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ईश्वरकी सत्ता एवं उनकी भक्ति

प्रवचन—मिति ज्येष्ठशुक्ल ३, संवत् १९९५, दिनांक १। ६। ३८, दोपहर, कर्णवास

जीव केवल मनुष्य-शरीरमें ही भगवान‍्को प्राप्त कर सकता है। यदि मनुष्य इस शरीरमें अपने जीवनको उच्च बना ले तो अच्छा है, नहीं तो अनन्त वर्षोंतक नरकोंमें वास करना होगा। नरकोंमें घोर अन्धकार है, बड़ा ही कष्ट है। जो मनुष्य पाप करता है अर्थात् जो शास्त्रके विपरीत कर्म किया जाता है, यही अनीति है, इसका फल दु:ख है। हम किसीको दु:ख देना चाहते हैं, यह वासना बुरी है। वेद ईश्वरका कानून है। जो न्यायपर चलता है, वही सुखी है। वेद न्याययुक्त है, इसमें सारे ब्रह्माण्डका हित है। ईश्वरके कानूनके अनुसार चलना ही न्याय है। ईश्वरका कानून नित्य है। समय-समयपर लिपि और भाषा बदलती रहती है, नीति बदलती रहती है, उच्चारण बदलता रहता है, किन्तु कानून अनादि है, जबसे सृष्टि है तभीसे कानून है। इस कानूनके अनुसार जो चलता है, वह सुखी हो जाता है, निष्कामभावसे कानूनके अनुसार जो चलता है, उसकी शान्ति कभी भी भंग होती ही नहीं।

परमेश्वरके नामको लक्ष्य करके राम, कृष्ण आदि नामोंसे पुकारना चाहिये। कानूनके अनुसार जितने ग्रन्थ हैं, उनमें अन्तर है तो कोई बात नहीं। उसके अनुसार कार्य करनेसे हमारा कल्याण ही होगा। परमात्माके शरण हो जानेपर जो भूल रहती है उसको परमात्मा ठीक कर देते हैं। परमेश्वरपर भरोसा रखना चाहिये कि ईश्वर सब प्रकारसे हमारी रक्षा कर रहे हैं।

ईश्वर हैं—सबको यही विश्वास करना चाहिये। जितने धार्मिक ग्रन्थ हैं, महात्मा हैं, ईश्वरके होनेकी बात सभी कहते हैं। ईश्वरके विषयमें महापुरुषोंके जो वचन हैं, उन्हें ही मानना चाहिये। युक्तियोंसे भी मान सकते हैं। हम वृक्षोंको, आकाशको, सूर्य-चन्द्रको, पृथ्वी आदिको देखनेसे मालूम करते हैं कि कोई एक ऐसी वस्तु है जो अलौकिक है। कोई कहे कि इनको तो प्रकृति बनाती है। प्रकृति जड़ है, इसको जाननेवाला चेतन है। परमात्मा चेतन है, वह सर्वत्र है। हमलोगोंमें बुद्धि है, यह परिमित ज्ञान है और उसमें अपरिमित ज्ञान है।

यह दुनिया जो देखनेमें आ रही है, इसमें जो पदार्थ हैं, वे बड़े ही अच्छे ढंगसे बनाये हुए हैं। कोई आदमी ऐसा नहीं बना सकता। जो भी कुछ हम देखते हैं, उन सबमें कारीगरी भरी हुई है, क्योंकि बिना कारणके कार्य नहीं हो सकता। जितनी चीजें हैं, उनको बनानेवाला कोई-न-कोई है। अपने-आप तो हो नहीं सकते। वृक्षका कारण बीज है, वह बीज भी कहाँसे आया। परमात्मा बड़ा बुद्धिमान् है। नक्षत्र-चन्द्र आदि सारी रात घूमते रहते हैं और कभी भी नहीं टकराते। सूर्यको ठीक समयपर चलानेवाला कोई-न-कोई है। इस संसारको बनानेवाला कोई तो है ही, वही ईश्वर है। बनाकर वह उसे ठीक चला भी रहा है। जैसे बिना चाबी दिये घड़ी नहीं चलती, उसी प्रकार इस पृथ्वीकी हर समय निगरानी रहती है। पदार्थ सब जड़ हैं और जो इनकी व्यवस्था करनेवाला है, वह परमेश्वर है। अपने शरीरकी तरफ ध्यान देनेसे भी मालूम होता है कि कोई-न-कोई बड़ी ही अलौकिक शक्ति है। एक बहुत ही छोटा जानवर है, जो बड़ी कठिनाईसे दिखायी देता है, उसमें हाथ, पैर, नाक, मुँह आदि सब हैं। उसको मनुष्य तो बना ही नहीं सकता। इससे सिद्ध होता है कि परमात्मा महान् बुद्धिमान् है। एक वृक्षकी तरफ भी ध्यान देनेसे मालूम होता है कि कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं बना सकता। जैसे हमारी अँगुली टूट जाय, आँख फूट जाय, उनको संसारमें कोई भी मनुष्य नहीं बना सकता। इससे सिद्ध होता है कि वह बनानेवाला बहुत भारी बुद्धिमान् है। कोई कह दे कि हाँ, ईश्वर तो था, किन्तु वह मर गया होगा। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। इस संसारकी निगरानी कौन रखता है? जैसे रेल चलती है, उसकी यदि निगरानी न हो तो वह नष्ट हो जाय। उसी प्रकार यदि वह परमेश्वर नहीं है तो फिर इस सृष्टिचक्रको कौन चला रहा है, वह मौजूद ही है। हम जितने लोग हैं, उनमें आत्मा कभी नहीं मरता। यह शरीर नष्ट हो जाता है। शरीर विकारी है, इसलिये जन्मता है और मरता है। द्रष्टा एक ही है और दृश्य अनेक हैं। जिसमें क्षण-क्षणमें परिवर्तन हो, वह नित्य कैसे हो सकता है। दृश्यमें ही परिवर्तन है। आत्मा नित्य है, अज है। युक्तिसे भी सिद्ध हो सकता है। जैसे यह गमछा है, इसमें छ: विकार हैं, इसलिये नष्ट होता है, प्रकट होता है। उत्पत्ति, विनाश, क्षय, वृद्धि, परिवर्तन, (अनित्य), अस्तित्व—ये सब दृश्योंमें हैं। यह हमारा शरीर घटता भी है, बढ़ता भी है, परिवर्तन भी होता है। बाल काले हैं तो सफेद भी हो सकते हैं। शरीर हर समय बदलता रहता है, किन्तु आत्मा नहीं बदलता। आत्मा एकरस रहता है। कोई बात भूल जाते हैं, वह स्मरणकी कमजोरी है। वह तो कहता है कि मुझे स्मरण नहीं है। मन तो बदलता रहता है, किन्तु आत्मा उसको जानता है। सब चीजमें सामान्य चेतन है। दियासलाईमें आग है, किन्तु आग दीखती ही नहीं। जो उसके जाननेवाला होता है वह उसको घिसकर दिखला देता है। सौ वर्षतक दियासलाई पड़ी है, किन्तु वह आग अपना काम नहीं करती, इसी प्रकार सब चीजोंमें सामान्य चेतन है। जैसे प्रह्लादने खम्भेमें भगवान‍्को दिखला दिया। महात्मा पुरुष दिखला सकता है। ईश्वरके द्वारा भेजा हुआ महापुरुष जो कुछ चाहता है वह दिखला देता है, जैसे वेदव्यासजीने युद्धके बाद एक बार फिर सबको जिला दिया, सबको बुलाकर मिला दिया। ऐसे महापुरुष बहुत कम हैं।

परमात्मा सगुण, निर्गुण जैसा मानें वैसे ही हैं। वास्तवमें तो वही बतला सकता है जिसने दर्शन किये हों। एक स्थूल पदार्थको भी अनभिज्ञ मनुष्यको समझाना कठिन है, फिर सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म उस परमात्माको कैसे बतलाया जा सकता है। जहाँ सूर्य प्रकट नहीं होता हो वहाँके लोगोंको सूर्य कैसे समझाया जा सकता है, जहाँ सूर्य-जैसा प्रकाश नहीं है, उन लोगोंको सूर्य कैसे समझावे। परमात्माकी प्राप्तिका साधन करनेसे परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। साधन करनेसे परमात्माको समझ सकता है। भगवान‍्की भक्ति करनेसे मनुष्य उन्हें जान सकता है। सांख्ययोग, ज्ञानयोग—इन दोनोंसे ही परमात्माको प्राप्त कर सकता है।

ईश्वरकी भक्तिका मार्ग सबसे सरल है, इसकी भगवान‍्ने बड़ी भारी प्रशंसा की है।

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥
(गीता९।२)

यह विज्ञानसहित ज्ञान सब विद्याओंका राजा, सब गोपनीयोंका राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त,साधन करनेमें बड़ा सुगम और अविनाशी है। इन सब विशेषणोंवाला श्लोक यह है—

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥
(गीता९।३४)

भगवान‍्में ही मन लगाना चाहिये, उनका मनन-चिन्तन करना चाहिये। भगवान‍्में ही प्रेम करना चाहिये। भगवान‍्की ही पूजा करनी चाहिये। इस प्रकार करनेसे तू मुझे ही प्राप्त होगा।

पूजा दो प्रकारकी है—

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥
(गीता९।२६)

जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।

यह साकारकी पूजा है।

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:॥
(गीता१८।४६)

जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त संसार व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धिको प्राप्त हो जाता है। यह निराकारकी पूजा है। भगवान‍्को ही नमस्कार करना चाहिये।

मनसे परमात्माको देखें, भगवान‍्में ही अनन्य प्रेम, भगवान‍्की ही पूजा और भगवान‍्को ही नमस्कार करना चाहिये। क्रियमाण कर्म मन और शरीरद्वारा होता है। मनसे भगवान‍्का चिन्तन और शरीरसे पूजा करनी चाहिये। भगवान‍्में हमारा अनन्यप्रेम हो, इसी उद्देश्यको लेकर पूजा करनी चाहिये। जैसे बच्चा अपने-आपको माताके अर्पण कर देता है, उसी प्रकार अपने-आपको प्रभुके अर्पण कर देना चाहिये। पुण्य-पापका फल मिले तो प्रसन्न होना चाहिये, क्योंकि यह प्रभुका ही विधान है। इन चारोंमेंसे एकसे ही भगवान् मिल सकते हैं। भगवान‍्में मन लगानेसे ही प्रभु मिल जाते हैं।

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता८।१४)

हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ, अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।

निरन्तर प्रभुका स्मरण करनेवालेको प्रभु सुलभ हो जाते हैं। पूजा भी जो प्रेमसे करता है, उसका दिया हुआ भगवान् खा लेते हैं। केवल ध्यानसे ही प्रभु मिल जाते हैं। सबसे सुगम यह है कि प्रभुके नामका जप ‘कलौ केशवकीर्तनात्’ भगवान‍्ने भी जपयज्ञ श्रेष्ठ बतलाया है। ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ भगवान‍्ने इसे अपना स्वरूप बतलाया है। संतोंने कहा है—

कलिजुग केवल नाम अधारा।
सुमिरि सुमिरि भव उतरहु पारा॥

कलियुगमें तो केवल नामका आधार है।

सुमरि पवनसुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू॥

पवनसुत हनुमान् जी ने प्रभुके नामका जप करके भगवान‍्को वशमें कर लिया।

अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।
भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥

अजामिल तथा गनिका भी भगवान‍्के नामके जपसे तर गये।

कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥

तुलसीदासजी कहते हैं, नामकी महिमा मैं कहाँतक कहूँ, रामजी भी नामकी महिमा नहीं गा सकते।

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥

किसी भी भावसे भजो, भगवान‍्के नामका इतना प्रभाव है कि परिणाम मंगल ही है।

जबहि नाम हिरदे धरॺो भयो पापको नाश।
जैसे चिनगी अग्निकी परी पुरानी घास॥

जिस समय मनुष्य हृदयमें भगवान‍्का नाम धर लेता है, उसी समय पाप नाश हो गये हैं ऐसा समझना चाहिये।

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥

राम नाम साक्षात् मणि है। देहलीपर दीपक धरनेसे जैसे बाहर-भीतर प्रकाश हो जाता है उसी प्रकार जिह्वापर नाम धरनेसे बाहर-भीतर प्रकाश हो जाता है। भगवान् सर्वत्र हैं, किन्तु दीखते नहीं, क्योंकि अन्धकार है, इसलिये प्रभुका नामजप करना चाहिये।

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(गीता ९। ३०-३१)

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है।

वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥
(गीता१५।१९)

हे भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्वसे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वरको ही भजता है।

भगवान‍्का नाम जपनेमें कोई दु:ख नहीं होता है। जिह्वा भी नहीं दुखती। प्रेममें मुग्ध होकर प्रभुके लिये पागल हो जाय तो और भी जल्दी मिलेंगे।

विरक्त पुरुषका संग, जीवन्मुक्त पुरुषोंका संग जिसे सत्संग कहते हैं, उसकी महिमा महान् है।

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥

सत्संगके बिना प्रभुके तत्त्व आदिकी बात नहीं मिलती, इसलिये सबसे सरल सत्संग है। गीता कहती है—

अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥
(गीता१३।२५)

परन्तु इनसे दूसरे अर्थात् जो मन्दबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंसे सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसारसागरको नि:सन्देह तर जाते हैं। सत्संगकी महिमा अपार है।

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