होती है। पुराने मकानकी मरम्मत होती है। कल्याणकामी खूब जोरसे भजन-ध्यानका साधन करे। कलियुग है, यह कठिनाई बतायी, किन्तु साथ-साथ सुगमता भी है। सत्ययुगमें जो दर्जा एम० ए०-जितना था, वह अब मैट्रिक-जितना भी नहीं है। यदि उतना ही होता तो फिर इनमें पास नहीं होता, क्योंकि एक तो मान, बड़ाई, ऊपरसे आयु भी कम हो गयी, इसलिये कलियुगमें यह सुगमता है। फिर कोई चिन्ता नहीं है। भगवान्के नामका जप, श्रवण, कीर्तन, स्मरण आदि साधन हैं। श्रवणसे कल्याण, कीर्तनसे कल्याण, स्मरणसे कल्याण है। किसी एकको पकड़ ले तो आत्मकल्याण है, फिर तीनों हों तो फिर बात ही क्या है। श्रवणसे कीर्तन, कीर्तनसे स्मरण एक-से-एक बढ़कर है और स्मरणमें हेतु कीर्तन, कीर्तनमें हेतु श्रवण है। ताकत देखा जाय तो ध्यानकी ताकत अधिक है, किन्तु यदि वह न हो तो कल्याण करनेमें भगवान्का भजन ही काफी है। यदि वह निरन्तर न हो तो फिर सत्संग करे। वैसे तो सत्संगका दर्जा भजनसे अधिक नहीं है, किन्तु भजनमें हेतु होनेके कारण सत्संगका दर्जा ऊँचा है। सत्संगके बिना भजन नहीं बनता। सत्संग करे, किन्तु काममें न लावे और दूसरा भजन ही करता है तो भजन करनेवाला ही ऊँचा है। एक ध्यान करता है, दूसरा केवल जप करता है, उनमें ध्यान करनेवाला बड़ा है। एक न्यायसे, ध्यानसे भजन, भजनसे सत्संग बड़ा है, दूसरे न्यायसे, सत्संगसे भजन, भजनसे ध्यान बड़ा है। दादा है, बाप है, लड़का है। दादाका १०/- महीना, बापका १००/- महीना, लड़केका १०००/- महीना वेतन है, तो वे बड़े हैं आयुमें, किन्तु आयके कारण लड़का बड़ा है। सत्संगसे भजनकी उत्पत्ति है, भजनसे ध्यानकी उत्पत्ति है। प्रणाम उनको पोता ही करेगा, कायदेमें वे बड़े हैं, किन्तु कीमतमें पोता बड़ा है। सत्संग, भजनसे ध्यान पैदा कर दे, फिर वे पेंशन पायें, एक ही काफी है। वे भी असलमें आलसी नहीं हैं, तूँ भी अभी कच्चा है, अत: हमारी छत्रछायामें रह। इतनी स्वतन्त्रता ठीक नहीं, हमारा सहारा रख। वृद्धोंकी छत्रछाया भी अच्छी। ये बूढ़े भी हों तो भी इनका आश्रय रखे। भगवान्ने जो यह श्लोक कहा, यह बहुत ही अच्छा है—
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥
(गीता ७।३)
हजारों मनुष्योंमें कोई ही सिद्धिके लिये यत्न करता है, यत्न करनेवालोंमें भी कोई ही मुझे प्राप्त होता है। यहाँ हम २००-३०० आदमी हैं। इस प्रान्तमें हजारों, लाखों आदमी हैं, किन्तु यहाँ कम हैं। हमलोगोंमें भी प्रयत्न करनेवाले कितने ही हैं और जो धन-मान, बड़ाई, आरामके लिये भक्ति-साधनको बना रखे हैं, वे सच्चे साधनकी ओर अग्रसर नहीं हैं। सच्चे साधनके लिये यत्न करनेवालोंमें कोई ही तत्त्वसे मुझे जानते हैं। सिद्ध वही है जो परमात्माकी प्राप्तिरूप सिद्धिके लिये यत्न करनेवाला है। साधक होते हुए भी वे परमात्माकी प्राप्तिके अर्थ यत्नवान् होनेके कारण सिद्ध ही हैं। मान, बड़ाईका चाहना उनका सिद्धान्त नहीं है, किन्तु यह अच्छी लगती है, दबा लेती है, इससे दूर रहना चाहिये। जिसका सच्चा ध्येय परमात्माको प्राप्त करना है, उन्हें इन दोषोंको सर्वथा हटा देना चाहिये।
जब हम लोगोंको मालूम हो जाय कि ये चोर हैं तो फिर उनसे सावधान होना चाहिये।
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥
(गीता३।३४)
इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याणमार्गमें विघ्न करनेवाले महान् शत्रु हैं।
भगवान् स्पष्ट कह रहे हैं। जिन्होंने अपना ध्येय ही दम्भ बना रखा है, दम्भके लिये ही जो भक्तिका स्वाँग धरते हैं, वे तो साधकोंमें नहीं हैं। जो यत्नवान् साधक हैं, उनमें भी कोई ही सिद्धितक पहुँचता है। इसलिये साधककी तो बात ही क्या है,जो सिद्ध हैं, चाहे लोग समझते हैं या वास्तवमें हैं, उन्हें भी इन सबसे परहेज रखना चाहिये। उसे कोई कर्तव्य न होनेपर भी दम्भी, पाखण्डी भक्तोंसे, दुनियाके लोगोंको बचानेके लिये ऐसा आदर्श रखना चाहिये। जो आदमी अच्छा साधन करता है, अपनेको विवेकी, ज्ञानी मानते हुए ही जीवन्मुक्तिके लिये साधन करता है, यद्यपि यह बात उलट-पलट है, किन्तु तब भी वह ठीक है, क्योंकि वह साधन कर रहा है, उसे कोई भय नहीं है। अज्ञान शीघ्र ही नष्ट हो जायगा, किन्तु मुश्किल उसे है, जो यह समझ लेता है कि मेरा कोई कर्तव्य नहीं, वहाँ गड़बड़ है। भगवान् कहते हैं—‘तस्य कार्यं न विद्यते’ वह नहीं मानता कि मैं महात्मा हूँ। चाहे सारी दुनिया उसे महात्मा कहे, माने, किन्तु यदि वह अपनेको महात्मा मान ले तो समझना चाहिये कि वहाँ गड़बड़ है, क्योंकि मैं महात्मा हूँ, मेरा कोई कर्तव्य नहीं—यह कहनेवाला वह कौन है। वहाँ तो धर्मी रहता ही नहीं, फिर ‘अस्मत्’ पदका कथन करनेवाला कौन है। विवेकी पुरुष है, किन्तु यदि इन पाँचका संसर्ग है तो उसे भय है। माताओं, बहनों, पुरुषोंको खूब ध्यान देना चाहिये। खूब तत्परतासे साधन करना चाहिये। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा, कंचन, कामिनी, आराम, आलस्यको त्याग देना चाहिये। इनसे बचनेके लिये दो ही साधन हैं वैराग्य और परमेश्वरकी भक्ति। वैराग्य वज्रका किला है। वहाँ दोषोंका प्रवेश सम्भव नहीं। परमेश्वरकी भक्तिके लिये दो श्लोक बहुत अच्छे हैं—
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥
तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय:।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यत: प्रवृत्ति: प्रसृता पुराणी॥
(गीता १५। ३-४)
ऐसे दृढ़ मूलोंवाले वृक्षके छेदनके लिये सबसे बढ़कर कोई वस्तु है तो वह है वैराग्य, वह भी दृढ़ वैराग्य होना चाहिये। समय-समयपर सानपर चढ़ाना चाहिये। सान क्या है सत्संग, फिर काटना चाहिये, फिर काटते-काटते धारमें कमी आ जाय तो फिर सानपर चढ़ाते रहना चाहिये।
सारे संसारके विषयभोगोंको मैलेके समान समझकर उन्हें त्याग दे। उनसे घृणा करके, उन्हें अनित्य समझकर, उनसे चित्तवृत्ति हटा देनी ही वृक्षको काट डालना है। उसके बाद है ध्यान। उसे प्राप्त होनेके बाद लौटता नहीं। जिसे गंगाजल मिल जाय, वह फिर क्या मरुभूमिमें जलार्थ दौड़ सकता है, यह ज्ञानके सिद्धान्तसे है। भक्तिके सिद्धान्तमें गंगाजीके पास है, किन्तु यह कहे कि दो मीलपर एक गड्ढा है। कीचड़मय है, उसमें चलो, जल पीयें, देखें। उसमें क्यों जब गंगाजी हैं। गाँवका इकट्ठा हुआ जल दुर्गन्धयुक्त है, उसे देखनेको कौन जाय? पीनेकी बात दूर, देखनेको भी कौन जाय। यह उदाहरण भी नहीं घटता। वर्षामें गंगाजल भी मोटा हो जाता है तो छानकर पीनेकी बात आती है। वह परमात्मा तो अमृतसे भी बढ़कर है। उस आनन्दको छोड़कर कौन वापस आ सकता है? आ ही नहीं सकता। वास्तवमें वह ऐसे आनन्दमें मुग्ध हो जाता है कि उसे कुछ भी इच्छा नहीं होती। उस आदिपुरुष परमेश्वरकी मैं शरण हूँ इस प्रकार उसे पकड़ ले। ऐसे रसको सब ओरसे पान करे, वह अथाह रसका श्रोत है। ‘अभितो ब्रह्मनिर्वाणम्’ यह ज्ञानमार्गसे है, भक्तिपक्षसे—‘तुष्यन्ति च रमन्ति च’ है।
ध्यानावस्थामें आनन्दके रसका पान करता रहे। सगुण ध्येय चाहे मूर्त लो चाहे अमूर्त, अव्यक्तमें रूप आकार नहीं है। और तो सब बात है ही, साकारमें रूपमाधुरी विशेष है। उस रसका पान करना चाहिये। सब ओरसे तृप्त हो जाय। सिद्ध पुरुषोंकी जो स्थिति बतायी गयी है, साधनावस्थामें वह प्रतीत होने लग जाय।
कितना भारी आनन्द है, उस आनन्दको छोड़कर दूसरी तरफ जा ही कैसे सकता है। उस आनन्दमें शरीर काटे, तब शरीरकी पीड़ाका ज्ञान भी हो जाता है, किन्तु उसकी उस आनन्दमें मुग्धता इतनी विशेष रहती है कि उसकी परवाह नहीं करता। हमलोगोंमें जो नीची-से-नीची स्थितिवाला है, वह भी उस स्थितिको पा सकता है। केवल भगवान्को पकड़ ले। भगवान्को वह जैसा समझता है, वही भगवान् है। उसे पकड़े रखे। किन्तु यदि वैराग्य नहीं है तो उपरामता नहीं होगी। उपरामता नहीं होनेसे आलस्य-विक्षेप आयेगा, तब ध्यान नहीं हो सकेगा। उसे इतना भारी आनन्द है, उसे वह कैसे छोड़ सकता है। उस रसमें स्थित हो जाय, तब तो फिर उसके आनन्दका ठिकाना ही न रहे। जबतक वह रस नहीं आये तबतक संसारसे सावधान रहे।
वह आदिपुरुष कौन है? वह परमात्मा जिससे इस संसारकी प्रवृत्ति हुई है, उसकी शरण होना चाहिये। शरण होनेवालेका क्या लक्षण होता है—
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा:।
द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:खसंज्ञै-
र्गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत्॥
(गीता १५। ५)
ऐसे पुरुष उस पुरुषको पाते हैं, वही अमृत है, वही परमात्मा है। ऐसे लक्षण यदि कसौटीपर कसकर देखा जाय तो लाखों, करोड़ोंमें किसी एकमें ही मिलेंगे। मिलनेपर भी पहचानना कठिन है। कैसे प्राप्त करें। सबका कल्याण कैसे हो। जो साधक पुरुष है उसे ही भगवान्ने आज्ञा दी है। गीताका भाव कोई भी साधक प्रचार करे। लोगोंको उसके भावोंको धारण कराये, कथन करे, वार्तालाप करे, वह मुझे प्राप्त हो जाता है। जो भाव अपने समझमें आये, उसे दूसरोंको समझाये, इससे वह परमात्माको प्राप्त हो जाता है। ‘प्राप्त हो जाता है’ यह कहनेसे यह सिद्ध होता है कि वह साधक है।
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय:॥
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि॥
(गीता १८। ६८-६९)
वह जितना मेरा प्रिय कार्य करनेवाला है उससे बढ़कर कोई भविष्यमें हो ऐसी सम्भावना नहीं है। गोपियोंके लिये भी ऐसा प्रेमी नहीं होगा—यह बात नहीं कही, किन्तु यहाँ साधकके लिये भी यह बात कही है। अत: सिद्ध न मिले तो साधक तो मिल ही सकता है। यहाँ भगवान्ने अपनी भक्तिके सम्बन्धमें कहा है। उस आदिपुरुषकी शरण ग्रहण करनी चाहिये। प्रचार करनेवाला ही जब मुक्त हो जाता है तो फिर साधन करनेवाला, वार्तालाप करनेवाला मुक्त हो जाय, इसमें तो शंका ही क्या है। सारी गीतामें भगवान्ने जितना भक्तिपर जोर दिया है, उतना सत्संगपर नहीं दिया, इसलिये भक्तिके साधनोंको खूब जोरसे करना चाहिये। ‘बोधयन्त: परस्परम्’ कोई एक ही प्राप्त होता है, यदि उसे हम खोजने लगें तो मिलना ही कठिन है, वह सब जगह पहुँच भी कैसे सकता है। अपना काम तो एक यत्न करनेवाले साधकसे ही हो जायगा। जो अच्छा हो उसीसे सुने, उसीसे सुनकर साधनपरायण हो जाय। श्रद्धाके योग्य परमेश्वर और महात्मा दो ही हैं। महात्माके लिये खोज करनेपर भी पहचानना कठिन है। मेरी राय तो यही है कि श्रद्धा परमेश्वरके प्रति ही करे। किसी मनुष्यको श्रद्धेय न बनावे। वह परमात्मा ही वरेण्य है। साधन करनेके लिये कोई भी साधन बता सकता है। योगदर्शनमें ‘वीतरागविषयं वा चित्तम्’ की बात बतायी है, किन्तु प्रणिधान (ईश्वरकी शरण) ही सबसे बढ़कर बतलाया है। ‘यथाभिमतध्यानाद्वा’-में गिरनेकी गुंजाइश भी है। ईश्वरके सिवाय किसीको भजनीय न बनावे। हाँ, बात कोई भी कहे, उससे भी सुने, सेवा कुत्तोंकी भी करे तो अच्छा है, किन्तु ध्यान करनेके लिये एक परमात्माको ही ध्येय बनावे। भगवान् कहते हैं—
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
(गीता१०।१०)
उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥
(गीता९।९)
हे अर्जुन! उन कर्मोंमें आसक्तिरहित और उदासीनके सदृश स्थित मुझ परमात्माको वे कर्म नहीं बाँधते।
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥
(गीता९।१०)
हे अर्जुन! मुझ अधिष्ठाताके सकाशसे प्रकृति चराचरसहित सर्वजगत् को रचती है और इस हेतुसे ही यह संसारचक्र घूम रहा है।
प्रत्येक आदमीके साधनका ध्येय ये श्लोक रहने चाहिये। यही हमारा जीवन और प्राण है। उस परमेश्वरके स्वरूपमें रमण करना, सन्तुष्ट होना, हमारे लिये तो यही साक्षात् अमृतका पान है। अच्छा काम तो इतना ही है। हम साधन करते-करते मर जायँ, चाहे भगवान् मिलें, चाहे न मिलें।
इसमें छ: बातोंपर ध्यान देना चाहिये-मच्चित्ता:, मद्गतप्राणा:, बोधयन्त: परस्परम्, कथयन्तश्च मां नित्यं, तुष्यन्ति तथा रमन्ति यह विशेषण है। ऐसा अभ्यास डालना चाहिये। ‘मच्चित्ता:’ रात-दिन परमेश्वरका ही चिन्तन करना चाहिये। इससे सांसारिक काममें आपत्ति नहीं आती, क्योंकि प्रभु तो सर्वत्र हैं। जिस पदार्थसे हमारा व्यवहार होता है, उसीमें परमात्माको देखो। हमारे दो भाई जयद्रथ तथा अर्जुनका पार्ट खेल रहे हैं, दोनों पूरी कोशिश करते हैं। दोनोंका युद्ध होता है। इतना खयाल रखते हैं कि कहीं तलवार न लग जाय और स्वांग भी न बिगड़े। दोनों भाई जानते हैं कि यह मेरा भाई है। इसी तरह सबमें परमेश्वरको देखे ‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च’ लीलाकी भाँति हमारे सारे कर्म हों और अन्त:करणमें मनसे परमात्माका दर्शन हो।
मद्गतप्राणा:—सारी चेष्टा, जीवन, प्राण, सारी इन्द्रियोंकी क्रिया, सब उसीके अर्पण है, जैसे लोभीकी सारी क्रिया रुपयोंके अर्पण है। घाटा लगे उस कामकी तरफ जाता ही नहीं, जिसमें रुपया न आवे उस कामकी तरफ भी नहीं जाता, उसकी सारी क्रिया अर्थके लिये ही है। इसी तरह यहाँ अपना उद्देश्य भगवान् होना चाहिये।
‘बोधयन्त: परस्परम्’ रात-दिन उसीकी चर्चा, दूसरोंको जनाना और स्वयं जानना। एक गुरुके दो शिष्य पाठ याद करते हैं। एक-दूसरेसे दोनों पूछते हैं। इसी प्रकार परमात्माके नाम, रूप, गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्य, लीलाको लेकर परस्परमें बातचीत करे। मन्थन करे, जैसे दूधको मथनेसे मक्खन निकलता है, इसी तरह इन्हें मथनेसे परमात्माका रहस्य निकला है या यों कहो इसे मथनेसे प्रेम निकलता है। कथयन्त:—जो बात अपने समझमें, अनुभवमें आ गयी है, उसका प्रचार करे, वह रोम-रोममें व्याप्त हो जाय। दो विद्यार्थी रात-दिन अपने पाठको याद करते हैं। एक तो अपने समझकर फिर नीची क्लासोंको पढ़ाता है और दूसरा नहीं, तो वह पढ़ानेवाला विशिष्ट है। आगे जाकर उसकी सारी चेष्टा, वार्तालाप, ध्यान सब आनन्ददायक हो जाते हैं। फिर उसके द्वारा निरन्तर रमण ही होता है। जप करना, परमात्मामें रमण, ध्यान, कथन, सब उस परमात्मामें ही रमण है। उसे इतना आस्वादन होता है कि उसकी तुलनामें कुछ है ही नहीं। उस रमणके समान वह परमात्माके मिलनको भी कोई चीज नहीं समझता। वह तो यही चाहता है कि रमण बना ही रहे। यह प्रेमसे भजनेका प्रकार है।
‘भजतां प्रीतिपूर्वकम्’ रात-दिन जिसका काम ही यही है, प्रेमसे प्रेम ही उसका उद्देश्य है। एक-एक क्रियामें उसका प्रेम है। प्रेमके लिये ही प्रेमपूर्वक कर रहा है। भगवान् कहते हैं कि वह फिर स्वयं ही जान जाता है कि मैं क्या हूँ। मनुष्य जिस काममें प्रवेश करता है, उस कामकी सारी बातें जान जाता है, इसी तरह वह भी उस परमात्माके सारे तत्त्व-रहस्यको जान जाता है।
इनमें सबसे बढ़कर जो चीज है, ‘रमन्ति च’ वह परमात्मामें रमण करना है। उसका फल ‘तुष्यन्ति’ है। इस प्रकार जो परमात्मामें रमण करता है, उसका दर्शन करनेवालेको बहुत आनन्द होता है। भरत महाराज जा रहे हैं। जहाँ चरणचिह्न देखे, उन्हें देखते-देखते मुग्ध हो गये, राममें रमण करने लगे। प्रेममें उस दशाको देखनेवाले गुहकी दशा बेदशा हो गयी, फिर भरतकी क्या दशा हुई होगी। उन्हींका मनमें ध्यान है, चिन्तन है, उन्हींमें रमण कर रहे हैं। चाहे भगवान् उठायें या नहीं। भरतजी जब जा रहे हैं, गुहका क्या भाव है। भरतजी वापस जा रहे हैं, चरणपादुका लेते जा रहे हैं, उन्हींमें उनका मन रमण कर रहा है। नन्दिग्राममें भी उन्हींमें मन रमा हुआ है, जब एक दिनकी अवधि रह जाती है तो ‘रहा एक दिन अवधि कर’ इत्यादि यह भाव है, यह रमण ही है। ‘राम राम रघुपति जपत’ ऐसी दशा है। हनुमान्जी उनकी दशा देखकर मुग्ध हो रहे हैं। गोपियाँ मुग्ध हो रही हैं, भौंरोंसे कहती हैं कि तू मुझे स्मृति दिला-दिलाकर दु:ख दे रहा है। याद भी आती है, मिलन भी है। यह विरहावस्थाका रमण है। उद्धव भी उनके रमणको देखकर मुग्ध हो गये, ज्ञान, ध्यान सब जाता रहा। भक्तके रमणको देखकर भगवान् अपने-आपको भूल जाते हैं। सुतीक्ष्ण ध्यानमें रमण कर रहे हैं, भगवान् भी मुग्ध होकर एक वृक्षकी ओटमें खड़े देख रहे हैं।
संसारका रमण तुच्छ है। यह नाटक झूठा है, छोटा-सा नाटक है। यह ब्रह्माण्डका रंगमंच बहुत विशाल है। परमात्मा अभिनय कर रहा है, परमात्माको साथ रखे, उसके आनन्दका क्या ठिकाना है। ऐसा एक ही नाटक है। उसके रमणका क्या ठिकाना है। उस परमात्माके प्रेम-सौन्दर्यके सामने सारी दुनियाका सौन्दर्य-प्रेम भी उसके एक कणके बराबर भी नहीं ठहरता, उनकी मूर्ति, क्रीड़ा, रूप, लावण्य, गुण सब दिव्य हैं। स्त्री-पुरुषोंके संयोगमें गुण ही क्या है। इसलिये हमें खयाल करना चाहिये, यदि मनुष्य-जन्म पाकर भी इसी रमणमें आयु बितावें तो हमसे तो पशु ही श्रेष्ठ हैं। पशुको मरनेपर कोई दण्ड नहीं है। वे भोग योनियाँ हैं। मनुष्य-शरीरमें किये हुए पापका ही यह परिणाम है। इस महान् घृणित रमणका सुख तो शूकर-कूकरके समान है और एक मनुष्य-जन्ममें किये हुए पापोंका फल लाखों योनियोंमें भोगना पड़ता है। परिणाम, स्वरूप सोचकर भी वह त्याज्य है। परमात्माका रमण कितना भारी उच्च है, फिर भी हम उसमें मन नहीं लगाते।
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
अमृतके बदले विषका पान करता है। प्रभुका रमण अमृत है। प्रभुके रमणको छोड़कर जो रमणियोंमें रमता है, वह लाखों योनियोंमें ठोकर खाता रहता है। उसका कोई ठिकाना नहीं। अत: सब प्रकारसे सोचकर उस परमेश्वरके स्वरूपमें ही रमण करना चाहिये। उसने हमें मौका दिया है। इस सांसारिक रमणको त्यागकर उसी प्रभुमें ही प्रेमसे रमण करना चाहिये।