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हेतुरहित प्रेमका महत्त्व

प्रवचन—मिति ज्येष्ठशुक्ल १५, संवत् १९९५, दिनाङ्क २९। ५। ३८, दोपहर, कर्णवास

प्रेमीके संगसे प्रेम बढ़ता है और यदि नहीं बढ़ता है तो समझना चाहिये कि हमने प्रेमीका संग नहीं किया। यदि हम चोरका संग करेंगे तो चोरीकी आदत पड़ेगी। यह निश्चित बात है जैसा संग वैसा रंग। यदि हम भगवान‍्का गुणगान करेंगे तो भगवान‍्का हमारेमें प्रेम होगा। जैसे हम किसीके गुण गाते हैं और यह बात उसके पास पहुँचेगी तो उसका हमारे प्रति प्रेम होगा। इसी प्रकार यदि हम भगवान‍्के गुण गावेंगे तो भगवान् तो सर्वत्र हैं, वे जान जायँगे कि यह मेरेसे प्रेम करता है तो भगवान‍्का हमारे प्रति प्रेम होगा। जैसे हम किसीसे मिलनेके लिये अत्यन्त व्याकुल हो जायँ तो अन्तमें हम उस पुरुषको प्राप्त कर लेंगे। उसी प्रकार यदि हमारेमें भगवान‍्को प्राप्त करनेकी उत्कट इच्छा है तो प्रभु तो स्वयं मिल जायँगे। भगवान‍्के तत्त्व, गुण, प्रभाव इनका श्रवण, पुन:-पुन: कथन, मनन करनेसे प्रेम बढ़ता है। हमको यह निश्चय हो जाय कि हम प्रभुके अंश हैं तो हमारा स्वाभाविक ही प्रभुके प्रति प्रेम हो जायगा।

कोई एक गृहस्थी ब्राह्मण था। वह व्यापार करनेके लिये विदेश चला गया। व्यापार करते-करते १६ वर्ष हो गये, फिर वह घर आया, स्टेशनपर लेट हो गयी तो रातको गाँव न जाकर स्टेशनके पास धर्मशालामें रुक गया। उसका लड़का भी अपने पिताको लेनेके लिये स्टेशन आया था। पिताको न पहचाननेके कारण मुलाकात नहीं हुई, वह भी उसी धर्मशालामें ठहर गया। उसके पिताके हैजा हो गया। उसके पुत्रने उसको धर्मशालासे बाहर निकलवा दिया। बादमें पुत्रने उससे पूछा कहाँसे आये? उसने कहा कलकत्तासे आया हूँ। बातचीतमें उसे पता लगा कि यही मेरे पिताजी हैं, तब वह खूब पश्चात्ताप करने लगा और सेवा करने लगा। इसी प्रकार यदि हम परम पिता परमेश्वरको जान लेंगे तो फिर हमारा खूब प्रेम बढ़ेगा। हमको यह समझना चाहिये कि जहाँ हम वास करते हैं, वहीं हमारा परम पिता वास करता है, सभी हमारे पिता हैं यह समझना चाहिये। भगवान् कहते हैं—‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:’ हे अर्जुन! सब भूतोंके हृदयमें स्थित सबकी आत्मा मैं हूँ। सबकी सेवा करनी परमेश्वरकी ही सेवा करनी है। भगवान् स्वयं कहते हैं ‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:।’ (गीता १२। ४) सारे प्राणियोंके हितमें जो रत रहता है वह भगवान‍्को प्राप्त होता है। बच्चा रोता है तो पिता उसका दु:ख दूर कर सकता है, उसी तरह परमेश्वर हमारा दु:ख दूर करता है। किसी भी काममें यदि हम चूक जायँ तो पश्चात्ताप करना चाहिये।

सबकी आत्मा ही परमात्मा है। यदि हम स्वार्थ त्यागकर प्रेम करें तो वह परमेश्वरकी ही सेवा है। हमें सबकी सेवा अथवा अपना हित करना है। एक बार जब नामदेवजीके घरमें कुत्ता आया और वह रोटियोंको ले गया तो वे उसके पीछे दौड़े और बोले हे नाथ! इन रोटियोंको घीसे चुपड़ लीजिये। वहाँ कुत्तेके रूपमें ही भगवान् प्रकट हो गये, क्योंकि वे सबमें भगवान‍्को ही देखते थे। एक बार उनकी झोपड़ीमें आग लग गयी तो वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा आज प्रभु अग्निके रूपमें आये हैं, इतना कहकर उन्होंने बची हुई चीजें अग्निमें फेंक दीं। रातको भगवान‍्ने उनकी झोपड़ीको बना दिया। यह बड़ी रहस्यकी बात है। सबसे हम हेतुरहित प्रेम करें तो भगवान् तुरन्त प्रकट हो जायँ। भगवान‍्के भक्तका दर्जा भगवान‍्से भी बड़ा है।

सभी अपने स्वार्थके मित्र हैं, स्वप्नमें भी कोई हेतुरहित प्रेम नहीं करता है। हाँ, हेतुरहित प्रेम करनेवाले या तो आप हैं अथवा आपका भक्त है।

स्वारथ मीत सकल जग माहीं।
सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥

भगवान‍्के गुण जिसमें न हों, वह भक्त ही क्या? जो भगवान‍्को सुहृद् जान जाता है, वह परमशान्तिको प्राप्त हो जाता है। भगवान‍्में जो सुहृदता है, वही भगवत्ता है। प्रभुमें जो यह सुहृदता है, वही उनका ईश्वरपना है। इसीसे प्रभुकी महत्ता है, यदि हम यह बात समझ लें तो फिर हम भी सुहृद् बन सकते हैं। स्वामीमें जो उत्तम-उत्तम बातें हैं, उनको तो सेवकको ग्रहण कर ही लेना चाहिये। सुहृदताका मतलब यह है कि सबमें हेतुरहित प्रेम। भगवान‍्ने भक्तोंके लक्षणमें बतलाया है—

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कार: समदु:खसुख: क्षमी॥
सन्तुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
(गीता १२। १३-१४)

जो पुरुष सब भूतोंमें द्वेषभावसे रहित, स्वार्थरहित, सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममतासे रहित, अहङ्कारसे रहित, सुख-दु:खोंकी प्राप्तिमें सम और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करनेवालेको भी अभय देनेवाला है; तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें किये हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चयवाला है—वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।

किसीसे भी द्वेष नहीं करना चाहिये। सब काम प्रभुकी कृपासे होते हैं। यदि मृत्यु भी आये तो भी दु:खी नहीं होना चाहिये। जब हम भगवान‍्को सुहृद् समझ लेंगे तो फिर शान्ति मिल सकती है। प्रभु तो बड़े दयालु हैं, उनके सामर्थ्यका तो कोई वर्णन ही नहीं कर सकता। यदि हम संसारसे हेतुरहित प्रेम करेंगे तो फिर सारा संसार हमारेसे प्रेम करेगा।

सुर नर मुनि सब कै यह रीती।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥

देवता, मनुष्य, मुनि ये सब स्वार्थ होनेसे ही प्रीति करते हैं। प्राय: देवता स्वार्थमें रत हैं। इन्द्र भी स्वार्थी है। मुनियोंमें भी स्वार्थ है। इनमें जो भगवान‍्को तत्त्वसे जान जाता है, वही भगवान‍्का भक्त है, वही हेतुरहित प्रेम करनेवाला होता है। उसका रत्तीभर भी स्वार्थ नहीं रहता। जीवन्मुक्त महात्मा पुरुष यदि दूसरोंके हितके लिये संसारमें अपने नामकी, अथवा चित्रकी पूजा चाहे, अपनी बड़ाई चाहे, मान चाहे, यह जीवन्मुक्तका लक्षण नहीं है, क्योंकि मान, बड़ाई, प्रतिष्ठासे दूसरोंका हित नहीं हो सकता। जीवन्मुक्त तो कुछ भी नहीं चाहता। जो ब्रह्ममय हो जाता है, जो सच्चिदानन्दघन परमात्मामय हो जाता है, वह जीवन्मुक्त पुरुष है। वह तो जीवोंकी दृष्टिसे सबका कल्याण हो, यह चाहता है। राम, कृष्ण, शिव ये सब एक हैं। ब्रह्म बुद्धिसे चाहे किसी नामको जपो। भक्तिमार्गी भक्त कहता है कि हमारे स्वामीके रहते हुए तुम मेरी पूजा करते हो, कितनी भूल करते हो। वह सारे संसारके ऐश्वर्यको विष्ठाके समान समझता है। जो तत्त्ववेत्ता पुरुष हैं, वे ही हमको समझा सकते हैं। वैराग्यवान् पुरुष ही वैराग्य बतला सकता है। क्या विषयी पुरुष हमें वैराग्य बतला सकता है। वैराग्य तो वही समझा सकता है, जो सारे संसारको मिट्टीके समान समझता है। कोई इत्र लगा दे तो वह मूत्रके समान समझता है। मुझे भी इत्र आदि अच्छे नहीं लगते। आपने पुष्पोंकी माला चढ़ानेके लिये कहा, मुझे तो ये जूते मारनेके समान लगते हैं। कोई संन्यासी आये, उनको देखकर एक गृहस्थीने प्रणाम किया, उन्होंने भी उनको प्रणाम किया। तब उसने कहा आप मुझे प्रणाम क्यों करते हैं? उसने कहा तुम बड़े त्यागी हो, उसने पूछा कैसे, संन्यासीजीने कहा मैंने तो विषयोंको छोड़ दिया, किन्तु ईश्वर मेरे पास है और तुमने ईश्वरको त्याग दिया और विषयोंको ग्रहण किया। विषयोंसे ईश्वर बड़ा है। इसलिये तूने बड़ेको त्यागकर बड़ा त्याग किया। उन्होंने उससे कहा कि यदि तुम भी चाहो तो ईश्वरको पकड़ सकते हो। सारी दुनियामें साक्षात् प्रभुको विराजमान जानकर सबकी सेवा करनी चाहिये। भगवान‍्ने कहा है जो मुझे सबका सुहृद् जानता है, वह शान्तिको प्राप्त करता है। सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।

मनुजीने कहा है कि वह ही धन्य है जो मान और बड़ाईको विषके समान समझकर त्याग देता है और निन्दाको अमृतके समान समझकर ग्रहण करता है। कुत्ता भी जब मान करनेसे खुश होता है तो हमारेमें क्या विशेषता है? सारे भूतोंमें दया करना दैवी सम्पदाका मुख्य लक्षण है। जब सारे भूतोंमें हम प्रभुको देखें तो वह प्रभुकी सेवा है। हम यदि हरेकको आराम पहुँचाते हैं तो यह प्रभुकी सेवा है। जब मनुष्य प्रभुके अर्पण हो जाता है तब चाहे बीमारी हो, दु:ख हो, चाहे कुछ भी हो, वह प्रभुका विधान है, ऐसा वह मनुष्य जानता है।

हम अपना-परायाका भेद मानते हैं। हम पराया तो प्रभुके अर्पण कर देते हैं, किन्तु अपना अर्पण नहीं करते। इसी प्रकार यदि हम अपनेको अर्पण कर दें तो फिर कुछ भी चिन्ता नहीं रहती। गोपियोंने अपने-आपको प्रभुके अर्पण कर दिया था। हमको हर समय प्रभुको पकड़े रहना चाहिये। ऐसा करनेसे प्रभु हमें हर समय याद रहेंगे। इससे हमारा प्रेम बढ़ेगा। इस प्रकार जो प्रभुको प्रेमसे भजता है, प्रभु उसको भजते हैं, क्योंकि यह भगवान‍्की प्रतिज्ञा है—

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
(गीता४।११)

जो मेरा जिस प्रकार भजन करता है, मैं उसका उसी प्रकार भजन करता हूँ। यह कोई झूठी बात नहीं है। भगवान‍्को भीष्म भजते थे, इसलिये भीष्मको भगवान् भजते थे। जो मनुष्य परमेश्वरके तत्त्वको जानता है, वह रुपयोंको तो मिट्टीके समान समझता है। भगवान‍्का ध्यान करनेसे भगवान् उसका ध्यान करते हैं। भगवान‍्को यदि हम अपने हृदयमें बसा लेंगे तो भगवान् हमारे हृदयमें बस जायँगे, क्योंकि भगवान् कहते हैं—

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥
(गीता ९। २९)

जो भक्त मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ।

जब हमारा मन भगवान‍्में लग जायगा तो फिर वह दूसरी तरफ नहीं जा सकता। भगवान‍्का ध्यान नहीं लगता है तो भगवान‍्के प्रभावको जानना चाहिये, प्रभावको जाननेवाला पुरुष रात-दिन भगवान‍्को ही चाहता है। आजकल लोग पैसेके ही दास हो गये हैं। सब पैसा-पैसा करते रहते हैं। पैसेके प्रभावको प्रत्यक्ष देख लो, जैसे एक व्यापारी सबेरेसे लेकर शामतक यही चेष्टा करता है कि कैसे रुपया बढ़े, वह थकता नहीं। जितने ग्राहक आते हैं, उतना ही प्रसन्न होता है। उसी प्रकार हमें भगवान‍्को समझना चाहिये। पैसे तो मूत्रके समान हैं। यदि हम भगवान‍्के तत्त्वको जान लें तो पैसोंकी तरफ देखना ही नहीं चाहेंगे। उनको तो पैसे मिट्टी-पत्थरके समान दीखने लगेंगे। ‘समलोष्टाश्मकाञ्चन:’ सारे खजानोंका घर पारस है, फिर रुपयोंको इकट्ठा करनेकी आवश्यकता नहीं। पारसमें तो एक ही गुण है, किन्तु प्रभुमें अनन्त गुण हैं। जैसे पैसोंके प्रभावको जाननेवाला पुरुष पैसे कमाते समय न थकता है, न निद्रा आती है, न प्यास लगती है। इसी प्रकार यदि हम प्रभुको चाहें तो फिर हमें न निद्रा आती है, न हम थकते हैं। असली धन भजन-ध्यान है। आशा रखनी चाहिये कि इसके फलस्वरूप भगवान् मिलेंगे। तब कितनी प्रसन्नता होती है।

कबिरा सब जग निर्धना धनवन्ता नहीं कोय।
धनवन्ता सोइ जानिये जाके राम नाम धन होय॥

यदि हमारे पास सच्चा धन होगा तो राजा-महाराजा लोग हमारे चरणोंमें लोटेंगे। इसलिये हमको असली धन कमाना चाहिये। इस नकली धनको विष्ठाके समान समझना चाहिये। जब व्याधि आती है वह व्याधि वैराग्यवान् पुरुषके वैराग्यको बढ़ानेवाली है, किन्तु भोगी पुरुषके लिये तो वह महान् कष्टप्रद है।

इस संसाररूपी समुद्रसे वही पार जा सकता है जिसके पास साधन हो अथवा जिसके पास खूब बल हो। इस संसारमें विषयरूपी जल भरा हुआ है, किन्तु वैराग्यवान् पुरुष इस समुद्रको पार कर जाता है। मनुष्य जब पार जाना चाहता है, तब कंचन-कामिनीरूपी जलको त्यागना पड़ता है। ऐसा जब कर लेता है, तब मान-प्रतिष्ठा होती है, तब उसका भी त्याग कर देता है। कीर्तिको भी त्याग देता है। ऋद्धि-सिद्धियोंको भी त्याग देता है, तब देवतालोग स्तुति करते हैं, किन्तु वह इनको भी त्याग देता है। ब्रह्मलोकतकके ऐश्वर्यको त्याग देता है, फिर वह परमात्माको प्राप्त कर जाता है। इस अपार संसारसे पार होनेके लिये प्रभुके चरण ही बड़ी नौका है। साधनमें ये पाँच बातें बड़ी सहायक हैं—१. भगवान‍्की आज्ञाका पालन करना, २. सबको परमात्माका स्वरूप समझकर सेवा करना, ३. निरन्तर भगवान‍्का स्मरण, ४. मृत्यु भी आवे तो उसे प्रभुका प्रसाद समझना, ५. प्रेम करे तो प्रभुसे ही प्रेम करे।

भगवान‍्के प्रभावकी बात अलौकिक है। महापुरुषोंका भी अलौकिक प्रभाव होता है। वे जो कुछ चाहते हैं, वही कर सकते हैं।

एक गृहस्थी वैश्य था, वह बड़ा भक्त था। उसका लड़का मर गया, पौत्र भी खूब बीमार हो गया। इलाज किया पर ठीक नहीं हुआ। किसीने उस वैश्यसे कहा कि यहाँ एक तपस्वी हैं, वे यदि यज्ञकुण्डकी राखकी चूँटी भी दे दें तो लड़का ठीक हो सकता है। वे लोग तपस्वीके पास गये। उनको सब बात बतलायी तथा कहा कि आप यज्ञकुण्डकी राख दे दीजिये। उन्होंने कहा हम तो साधारण हैं। अन्तमें कहा—वैश्यसे कह दो कि तुम लड़केको बैठा दो, वह ठीक हो जायगा। उन लोगोंने बताया कि तपस्वीने कहा है कि आप लड़केको बैठा दें तो लड़का ठीक हो जायगा, किन्तु वैश्यने बात नहीं मानी, लड़का मर गया। महापुरुष जो कह देते हैं, उनकी वाणी सत्य हो जाती है। यह शक्ति भजन-ध्यानमें है। त्यागके महत्त्वसे मृत्यु भी उनको नहीं ले जा सकती। महापुरुषोंसे देवता भी भय करते हैं। उनकी इच्छा अपने लिये उत्पन्न नहीं होती, उनकी इच्छा भक्तोंकी इच्छासे होती है। जिस तरह भगवान् भक्तोंकी इच्छा पूर्ण करते हैं। यदि जिज्ञासुमें खूब प्रेम है तो उसका उद्धार महापुरुष एक क्षणमें कर सकते हैं। उसकी यह श्रद्धा हो कि यह हमारा कल्याण कर सकते हैं तो उसका कल्याण हो जाता है। उनकी कोई भी क्रिया व्यर्थ नहीं जाती। महापुरुषोंके आज्ञानुसार यदि मनुष्य काम करे तो फिर उसका कल्याण हो जाता है। ऐसा पुरुष तो करोड़ोंमें कोई एक होता है, जो सुख और दु:खमें सम है, मिट्टी और सोनेमें सम है, प्रिय और अप्रियमें सम है, निन्दा-स्तुतिमें सम है, आसक्तिसे रहित है। महापुरुष तो ऐसा ही होना चाहिये। मान-अपमानमें सम है, ऐसा पुरुष गुणातीत कहलाता है। ऐसे पुरुष संसारमें बहुत ही थोड़े हैं। पहचानना मुश्किल है। इसके लिये एकान्तमें भगवान‍्के सामने रोना चाहिये। सच्ची पुकार होगी तो भगवान् स्वयं महापुरुषका स्वरूप बनकर आ जायँगे और हमें शिक्षा देंगे। जिसमें किसी प्रकारका स्वार्थ न हो, जो त्रिलोकीके ऐश्वर्यको मूत्रके समान समझता हो, जो हेतुरहित प्रेम करता हो, उसको महापुरुष जानना चाहिये। जिसको देखनेसे भगवान‍्का स्मरण होता है तो समझना चाहिये कि यह महापुरुष है। महापुरुषके मिलते ही अज्ञानका नाश हो जाता है और ज्ञानका प्रकाश हो जाता है। महापुरुषोंकी ऐसी महिमा बतलायी गयी है।

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