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साधनमें तत्परता

प्रवचन—मिति ज्येष्ठशुक्ल ४, संवत् १९९५, दिनांक २। ६। ३८,दोपहर, कर्णवास।

यदि मनुष्य विशेष तत्परतासे साधन करे तो अपनेको भी लाभ और दूसरोंको भी लाभ है, क्योंकि दूसरे मनुष्य यह देखेंगे कि यह मनुष्य कई वर्षोंसे साधन कर रहा है, किन्तु इसे कुछ लाभ नहीं हुआ, इसलिये यदि हम बहुत तत्परतासे साधन करें तो हमको भी लाभ है और दूसरे मनुष्योंके हृदयमें भी यह भाव पैदा होगा कि हम भी इसी प्रकार लाभ उठावें। वे यदि तैयार हो जाते हैं तो फिर एक-एक आदमीसे दस आदमी तैयार हो सकते हैं। इस तरह बहुत प्रचार हो सकता है। इसलिये बहुत तत्परतासे साधनकी चेष्टा करनी चाहिये। सांसारिक विषयभोगोंसे बिलकुल वैराग्य रखना चाहिये। साधनमें ढील नहीं आनी चाहिये। अपनेको ऊँचे-से-ऊँचा ध्येय बनाकर चलना चाहिये। एकान्तमें बैठकर जो भजन-ध्यान किया जाता है, उस समय यदि विक्षेप आदि नहीं आते हैं तो ठीक है और यदि विक्षेप आते हैं तो निरन्तर भगवान‍्का स्मरण रखते हुए सब क्रियाओंको करना चाहिये। भगवान् बतला रहे हैं—

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:॥
(गीता१८।४६)

जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धिको प्राप्त हो जाता है।

भगवान् अणु-अणुमें व्याप्त हो रहे हैं, यदि यह बात समझमें आ जाय तो फिर हम प्रभुको कैसे भूल सकते हैं, जो अपने इष्टको सब जगह देखता है और सबमें अपने इष्टको देखता है, उसके लिये भगवान् अदृश्य नहीं होते और न वह भगवान‍्के लिये अदृश्य होता है।

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता६।३०)

जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

महात्माओंमें कामनाका अत्यन्त अभाव होता है, उनका सारे भूतोंमें किंचिन्मात्र भी स्वार्थ नहीं रहता। वे जो कुछ करते हैं वह लोकहितार्थ करते हैं। उनके कर्मोंद्वारा किसी भी मनुष्यका अहित नहीं हो सकता। वे लोगोंको अच्छे मार्गमें लगाते हैं। महात्मा पुरुषके द्वारा शास्त्रविपरीत कर्म होते ही नहीं। महात्माओंके आचरण संसारका उद्धार करनेवाले हैं। आदर्श पुरुष वे ही हैं जो महात्मा हैं, इसलिये हमें भी आदर्श पुरुष बनना चाहिये। श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते हैं, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही करते हैं। महात्मा पुरुष जो कुछ आज्ञा करते हैं, सारी दुनिया वैसे ही करती है और जो-जो वह करते हैं, दूसरे भी वैसा ही करते हैं। वे संसारके उद्धारके उद्देश्यसे ही कर्म करते हैं। उनके आचरण और वचनोंमें एकता होती है, जो मनुष्य करके नहीं दिखलाता लोग उसके उपदेशको नहीं मानते। जैसी बात वाणीमें होती है, वैसी ही आचरणमें होनी चाहिये। महापुरुष तो करके दिखला देते हैं कि ऐसा करो। ऐसे आचरण करना चाहिये कि जिससे दूसरे मनुष्य वैसे ही बन जायँ। जबतक अन्त:करणमें वैराग्य और उपरामता नहीं होती, तबतक ध्यान लगना कठिन है। एक विरक्त साधुओंकी टोली आया करती थी। उनमें एक साधु बड़े पण्डित, वैराग्यवान्, उपरामतावाले थे। दो वर्ष पूर्व मैं गया था, उनका नाम सच्चिदानन्द था। वे एक जीवन्मुक्त और बड़े वैराग्यवान् पण्डित थे। वे झोपड़ीमें रहते थे। कुछ भी नहीं लेते थे। कपड़ेमें दस जगह पैबन्द लगा हुआ रहता था। एक नाथूरामजी महाराज थे, पहाड़ोंमें रहा करते थे। सारा समय भजनमें लगाते थे। महाराज मंगलनाथजीकी तो बात ही क्या है। उच्च श्रेणीके श्रद्धा करनेके योग्य साधु अभी भी हैं। उनको देखनेसे हृदयमें भाव आता है कि हम भी ऐसे बनें। जितनी विरक्तता, उपरामता, सदाचार, समता, त्याग—ये सब जिस पुरुषमें जितने हैं, उतना ही वह श्रेष्ठ है। शुकदेवजी जिस समय उपरामतासे जा रहे हैं, तब पता ही नहीं कि यहाँ स्त्रियाँ है अथवा नहीं। रास्तेमें लड़के धूलि गिराते हैं, छेड़ते हैं। अन्तमें परीक्षित् की सभामें पहुँचे, लोग प्रणाम करते हैं, किन्तु पता नहीं। यह देखकर महाराज परीक्षित् जीने लोगोंसे पूछा यह क्या बात है। उन्होंने कहा कि हम लोगोंमें इतनी उपरामता नहीं है। ऐसी स्थितिवाले पुरुषके दर्शनसे हमारा कल्याण हो जाता है। वैराग्य हर वक्त रखना चाहिये। जितनी उपरामता और वैराग्य होगा उतना अच्छा साधन होगा। हमको खूब सावधानीसे रहना चाहिये। शास्त्रोंमें जैसा बतलाया है वैसा ही करना चाहिये। स्त्रीके लिये जैसा बतलाया है उसे वैसा ही करना चाहिये। उसे पतिके सिवाय कुछ नहीं समझना चाहिये, किन्तु पतिका भी कर्तव्य है कि वह उसे अपना आधा अंग समझे। उसे दूसरी स्त्रीकी तरफ कभी भी नहीं देखना चाहिये। जो अपनी स्त्रीको गाली देता है, मारता है, उसका पतन हो जाता है। वह मनुष्य स्त्रीको मारता है और यदि वह आँसू गिराती है तो उन आँसुओंसे जितने रेतके कण भीगते हैं, उतने ही वर्ष नरकमें रहना होगा। यदि वह कोई अपराध कर ले तो उसे शान्तिसे समझाना चाहिये और यदि बहुत ही बड़ा अपराध कर ले तो उसे त्याग सकते हैं, किन्तु गाली एवं मारना वर्जित है। हरेकको अपना-अपना धर्म पालन करना चाहिये। स्त्रियोंको भी अपना धर्म पालन करना चाहिये। स्त्रीके साथ मित्रका-सा व्यवहार करना चाहिये, किन्तु स्त्रीका कर्तव्य है कि वह अपने पतिको देवताके समान समझे।

महात्माओंकी सारी क्रियाएँ जो होती हैं, उनमें उपदेश भरा हुआ होता है। जब वे प्रेमकी बातें कहते हैं तो मानो प्रेेम बरस रहा है और जब वे नीतिकी बातें कहते हैं तो वह सोचता है कि अब मैं ऐसा ही करूँगा और जब वे वैराग्यकी बातें कहते हैं तो एक बार तो वेश्याके भी वैराग्य हो जाता है। उनकी वह बात हृदयमें बैठ जाती है। महात्मा पुरुषोंका चरित्र और आचरण बिना शिक्षाके नहीं होते। उनके आचरणोंको देखनेसे मनुष्यके हृदयमें भी वैसा ही बननेका भाव होता है। उनके सामने झूठ नहीं बोल पाता। यदि हृदय शुद्ध होता है तो सब बातें हृदयमें बैठ जाती हैं। उनकी वाणीका मनुष्यपर असर पड़ता है। जो बहुत उच्च श्रेणीके पुरुष होते हैं, वे मौन होकर उपदेश देते हैं। उनके आचरण, संकेत आदिसे मनुष्यको शिक्षा मिलती है। वे आज्ञा नहीं देते। यदि महात्माने आज्ञा दे दी तो उसका पालन करनेसे मनुष्यका बेड़ा पार हो जाता है। उच्च श्रेणीके महात्मा किसीको आशीर्वाद, वर, शाप आदि नहीं देते, क्योंकि उनमें तेज होता है। उनमें यह शक्ति होती है, उनका आशीर्वाद, वर सच्चा होता है। ऐसे पुरुषोंका दर्शन भी मैंने किया है, वे संसारसे परहेज रखते हैं। वे आज्ञा नहीं देते, न किसीसे प्रतिज्ञा कराते हैं। थोड़े समझदार पुरुष भी आज्ञा नहीं देते, फिर वे कैसे दे सकते हैं। उनका संकेतमात्र काम कर देता है। ऐसे पुरुष संसारमें बहुत कम होते हैं। ऐसोंका मिलना कठिन है और यदि मिल जायँ तो पहचानना कठिन है। उनके आचरणोंसे हमारे आचरण शुद्ध हो जाते हैं। उनके दर्शनसे हमारेपर प्रभाव पड़ता है। दैवी सम्पदाके सब गुण हमारेमें आ जाते हैं, त्याग आ जाता है, रोम-रोमसे त्याग टपकने लगता है। चार चीजोंका तो नामोनिशान नहीं रहता—विलासिता, स्वाद, शौकीनी और आराम। ऐसी स्थिति हो जाती है। जिनके देखनेसे ये सब हो जाय तो समझना चाहिये कि यह महापुरुष हैं। यही पहचान है। उनके दर्शनसे ईश्वरकी स्मृति हो जाती है, उनमें स्वार्थका नामोनिशान नहीं रहता। जरा भी स्वार्थ नहीं रहता। किसी भी प्रकारसे दूसरेसे अपना मतलब सिद्ध नहीं करते। उनसे तो दूसरोंका उपकार होता है। ये दो बातें जिनमें हों वह महापुरुष है। अपने द्वारा दूसरोंकी सेवा करनी चाहिये, किन्तु सेवा करानी नहीं चाहिये। जिसके दर्शनसे हमारेमें धीरता, समता, वात्सल्य आदि गुण आयें तो समझना चाहिये कि वह महात्मा हैं। उनको याद करनेसे भी वैराग्य और उपरामता आने लगती है। उनकी दृष्टिमें समता, प्रेम, दया, शान्ति, ज्ञान भरे रहते हैं, उनके दर्शनसे आस्तिकभाव हो जाते हैं, क्योंकि वे महान् आस्तिकभाववाले होते हैं। ध्यानमें प्राय: विक्षेप और आलस्य ज्यादा आते हैं, किन्तु जब सात्त्विक वृत्ति होती है, तब इन दोनोंका नाम भी नहीं रहता। हमको उस परमेश्वरका ध्यान करना चाहिये। आसन उत्तम होना चाहिये। यह समझना चाहिये कि सर्वत्र वह निराकार स्वरूपवाले भगवान् हैं। उनका स्वरूप ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ है। वह आनन्दमय हैं। निराकार स्वरूप ही साकार हो जाते हैं।

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

हरि सर्वत्र समानभावसे व्यापक हैं और वे प्रेमसे प्रकट होते हैं। जिनको हम निर्गुण-निराकार कहते हैं, वे बोधस्वरूप हैं। जब उनका प्रादुर्भाव होता है, तब पहले बोधस्वरूपसे, फिर प्रकाशरूपसे फिर प्रकाशका पुंज होकर कभी राम, कृष्ण, शिवके रूपमें प्रकट होते हैं। वे ही विराट्-रूपसे प्रकट हो सकते हैं। वे ही आनन्द हैं, जहाँ वाणीका गमन नहीं है। वे प्रेमके रूपमें आते हैं, फिर आमोद-प्रमोदके रूपमें आते हैं और फिर राम, कृष्णके रूपमें आते हैं। यही समझना चाहिये कि सब जगह आनन्द-ही-आनन्द है। ऐसा माननेसे फिर प्रत्यक्षमें आनन्द-ही-आनन्द मालूम होने लगता है। भगवान‍्की चर्चाके समय काम, क्रोध, लोभ नहीं आ सकते। वेद, गीता, उपनिषदोंका जो भाव है, वही वास्तविक है। यह जो सम भाव है, प्रसन्नता है, प्रकाश है, वह भगवान् ही है। भगवान‍्का प्रकाश चन्द्रमासे बहुत ज्यादा है। खूब प्रार्थना करनी चाहिये कि हे प्रभो, प्रभो! आप ध्यानमें तो दर्शन दीजिये। प्रभो! आपको इस कलियुगमें रियायत करनी चाहिये, यद्यपि रियायत है किन्तु और भी कीजिये। आपने कहा कि कलियुगमें केवल नामजप ही है, वह बड़ी अच्छी बात है। आप अधम-उद्धारण हैं, आप दीनबन्धु हैं, आप आनेमें देरी क्यों करते हैं? भरतजीकी तरह हमें भी प्रभुसे प्रार्थना करनी चाहिये कि हे नाथ! अब हमारे प्राणोंके आधारके लिये एक ही दिन बच गया है और हमलोगोंके लिये तो एक ही घण्टेकी अवधि है, क्योंकि एक घण्टेके बाद उठना है।

भरतजीने चौदह वर्षतक प्रतीक्षा की, इसी प्रकार हमको भी प्रार्थना करनी चाहिये। नाथ! हम दो महीनेसे आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, किन्तु आप आये नहीं, इससे सिद्ध होता है कि हम कुटिल हैं।

कारन कवन नाथ नहिं आयउ।
जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ॥
अहह धन्य लछिमन बड़भागी।
राम पदारबिंदु अनुरागी।

जो प्रभुके साथ रहते हैं वे ही धन्य हैं।

कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा।
ताते नाथ संग नहिं लीन्हा॥

हमको भी यही विचार करना चाहिये कि प्रभु हमको पहचान गये कि हम कुटिल हैं, कपटी हैं, इसीलिये नहीं मिलते हैं।

जौं करनी समुझै प्रभु मोरी।
नहिं निस्तार कलप सत कोरी॥

प्रभो! आप यदि हमारे अपराधोंकी ओर देखेंगे तो सौ करोड़ कल्पमें भी मेरा उद्धार नहीं हो सकता।

जन अवगुन प्रभु मान न काऊ।
दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ॥

प्रभो! आप दासोंके दोषोंकी तरफ नहीं देखते हैं। इससे सिद्ध होता है कि आप मिलेंगे।

मोरें जियँ भरोस दृढ़ सोई।
मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई॥

प्रभो! आपका स्वभाव बड़ा कोमल है, इसलिये प्रभो! आप मिलेंगे। ऐसा विश्वास करना चाहिये। आपकी दयापर ही मुझे तो विश्वास है। अपनेपर प्रभुकी दया माननी चाहिये। प्रभुका ध्यान होना कोई कठिन बात नहीं है, यह तो हमारे हाथकी बात है, इसलिये हमको विश्वास करना चाहिये कि प्रभु मिलेंगे।

आनन्दमय आनन्दमय आनन्दमय
नाथ सकल साधन मैं हीना।
कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥

अब प्रभु आकाशमें ध्यानावस्थामें आ गये हैं। अहा! कैसा प्रभुका स्वरूप है, वह तो दिव्य है। उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह तो अन्त:करणसे दीख रहा है। प्रभु निराकारस्वरूपसे, साकाररूपसे प्रकट हो गये हैं। स्वरूप श्यामवर्णका है। आनन्दमय है, प्रभुकी आयु मानो बारह वर्षकी है। ऐसा प्रभुका स्वरूप है। चार फुटकी लम्बाई और डेढ़ फुटकी चौड़ाई है। सारा शरीर चमचम चमक रहा है। भगवान् योगमायासे ढके हुए हैं, सबके सामने प्रत्यक्ष नहीं होते। प्रभुका दिव्य स्वरूप भक्तोंको दिखायी दिया करता है। वही स्वरूप प्रभु धारण किये हुए हैं। सारी दुनियाका सौन्दर्य मिलकर भी उनके एक अंशके बराबर भी नहीं है। प्रभुके चरण बड़े ही सुन्दर, चमकीले, चिकने हैं, छूनेसे सारे शरीरमें रोमांच होता है। अंगुलियाँ बड़ी सुन्दर हैं, चरणोंमें बड़ी अलौकिकता है। अब प्रभु कुछ नीचे आ गये। कैसी अद्भुत दिव्यता है। मानो चन्द्रमाका टुकड़ा तोड़कर लगा दिया हो, ऐसे नाखून हैं। ऐसे ही प्रभुके जानु हैं, नूपुर बज रहे हैं, गुंजा भी गुँथी हुई है, अब प्रभु खड़े हो जाते हैं। प्रभु बाँकेपनसे खड़े हुए हैं, कमर पतली है, नाभि बड़ी सुन्दर है, उदरपर तीन रेखाएँ हैं, दोनों भुजाएँ घुटनोंसे भी लम्बी हैं, बड़ी सुन्दर हैं। दोनों अधर बड़े सुन्दर हैं। वंशी मानो रसका पान कर रही है। दाहिने हाथसे स्वर चला रहे हैं और बायेंसे पकड़े हुए हैं। गलेमें पुष्प, मोती, रत्नोंकी मालाएँ और कौस्तुभमणि धारण किये हुए हैं, कड़ा, अँगूठी, बाजूबंद पहने हुए हैं, गलेमें कंठा पहने हुए हैं, दुपट्टा ओढ़े हुए हैं, बड़ी सुन्दर मूर्ति है। शरीर न मोटा है, न पतला है। दाँत मानो हीरोंकी पंक्ति हो, क्या सुन्दर गाल हैं, जिनका रंग गुलाबी है, चमक रहे हैं। बड़ी सुन्दर नासिका है, जिसमें मुक्ताफल है। कानोंमें सुन्दर कुण्डल हैं। कुण्डलोंकी झलक मन्द बिजलीकी तरह गालोंपर पड़ रही है। नेत्रोंकी शोभाका तो वर्णन हो ही नहीं सकता। नेत्रोंसे सबको मोहित कर रहे हैं। प्रेमका तो श्रोत बह रहा है। जब प्रेमसे देखते हैं तो घायल कर देते हैं, सब मानो आनन्दके स्वरूपमें डूबे हुए हैं। आनन्दकी बाढ़ आ गयी है। नेत्रोंमें अद्भुत शान्ति और दया है। नेत्रोंमें समता है। इन्हीं नेत्रोंमें जब दयाकी तरफ खयाल करते हैं तो मानो दया भरी हुई है। मानो भगवान् प्रेमकी बरछी मार रहे हैं। यह बरछी प्रेमकी है, इससे दु:ख नहीं होता, यह कटाक्ष प्रेमका उद्दीपन करनेवाला है। उनके नेत्रोंमें अलौकिकता है, तिरछी नजरसे देख रहे हैं। जब एक बार मनुष्य उनकी तरफ देख लेता है तो फिर वह किसीकी तरफ नहीं देख सकता। सारा शरीर देदीप्यमान है।

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